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शहीदों का अपमान करना कोई हमसे सीखे

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 30 जून, 2016 07:18 PM
  • 30 जून, 2016 07:18 PM
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अफसोस कि हमारे यहां 'युद्ध के बाद शहीदों की कुर्बानी भुला दी जाती है. सिर्फ करीबी रिश्तेदार और दोस्त ही उन्हें याद करते हैं. अपने योद्धाओं को याद करने के लिए हम एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक तक नहीं बना सके. इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है.

लगता है कि हमें अब अपने रणभूमि के वीरों का अपमान करने में भी शर्म नहीं आती. इस लिहाज से हम किस हद तक संवेदनहीन हो गए हैं, इसका एक ताजा उदाहरण ले लीजिए. रात ही में जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में सीआरपीएफ की बस पर आतंकियों ने हमला किया, जिसमें 8 जवान शहीद हो गए. शहीद हुए एक जवान का नाम वीर सिंह था. वे सचमुच में एक ‘’वीर’’ कांस्टेबल थे. उनका पार्थिव शरीर उनके उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के गांव में अंतिम संस्कार के लिय़े लाया जाता है. पर आप यकीन नहीं मानेंगे कि गांव के कुछ कथित ऊंची जाति के दबंगों ने कांस्टेबल वीर सिंह की अंत्येष्टि में अवरोध खड़े करने शुरू कर दिय़े. वे किसी भी हालत में कांस्टेबल वीर सिंह की अंत्येष्टि एक सार्वजनिक स्थान पर नहीं होने दे रहे थे. इस विरोध के मूल में वजह वीर सिंह का कथित निचली जाति से संबंध रखना था. इस उदाहरण को पढ़कर हर एक राष्ट्र भक्त की आंखें नम हो जाएंगी. क्या भारत में कठिन हालातों में सरहद की ऱखवाली करने वालों और शत्रु के दांत खट्टे करते हुए जीवन दान देने वालों का इस तरह से घोर अपमान होगा?

सच्ची बात ये है कि हम अपने शहीदों का सम्मान और उनका स्मरण करने के स्तर पर खासे कमजोर ही रहे हैं. देश की आजादी के बाद हमने कई युद्ध लड़े. उन युद्धों में हजारों जवान शहीद हुए. और देश आजतक उनका एक शहीद स्मारक तक नहीं बना सका है. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के शहीदों कि स्मृति में इंडिया गेट शान से जरुर खड़ा है. अब कहीं जाकर एनडीए सरकार ने एक युद्ध स्मारक बनाने का निर्णय लिया है.

द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों की याद में अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया स्मारक

दरअसल चीन के...

लगता है कि हमें अब अपने रणभूमि के वीरों का अपमान करने में भी शर्म नहीं आती. इस लिहाज से हम किस हद तक संवेदनहीन हो गए हैं, इसका एक ताजा उदाहरण ले लीजिए. रात ही में जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में सीआरपीएफ की बस पर आतंकियों ने हमला किया, जिसमें 8 जवान शहीद हो गए. शहीद हुए एक जवान का नाम वीर सिंह था. वे सचमुच में एक ‘’वीर’’ कांस्टेबल थे. उनका पार्थिव शरीर उनके उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के गांव में अंतिम संस्कार के लिय़े लाया जाता है. पर आप यकीन नहीं मानेंगे कि गांव के कुछ कथित ऊंची जाति के दबंगों ने कांस्टेबल वीर सिंह की अंत्येष्टि में अवरोध खड़े करने शुरू कर दिय़े. वे किसी भी हालत में कांस्टेबल वीर सिंह की अंत्येष्टि एक सार्वजनिक स्थान पर नहीं होने दे रहे थे. इस विरोध के मूल में वजह वीर सिंह का कथित निचली जाति से संबंध रखना था. इस उदाहरण को पढ़कर हर एक राष्ट्र भक्त की आंखें नम हो जाएंगी. क्या भारत में कठिन हालातों में सरहद की ऱखवाली करने वालों और शत्रु के दांत खट्टे करते हुए जीवन दान देने वालों का इस तरह से घोर अपमान होगा?

