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देख तमाशा लकड़ी का: पिता जी की आराम कुर्सी और उससे जुडी स्मृतियां...

    • सर्वेश त्रिपाठी
    • Updated: 10 जून, 2021 05:21 PM
  • 10 जून, 2021 05:21 PM
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ड्राइंग रूप में फर्नीचर के नाम पर बाबा आदम के जमाने की कुर्सी मेज तब तक शान से पड़ी रही जब तक की हम सब इतने बड़े न हो गए कि हम सब के मित्रों का आना जाना नहीं शुरू हुआ. अच्छा बड़ी मजेदार बात यह कि न जाने कैसे और किन परिस्थितियों में वो सब फर्नीचर बने कि सब अलग अलग डिजाइन और आकार में होते थे.

क्या जीवन क्या मरण कबीरा

खेल रचाया लकड़ी का.

घर से इलाहाबाद जाते समय इलाहाबाद फैज़ाबाद पैसेंजर ट्रेन में अक्सर एक भिखारी अपनी लाठी ट्रेन की फर्श पर बजाते यह गाना गाते मिल जाता था.

डोली, पालकी और जनाजा,

सबकुछ है ये लकड़ी का,

जनम-मरण के इस मेले में,

है सहारा लकड़ी का.

पता नहीं वह भिखारी अभी जिंदा है या नहीं लेकिन उसकी आवाज़ और गाने का अंदाज़ मेरी स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज़ हो चुका है. समय कैसे चीजों को प्रतिस्थापित करता अपने निष्ठुर गति से चलता रहता है. हम सब भी तो अपने जीवन में विभिन्न भूमिकाओं में काल के रचित उद्देश्य के निमित्त मात्र ही तो है. फ़िलहाल हम सब छोटे कस्बों में पले बढ़े बच्चे उस समय ख़ुद को शहर वाला कह कर बचपन में फूले न समाते थे. लेकिन उस समय यानि अस्सी और नब्बे के दशक में ज्यादातर शहर सिर्फ़ नाम के शहर थे.

तमाम भारतीय घर ऐसे हैं जहां आज भी बाबा आदम के ज़माने के फर्नीचर होते हैं आराम कुर्सी उन्हीं में से एक है

उस शहरीपन में भी गांव का लहज़ा इस प्रकार बैठा था जैसे गांव के घर के मोहारे पर जाड़े की गुनगुनी धूप में अपने कमासुत बच्चों को लेकर संयुक्त परिवार का कोई संतुष्ट बुजुर्ग एक बड़ी सी कुर्सी पर धोती पहनकर बैठकर मूंछों पर ताव दे रहा हो. समय के ही साथ हम सब भाई बहन भी फैज़ाबाद के रेलवे के घर में रहते बड़े हो रहे थे.

अच्छा बहुत उच्च परिष्कृत परिवारों को छोड़ दे तो उस समय के ज्यादातर शहरी घरों में बेडरूम और ड्राइंग रूम का कठोर विभाजन नहीं था. मेहमान या किसी रिश्तेदार के आगमन पर कमरों में कमरे में खटिया बिछौना पड़ जाता था और तथाकथित ड्राइंग रूम...

क्या जीवन क्या मरण कबीरा

खेल रचाया लकड़ी का.

घर से इलाहाबाद जाते समय इलाहाबाद फैज़ाबाद पैसेंजर ट्रेन में अक्सर एक भिखारी अपनी लाठी ट्रेन की फर्श पर बजाते यह गाना गाते मिल जाता था.

डोली, पालकी और जनाजा,

सबकुछ है ये लकड़ी का,

जनम-मरण के इस मेले में,

है सहारा लकड़ी का.

पता नहीं वह भिखारी अभी जिंदा है या नहीं लेकिन उसकी आवाज़ और गाने का अंदाज़ मेरी स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज़ हो चुका है. समय कैसे चीजों को प्रतिस्थापित करता अपने निष्ठुर गति से चलता रहता है. हम सब भी तो अपने जीवन में विभिन्न भूमिकाओं में काल के रचित उद्देश्य के निमित्त मात्र ही तो है. फ़िलहाल हम सब छोटे कस्बों में पले बढ़े बच्चे उस समय ख़ुद को शहर वाला कह कर बचपन में फूले न समाते थे. लेकिन उस समय यानि अस्सी और नब्बे के दशक में ज्यादातर शहर सिर्फ़ नाम के शहर थे.

