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महिला दिवस बीत जाने पर तो ये बातें करना और जरूरी हैं...

    • रोशनी ठोकने
    • Updated: 09 मार्च, 2016 01:59 PM
  • 09 मार्च, 2016 01:59 PM
offline
महिलाओं को मुद्दा बनाकर सम्मान देना बंद कर दीजिये. अगर सम्मान ही देना है तो महिलाओं को इंसान समझकर समानता दीजिये. ये मत समझियेगा कि महिलाएं समानता के नाम पर पुरुषों की तरह आज़ादी मांग रही हैं... नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है.

8 मार्च, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस, एक ऐसा दिन जब संसद से लेकर सड़क तक, सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों तक हर जगह महिलाओं के सम्मान और अधिकारों की रक्षा, महिला सशक्तिकरण और महिलाओं की उपलब्धियों पर न जाने कितने कार्यक्रम, कितने सम्मान समारोहों का आयोजन होता है. सुबह से लेकर शाम तक बुद्धिजीवी वर्ग, हमारे नेता और हमारे आप जैसे कितने लोग न जाने कितनी महिला प्रधान बातें करते हैं, कहते हैं.... और फिर धीरे धीरे शाम गहरा कर रात में बदल जाती है... 8 मार्च की तारीख 9 मार्च में बदल जाती है. अगली सुबह हर घर, ऑफिस और शहर की कहानी वही होती है, जो 7 मार्च को थी.

क्या महिला दिवस महज़ एक दिखावा है, ढकोसला है, या फिर वाकई इस 'एक दिन' की बदौलत हम हर साल समाज में कुछ बदलने की कोशिश करते हैं? सवाल मेरा है, जवाब आप अपने अंदर टटोलिये....

मैं तो बस एक महिला होने के नाते 8 मार्च और 9 मार्च के बीच महिला को किसी मुद्दे की तरह देख रही हूँ.

महिला को मुद्दा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैंने देखा है बदलती तारीख के साथ बदलते फेसबुक स्टेटस को, टीवी चैनलों की हेडलाइंस को, महिलाओं को सम्मान देने की बात करने वाले नेताओं को, आम जनता को और खुद को भी. मैंने देखा है सम्मान पाकर ख़ुशी ख़ुशी घर लौटी महिला को किचन में अकेले खाना बनाते हुए. टीवी से चिपके पुरुष को ये कहते हुए की तुम टीवी पर आ रही हो, आज तो तुमने कमाल कर दिया. महिला सहर्ष सब स्वीकार कर लेती है, क्योंकि वो जानती है की उसे क्या चाहिए... उसे अन्नपूर्णा की संज्ञा भी दी गई है.. इसीलिए पति को स्वादिष्ट भोजन खिलाकर भी महिला अपने लिए सम्मान ही अर्जित करती है. मैंने देखा है 8 मार्च को महिला सुरक्षा का दम्भ भरने वाले नेताओं को अगले ही दिन अपने वादों को भूलते हुए. मैंने देखा है उम्रदराज़ और मनचलों की नज़रों को गिरते हुए. तारीख के साथ इंसान की सोच को बदलते हुए. ये सब देखकर मुझे लगता है की कोई भी महिला 'एक दिन' का सम्मान नहीं चाहती होगी.

आप महिलाओं को मुद्दा बनाकर सम्मान देना बंद कर दीजिये. अगर सम्मान ही...

8 मार्च, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस, एक ऐसा दिन जब संसद से लेकर सड़क तक, सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों तक हर जगह महिलाओं के सम्मान और अधिकारों की रक्षा, महिला सशक्तिकरण और महिलाओं की उपलब्धियों पर न जाने कितने कार्यक्रम, कितने सम्मान समारोहों का आयोजन होता है. सुबह से लेकर शाम तक बुद्धिजीवी वर्ग, हमारे नेता और हमारे आप जैसे कितने लोग न जाने कितनी महिला प्रधान बातें करते हैं, कहते हैं.... और फिर धीरे धीरे शाम गहरा कर रात में बदल जाती है... 8 मार्च की तारीख 9 मार्च में बदल जाती है. अगली सुबह हर घर, ऑफिस और शहर की कहानी वही होती है, जो 7 मार्च को थी.

