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समाज

गांव को सिटी मत बनाइए

    • सन्‍नी कुमार
    • Updated: 04 मार्च, 2016 02:58 PM
  • 04 मार्च, 2016 02:58 PM
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गाँव अपने स्वभाव में ही सामुदायिक होते हैं क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के पास इतना अधिक संसाधन नहीं होता कि वह स्वंय ही सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ले. इसलिए परस्पर सहयोग के माध्यम से ग्रामीण जीवन शैली संचालित होती रही है.

यह आवश्यक नहीं है कि समाज में आधुनिकता के नाम पर होने वाला हर परिवर्तन अच्छा ही हो. कई बार परंपरा में चली आ रही चीज़ें नए बदलावों से कहीं अधिक बेहतर होतीं हैं. दरअसल, किसी भी बदलाव की प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने "मूल" से कितना सुसंगत है. यदि परिवर्तन ऐसे हों कि वह सम्पूर्ण ढांचे के लिए ही ख़तरा उत्पन्न करने लग जाए तो आवश्यक है कि परिवर्तनकारी तत्त्वों को नियंत्रित किया जाए या फिर उसे ढाँचे के अनुकूल बनाया जाए.

इस सन्दर्भ में यदि भारतीय गांवों की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि उदारीकरण के बाद भारतीय समाज में जो बदलाव आये उसने ग्रामीण संरचना को बुरी तरह से प्रभावित किया है. दरअसल नब्बे के दशक में न केवल आर्थिक उदारीकरण हुआ बल्कि जीवन शैली में भी पश्चिम के उदारवाद का प्रभाव दिखने लगा. जिसके मूल में "व्यक्तिवाद" था. इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय गाँव जो सामुदायिकता की नींव पर स्थित थे उनमें व्यक्तिवाद की ईंट जुड़ने लगी. जाहिर है कि जब नींव और ऊपरी भवन में साम्य नहीं होगा तो ढांचा बिगड़ेगा ही. गाँव अपने स्वभाव में ही सामुदायिक होते हैं क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के पास इतना अधिक संसाधन नहीं होता कि वह स्वंय ही सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ले. इसलिए परस्पर सहयोग के माध्यम से ग्रामीण जीवन शैली संचालित होती रही है. किन्तु उदारीकरण के बाद जीवन जीने के मानकों में परिवर्तन आया और बाजारवादी मूल्यों के प्रवेश ने सामुदायिकता के भाव को कमज़ोर कर लाभ-हानि को प्रमुख कर दिया. गाँव के परिवार भी अब संकुचित होने लगे और कुनबा पड़ोसियों में तब्दील होता गया. गाँव का खुला आँगन शहरों की भांति चहारदीवारी में घिरने लगा और रिश्ते भी उसी बीच चक्कर काटने लगे. एकल परिवार शहरी जीवन की जरूरत हो सकती है और किन्हीं कारणों से ग्रामीण जीवन की भी किन्तु संयुक्त परिवार के ‘मूल्य’ का टूट जाना खतरनाक है. फिर परिवार को अगर बड़े संदर्भ में लें तो यह उन सभी सामाजिक संस्थाओं से जुड़ती हैं जिनके सदस्य परस्पर सहयोग से जीते हैं.

यह आवश्यक नहीं है कि समाज में आधुनिकता के नाम पर होने वाला हर परिवर्तन अच्छा ही हो. कई बार परंपरा में चली आ रही चीज़ें नए बदलावों से कहीं अधिक बेहतर होतीं हैं. दरअसल, किसी भी बदलाव की प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने "मूल" से कितना सुसंगत है. यदि परिवर्तन ऐसे हों कि वह सम्पूर्ण ढांचे के लिए ही ख़तरा उत्पन्न करने लग जाए तो आवश्यक है कि परिवर्तनकारी तत्त्वों को नियंत्रित किया जाए या फिर उसे ढाँचे के अनुकूल बनाया जाए.