सच्ची बात ये है कि हम अपने शहीदों का सम्मान और उनका स्मरण करने के स्तर पर खासे कमजोर ही रहे हैं. देश की आजादी के बाद हमने कई युद्ध लड़े. उन युद्धों में हजारों जवान शहीद हुए. और देश आजतक उनका एक शहीद स्मारक तक नहीं बना सका है. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के शहीदों कि स्मृति में इंडिया गेट शान से जरुर खड़ा है. अब कहीं जाकर एनडीए सरकार ने एक युद्ध स्मारक बनाने का निर्णय लिया है.

द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों की याद में अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया स्मारक

दरअसल चीन के साथ 1962 में जंग के बाद ही पहली बार शहीदों की याद में युद्ध स्मारक बनाने की मांग हुई थी. और उसके बाद बार-बार युद्ध स्मारक की मांग उठती रही. अब जाकर केन्द्र सरकार ने आखिरकार एक राष्ट्रीय स्मारक और युद्ध संग्रहालय के निर्माण को मंजूरी प्रदान कर दी है. राजधानी में यह स्मारक इंडिया गेट के पास प्रिंसेस पार्क में बनेगा. आजादी के बाद देश की सेनाओं ने चीन के खिलाफ 1962 में और पाकिस्तान के खिलाफ 1948, 1965, 1971 और 1999 में भयंकर युद्ध लड़ें. 1987 से 1990 तक श्रीलंका में ऑपरेशन पवन के दौरान भारतीय शांति सेना के शौर्य को भी नहीं भुलाया जा सकता है. 1948 में 1,110 जवान, 1962 में 3,250 जवान, 1965 में 364 जवान, श्रीलंका में 1,157 जवान और कारगिल की 1999 में हुई जंग में 522 जवान शहीद हुए. ऐसे अर्धसैनिक बलों के जवानों की संख्या भी कम नहीं है जो अलगाववादियों के हौसलों को पस्त करते हुए शहीद हुए. कांस्टेबल वीर सिंह भी उन्हीं वीरों की श्रेणी में आते हैं. पर बदले में इन वीरों को देश से मिला क्या? महज बेरुखी!

साल 2014 के लोकसभा चुनावों की कैंपेन के दौरान नरेन्द्र मोदी ने बार-बार युद्ध स्मारक के निर्माण करने का देश से वादा किया था. सत्तासीन होते ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने युद्ध स्मारक के निर्माण को मंजूरी दे दी। चलिए अब कम से कम युद्ध स्मारक तो बन ही जाएगा.

लेकिन, शहीदों के अपमान का मसला अपनी जगह बना हुआ है. राजधानी से सटे नोएडा में अरुण विहार नाम रखा गया था 1971 की जंग के नायक सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की स्मृति में. उन्होंने पंजाब-जम्मू सेक्टर के शकरगढ़ में शत्रु के दस टैंक नष्ट किए थे. वे तब 21 साल के थे. इतनी कम आयु में अब तक किसी को परमवीर चक्र नहीं मिला है. अरुण खेत्रपाल के इंडियन मिलिट्री अकाडमी (आईएमए) से निकलते ही पाकिस्तान के साथ जंग शुरू हो गई. अरुण ने खुद उस जंग में भाग लेने की इच्छा अपने अधिकारियों से जताई. अरुण खेत्रपाल की स्क्वॉड्रन 17 पुणे हार्स 16 दिसम्बर को शकरगढ़ में थी. उस दिन भीषण युद्ध हुआ था. अरुण शत्रु के टैंकों को बर्बाद करते जा रहे थे. इसी क्रम में उनके टैक में भी आग लग गई. वे शहीद हो गए. लेकिन, तब तक शत्रु की कमर टूट चुकी थी. अरुण खेत्रपाल के अदम्य साहस और पराक्रम की चर्चा किए बगैर 1971 की जंग की बात करना बेमानी होगा. पर उत्तर प्रदेश सरकार या नोएडा प्रशासन ने कभी इस तरह की पहल नहीं की जिससे नोएडा वासियों को, खासकर नई पीढ़ी को यह पता चल सके कि अरुण खेत्रपाल कौन थे? वे दिल्ली से संबंध रखते थे. दिल्ली में उनके नाम पर एक गली तक का नाम नहीं है.