क्या महिला दिवस महज़ एक दिखावा है, ढकोसला है, या फिर वाकई इस 'एक दिन' की बदौलत हम हर साल समाज में कुछ बदलने की कोशिश करते हैं? सवाल मेरा है, जवाब आप अपने अंदर टटोलिये....

मैं तो बस एक महिला होने के नाते 8 मार्च और 9 मार्च के बीच महिला को किसी मुद्दे की तरह देख रही हूँ.

महिला को मुद्दा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैंने देखा है बदलती तारीख के साथ बदलते फेसबुक स्टेटस को, टीवी चैनलों की हेडलाइंस को, महिलाओं को सम्मान देने की बात करने वाले नेताओं को, आम जनता को और खुद को भी. मैंने देखा है सम्मान पाकर ख़ुशी ख़ुशी घर लौटी महिला को किचन में अकेले खाना बनाते हुए. टीवी से चिपके पुरुष को ये कहते हुए की तुम टीवी पर आ रही हो, आज तो तुमने कमाल कर दिया. महिला सहर्ष सब स्वीकार कर लेती है, क्योंकि वो जानती है की उसे क्या चाहिए... उसे अन्नपूर्णा की संज्ञा भी दी गई है.. इसीलिए पति को स्वादिष्ट भोजन खिलाकर भी महिला अपने लिए सम्मान ही अर्जित करती है. मैंने देखा है 8 मार्च को महिला सुरक्षा का दम्भ भरने वाले नेताओं को अगले ही दिन अपने वादों को भूलते हुए. मैंने देखा है उम्रदराज़ और मनचलों की नज़रों को गिरते हुए. तारीख के साथ इंसान की सोच को बदलते हुए. ये सब देखकर मुझे लगता है की कोई भी महिला 'एक दिन' का सम्मान नहीं चाहती होगी.

आप महिलाओं को मुद्दा बनाकर सम्मान देना बंद कर दीजिये. अगर सम्मान ही देना है तो महिलाओं को इंसान समझकर समानता दीजिये. ये मत समझियेगा कि महिलाएं समानता के नाम पर पुरुषों की तरह आज़ादी मांग रही हैं... नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है. बल्कि महिलाएं तो सिर्फ अपना अधिकार मांग रही है अपने लिए समानता चाहती हैं. ऐसी समानता जहाँ उसके विचारों का सम्मान हो. जहाँ महिला की इच्छाओं और सपनों का सम्मान हो, जहाँ खुलकर हँसने की, बोलने की, नाराज़ होने की आज़ादी हो, जहाँ पति या पिता के नाम से अलग उसकी अपनी पहचान हो, जहाँ शादी के बाद सरनेम बदलना या न बदलना महिला की चॉइस हो जहाँ घर, दफ्तर से किचन और लॉन्ड्री तक हर काम में महिला-पुरुष एक दूसरे के पूरक बने न की विरोधी.

हालाँकि हमारी पहली कक्षा की किताबों में ही ये अंतर तय कर दिया गया है की "राधा पानी लाएगी, खाना पकाएगी और मोहन बाजार जायेगा, काम पर जायेगा" वगैरह वगैरह... हमारे पाठ्यक्रम ने ही तय कर दिया कि महिला का क्या काम है और पुरुषों का क्या काम है. विलोम शब्द के नाम पर महिला - पुरूष को एक दूसरे का उल्टा या यूँ कहें विरोधी बना दिया गया है. काश बचपन से ही ये शिक्षा दी जाती की महिला और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं, सहयोगी होते हैं, साथी होते हैं, विरोधी नहीं.

खैर, आज 9 मार्च है, और बतौर महिला मेरी जिंदगी भी वैसी ही है जैसी किसी भी साधारण महिला की होगी.... जो लोग कल शुभकामनायें दे कर सराहना कर रहे थे, वो लोग आज अपनी जिंदगी की भाग-दौड़ में मशगूल है, और मैं अपनी.

अगर कुछ पीछे छूट गया है, तो वो 8 मार्च है... जो अगले साल फिर आएगा, कुछ नए शुभकामना संदेशों और सम्मान समारोह के साथ, कुछ और महिलाओं को ये याद दिलाने की आज दिन तुम्हारा है. बस 'एक दिन'....

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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