इस सन्दर्भ में यदि भारतीय गांवों की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि उदारीकरण के बाद भारतीय समाज में जो बदलाव आये उसने ग्रामीण संरचना को बुरी तरह से प्रभावित किया है. दरअसल नब्बे के दशक में न केवल आर्थिक उदारीकरण हुआ बल्कि जीवन शैली में भी पश्चिम के उदारवाद का प्रभाव दिखने लगा. जिसके मूल में "व्यक्तिवाद" था. इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय गाँव जो सामुदायिकता की नींव पर स्थित थे उनमें व्यक्तिवाद की ईंट जुड़ने लगी. जाहिर है कि जब नींव और ऊपरी भवन में साम्य नहीं होगा तो ढांचा बिगड़ेगा ही. गाँव अपने स्वभाव में ही सामुदायिक होते हैं क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के पास इतना अधिक संसाधन नहीं होता कि वह स्वंय ही सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ले. इसलिए परस्पर सहयोग के माध्यम से ग्रामीण जीवन शैली संचालित होती रही है. किन्तु उदारीकरण के बाद जीवन जीने के मानकों में परिवर्तन आया और बाजारवादी मूल्यों के प्रवेश ने सामुदायिकता के भाव को कमज़ोर कर लाभ-हानि को प्रमुख कर दिया. गाँव के परिवार भी अब संकुचित होने लगे और कुनबा पड़ोसियों में तब्दील होता गया. गाँव का खुला आँगन शहरों की भांति चहारदीवारी में घिरने लगा और रिश्ते भी उसी बीच चक्कर काटने लगे. एकल परिवार शहरी जीवन की जरूरत हो सकती है और किन्हीं कारणों से ग्रामीण जीवन की भी किन्तु संयुक्त परिवार के ‘मूल्य’ का टूट जाना खतरनाक है. फिर परिवार को अगर बड़े संदर्भ में लें तो यह उन सभी सामाजिक संस्थाओं से जुड़ती हैं जिनके सदस्य परस्पर सहयोग से जीते हैं.

इस परिवर्तन का प्रभाव अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ा. दरअसल पश्चिमी जीवन शैली को ही मानक मान लेने और उसके अनुसार ही अपने जीवन को ढालने की कोशिश ने समृद्ध विविधता को समाप्त कर कृत्रिम एकरूपता को थोपने का काम किया. फिर मनोरंजन के साधन से लेकर त्योहारों को मानाने की रीति में भी परिवर्तन आया. लोकगीतों का चलन कम हो जाना, फाग और चैती जैसे ऋतु आधारित गीतों का लुप्तप्राय हो जाना, और सबसे बढ़कर ऐसे परम्परा को मानने की वकालत करने वालों को पिछड़ा मानने की मानसिकता भी इन्ही "मानकीकरण" के कारण जन्म लेती है. भोजपुरी गीतों में बढती अश्लीलता भी इसी का एक उदहारण है. वस्तुतः पश्चिमी यौन उन्मुक्तता का प्रवेश जिस रूप में इन गीतों में हुआ वह भौंडेपन में तब्दील हो गया क्योंकि यह बदलाव आंतरिक न होकर बाह्य रूप से आरोपित था.ऐसा नहीं है कि परम्परागत ग्रामीण संरचना निर्दोष है. उसमें भी तमाम तरह की कमियां हैं किन्तु वह प्रकृति के अधिक निकट है. वहां बनावटीपन का भाव कम है. इसके अतिरिक्त किसी खास परिस्थिति के अनुकूल जीवन शैली को सार्वभौमिक रूप से पेश करना गलत है. कोई भी बदलाव आंतरिक रूप से होता है तो अधिक स्थायी होता है. ऊपर से थोपा गया परिवर्तन क्षणभंगुर होता है.

गांव भारतीय समाज की सच्चाई है इसलिए विकास का स्वरूप ‘स्मार्ट सिटी’ के साथ ‘स्मार्ट गांव' भी हो. गांव को सिटी न बनाया जाए बल्कि वो सुविधाएं गांव तक पहुंचा दी जाए जो शहरों तक ही सीमित होकर रह गए हैं. गांव अपने आप स्मार्ट हो जाएगा. गांव पिछड़ेपन का पर्याय बनकर न रहे और न ही शहर एक स्वपन बन जाए. गांव में समृद्धता है भाषा की, बोली की, रीति रिवाजों की. गांव भारत की विविधता का आईना है. इसलिये आवश्यकता है कि गांवो को उसके मूल स्वरूप में बना रहने दिया जाए.

विकास जरूर गांव तक पहुंचे लेकिन वह रहे गांव ही.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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