तमाम भारतीय घर ऐसे हैं जहां आज भी बाबा आदम के ज़माने के फर्नीचर होते हैं आराम कुर्सी उन्हीं में से एक है

उस शहरीपन में भी गांव का लहज़ा इस प्रकार बैठा था जैसे गांव के घर के मोहारे पर जाड़े की गुनगुनी धूप में अपने कमासुत बच्चों को लेकर संयुक्त परिवार का कोई संतुष्ट बुजुर्ग एक बड़ी सी कुर्सी पर धोती पहनकर बैठकर मूंछों पर ताव दे रहा हो. समय के ही साथ हम सब भाई बहन भी फैज़ाबाद के रेलवे के घर में रहते बड़े हो रहे थे.

अच्छा बहुत उच्च परिष्कृत परिवारों को छोड़ दे तो उस समय के ज्यादातर शहरी घरों में बेडरूम और ड्राइंग रूम का कठोर विभाजन नहीं था. मेहमान या किसी रिश्तेदार के आगमन पर कमरों में कमरे में खटिया बिछौना पड़ जाता था और तथाकथित ड्राइंग रूम पुरुषों का बेडरूम और बाकी का घर महिलाओं और हम बच्चों का बेडरूम बन जाता था.

छोटे घरों की मजबूरी कह ले या सादगी का खुलापन कि कुछ ऐसा न था जिसके लिए प्राइवेसी दिखानी पड़े. पीछे के कमरे में बंधी कपड़े टांगने की अलगनी घर भर के कपड़ों का वार्डरोब थी और दीवार में बनी खुली अलमारियां बुकसेल्फ. कीमती कपड़े ,कम्बल, रजाई और कुछ सामान वामान टीन के बक्सों में फिनायल की गोली के साथ तब तक पड़े रहते जब तक कि उनका निकलना अपरिहार्य न हो जाए.

तो भईया जैसे जैसे हम बड़े होने लगे और उपभोक्तावादी शहरी बनने लगे वैसे वैसे गृहसज्जा का टिटिम्मा भी बढ़ने लगा. ड्राइंग रूप में फर्नीचर के नाम पर बाबा आदम के जमाने की कुर्सी मेज तब तक शान से पड़ी रही जब तक की हम सब इतने बड़े न हो गए कि हम सब के मित्रों का आना जाना नहीं शुरू हुआ. अच्छा बड़ी मजेदार बात यह कि न जाने कैसे और किन परिस्थितियों में वो सब फर्नीचर बने कि सब अलग अलग डिजाइन और आकार में होते थे.

उन सब का नामकरण भी हम सब की उम्र और आकार के अनुसार किया गया था. जैसे कम ऊंचाई की छोटी कुर्सी मेज़ छोटे भाई के नाम पर निम्मू बाबू की कुर्सी मेज़ कही जाती थी. दराज़ वाली बड़की मेज़ पर दीदी लोगों का कब्ज़ा था तो वह दीदी की मेज के नाम से पुकारी जाती थी. बाकी बचे हम और बड़े भैया तो बैठके या तथाकथित ड्राइंग रूम की सारी बची कुर्सी मेज़ अब तार्किक रूप से हमारी थी.

हमारे घर में एक कुर्सी बहुत बड़ी (आराम कुर्सी ) सी थी जिसके हत्थे इतने बड़े थे कि उस पर पैर पसारकर आराम किया जाता था. रेलवे के वेटिंग रूप में पहले वैसी ही बड़ी कुर्सियां रखी जाती थी. अम्मा बताती थी कि बाबा के लिए पापा ने धूप सेंकने के लिए शीशम की लकड़ी की यह आराम कुर्सी बनवाई गई थी.

हालांकि बाबा तो हमारे जन्म से पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे तो बाबा को उस आराम कुर्सी पर बैठे न हम साक्षात ही देख पाए और न किसी पुरानी फोटो में. हां पापा जब भी घर पर होते तो इस कुर्सी पर उनका कब्ज़ा रहता जिस पापा या तो पेपर पढ़ते या मित्र मंडली के आगमन पर उनके साथ गप्पे लड़ाते. तो कब्जा और आकार के लिहाज़न मेरे होश सम्हालने से ही उस कुर्सी को पापा की कुर्सी कहा जाता था.

पापा की उस कुर्सी पर बैठना हम सब को भी खूब भाता था. कारण कि उस पर किताब लेकर पढ़ने पर लेटकर पढ़ने सा आनंद मिलता था, साथ पापा की गैरहाजिरी में उस कुर्सी पर बैठकर टीवी देखने का जो सुख था उसकी बराबरी में तो जीवन महान सुखों से किया जा सकता है. पैर पसारकर दूरदर्शन पर अमता बच्चन की फिल्में देखने का वह आनंद फिर कभी मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर के बड़ी गद्दीदार कुर्सी में भी न मिला.