शहीद मेजर (डा.) अश्वनी कान्वा भारतीय शांति रक्षा सेना (आईपीकेएफ) के साथ 1987 में जाफना गए थे. राजधानी के पश्चिम विहार में में उनके नाम पर एक सड़क तो है, लेकिन जिस पत्थर पर सड़क का नाम मेजर (डा.) अश्वनी कान्वा लिखा है, उसके ऊपर तमाम लोग पोस्टर लगा देते हैं. सोच लीजिये हम कहां जा चुके हैं. मेजर कान्वा 3 नवंबर,1987 को अपने कैंप में घायल भारतीय सैनिकों के इलाज में जुटे हुए थे. उस मनहूस दिन शाम के वक्त उन्हें पता चला कि हमारे कुछ जवानों पर कैंप के बाहर ही हमला हो गया है. वे फौरन वहां पहुंचे. वे जब उन्हें फर्स्ट एड दे रहे थे तब आसपास छिपकर बैठे लिट्टे के आतंकियों ने उन पर गोलियां बरसा दीं. उन्हें तीन गोलियां लगीं. अफसोस कि दूसरों का इलाज करने वाले को फर्स्ट एड देना वाला कोई नहीं था. उन दिनों बेहद आकर्षक व्यक्तिव वाले मेजर अश्वनी की शादी के लिए लड़की ढूंढी जा रही थी, जब वे शहीद हुए. वे तब मात्र 28 साल के थे. और अपनी भरी जवानी में देश के लिये शहीद हुए योद्धा का हम इस तरह से अपमान करते हैं.

अफसोस कि हमारे यहां 'युद्ध के बाद शहीदों की कुर्बानी भुला दी जाती है. सिर्फ करीबी रिश्तेदार और दोस्त ही उन्हें याद करते हैं. अपने योद्धाओं को याद करने के लिए हम एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक तक नहीं बना सके. इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है. अलबत्ता, इस मसले को लेकर बातें और वादें खूब होती हैं. और अब तो पाठ्यपुस्तकों में विभिन्न जंगों के नायकों की वीर गाथा का वर्णन करने वाले अध्याय तक पूर्ववर्ती सरकारों ने गायब कर दिए हैं. हां, गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के मौके पर जवानों को याद करने की रस्म अदायगी भर हम जरूर कर लेते हैं. और अब सेना के प्रति सम्मान का भाव रखना तो दूर, उन्हें अब खलनायक के रूप में पेश किया जाने लगा है. मेरे एक मित्र बता रहे थे कि हाल ही में लुधियाना के मुख्य चौराहे पर 1971 की जंग के नायक शहीद फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों की मूर्ति के नीचे लगी पट्टिका को उखाड़ दिया गया. लुधियाना सेखों का गृहनगर है और 1971 की जंग में अदम्य साहस के लिए मरणोप्रांत परमवीर चक्र से नवाजा गया था. इस तरह के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है. मैं कुछ समय पहले सिंगापुर में था. वहां के वॉर मेमोरियल में जाने का भी मौका मिला. ये देखकर सच में बहुत अच्छा लगा कि उसमें उन भारतीय सेना के उन रेजीमेंटों की विस्तार से चर्चा की गई है, जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध में सिंगापुर को जापानी सेनाओं के हमले से बचाया था. अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों के नाम इंडिया गेट में लिखवाये. यानी पराए हमारे शौर्य का सम्मान कर रहे हैं और हम आज तक युद्ध स्मारक नहीं बना सके. और हमने सीआरपीएफ के कांस्टेबल वीर सिंह की शहादत का जिस तरह से अपनाम किया है, उसका दूसरा उदाहरण दुनिया के किसी भी भाग में मिले तो बताना.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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