हम भाई बहनों पर टीवी देखने के लिए उस कुर्सी के लिए भिड़ जाना सामान्य बात थी. कई बार छोटे भाई के साथ जब कुर्सी पर कब्ज़ा जमाने का युद्ध अनिर्णीत रहता था या अम्मा के कंटाप से फ़ैसला होता था तो हम और छोटा भाई अपनी अपनी तशरीफ़ अड़सा कर चुपचाप कुर्सी साझा कर लेते थे. सबसे बड़ी बात कि तब शायद उस कुर्सी पर बैठने पर पापा की तरह बड़ा बन जाने का एक भाव भी था.

समय का चक्र है. जब हम बड़े होने लगे तो वही कुर्सियां और मेज़ हमें अड़बंग और भद्दे दिखने प्रतीत होने लगे. अब दोस्तों के यहां नए सोफे हमें मुंह चिढ़ाने लगे. हद तो तब हो जाती जब कोई स्कूल का या मोहल्ले का कोई दोस्त पापा की बड़ी आराम कुर्सी देखकर कहता 'अरे तुम्हारे पापा ज़रूर इसे रेलवे स्टेशन से लाए होंगे.' सच कहूं उस समय का बालमन ऐसा चिढ़ता की पूछिए ही मत.

तो पहले हम लोअर मिडिल क्लास वाले लोगों के यहां परम्परा थी, हम सब भी दीपावली के पहले पापा का बढ़िया मूड भांपकर उनसे घर के लिए एक बढ़िया गद्देदार सोफ़ा सेट के लाने की जिद ठान दिए. दो चार दिन पापा के लेक्चर सत्र और उसके प्रयोज्यता और महापुरुषों के सादगी भरे जीवन की कथाएं सुनने के बाद हम सब की बाल ज़िद जीत गई. एक दिन सोफ़ा भी घर के बैठक में सज गया.

वो सारी पापा की बड़ी कुर्सी समेत सारी कुर्सियां अन्य कमरों में लगा दी गई. जब तक पापा रहे घर पर जब भी कारपेंटर आता पापा उन कुर्सियों की खोज खोज कर मरम्मत करवाते और उसे बुनवाते रहे. पापा के न रहने के बाद कब कैसे उनमें से कुछ कुर्सी मेज कहां गई कैसे टूटफूट गई कुछ ध्यान नहीं रहा. बड़ी आराम कुर्सी की फंदीया टूट के झूल गई और एक दिन वह भी स्टोर में कबाड़ बन गई. इन सब बातों को कई साल बीत गए.

अभी कुछ दिन पहले शायद होली के पहले घर पर कुछ काम हो रहा था. इसी सिलसिले में कारपेंटर भी लगा था. घर पर गांव की बाग में शीशम का एक पुराना पेड़ गिरा था जिसकी लकड़ियां चिरवा कर चाचा भेजवा दिए थे. मेरे मन में आया कि घर की लकड़ी है इसका कुछ ऐसा प्रयोग किया जाए कि निशानी के तौर पर उसे सहेज सकूं.

अम्मा ने कहा 'भैया इसकी छोटी सी कुर्सी मेज़ बनवा दो. लोग अपने बच्चों के लिए आजकल बाजार से खरीदते ही है. यह तो घर की लकड़ी है, मजबूत चीज़ बनेगी पीढ़ियों चलेगी. सच कहूं अम्मा का यह कहना कि पीढ़ियों चलेगी वाला शब्द अचानक से जैसे दिल में धक् से लगा. मैं कारपेंटर के साथ ऊपर गया. पापा की बड़ी आरामकुर्सी लकड़ियों और पुराने समान के ढेर की पीछे धूल और जाले से अटी पड़ी थी.

कारपेंटर की मदद से उसे बाहर निकलवाया और उससे पूछा कि यह कुर्सी अभी कितनी मजबूत है. कारपेंटर ने मुआयना कर के बताया भैया सिर्फ बुनाई टूटी है बाकी किसी लकड़ी पर कोई निशान तक नहीं है. बुनाई की जगह दो सूत की प्लाई लगा दे और उस पर गद्दी लग जाएगी तो पृथु बाबू के बच्चे भी इस पर खेलेंगे.

पापा के जाने के सात साल बाद बच्चों की छोटी कुर्सी मेज के साथ पापा की आराम कुर्सी फिर से बन गई है. दुर्भाग्य है कि उस कुर्सी पर बैठे न तो बाबा की कोई फ़ोटो है और न पापा की है. पता नहीं मेरी संताने उस चीज़ से वह मोह रख पाए या नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन कोशिश है कि उनके बचपन की स्मृतियों में उनके लिए बनी छोटी कुर्सी मेज के अलावा उस बड़ी आराम कुर्सी के लिए छवि अंकित हो जिसे कभी उनके दादा जी ने अपने पिता के लिए बनवाया था. बाकी कम से कम अब यही कोशिश करूंगा की विरासत को हमारी संतान हमारी पीढ़ी की तरह लापरवाही या दिखावे में कबाड़ न बनने दे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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