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मैं मुसलमान हूं.. मैं एक वोट बैंक हूं...

    • अबयज़ खान
    • Updated: 10 फरवरी, 2017 01:15 PM
  • 10 फरवरी, 2017 01:15 PM
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मेरा कुरान मुझे दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की हिदायत देता है. लेकिन मेरे रहनुमा मुझे अपनी कठपुतलियों पर नचाना चाहते हैं. ताकि मै कभी वोट बैंक से आगे ना बढ़ पाऊं.

गुफरान, फुरकान, अब्दुल हमीद, सलमान, सुल्तान... इन जैसे कितने ही नामों से जाना जाता हूं मैं... क्योंकि मैं मुसलमान हूं. हमीदा, आयशा, शाज़िया, आसिया.. इन जैसे कितने ही दूसरे नाम हैं, जो मेरे वजूद की पहचान कराते हैं. हिंदुस्तान की आज़ादी से लेकर 20वीं सदी से 21वीं सदी तक कुछ भी नहीं बदला है. अनगिनत नाम, अनगिनत पहचान और सैकड़ों सरमायादार, यही अब तक मेरी पहचान है. आज़ादी के 70 बरस बाद भी मेरा अब तक कोई मुकाम नहीं है. मुल्क की आबादी में 14 फीसदी की हिस्सेदारी के बावजूद मेरा अब तक कोई वजूद नहीं है. क्योंकि दिल्ली की संसद से लेकर विधानसभाओं की दहलीज़ तक मैं सिर्फ वोट हूं, और वो इसलिए क्योंकि मैं मुसलमान हूं.

पिछले 70 सालों से भटक रहा हूं मैं, कभी कांग्रेस, कभी लेफ़्ट, कभी जनता दल, कभी वीपी, कभी लालू, कभी मुलायम, कभी मायावती, कभी पासवान.  बस किसी फुटबॉल की तरह इधर से उधर ठोकरों में रौंदा जाता हूं मैं. अपने वजूद के लिए लड़ते हुए कभी बुखारी, कभी रशादी, कभी मदनी मुझे इस्तेमाल करते हैं. तो कभी नदवा, कभी देवबंद, कभी बरेली मेरी हैसियत तय करते हैं. कभी सुन्नी, कभी शिया, कभी देवबंदी, कभी बरेलवी, कभी वहाबी मेरी पहचान बन जाती है. कभी बाबरी, कभी लव जिहाद, कभी तीन तलाक, कभी कॉमन सिविल कोड, कभी गाय के नाम पर मुझे कुर्बान करने की कोशिश की जाती है.

आजादी के बाद से अब तक कठपुतलियों की तरह खेल का हिस्सा हूं मैं. दूसरों की डोर पर नाचना शायद मेरी किस्मत बन चुकी है. मेरे नाम पर मजहबी रोटियां सेंकने वाले अपनी दुकान चमका रहे हैं. सियासत की दुकान चलाने वाले कुर्सियों के साथ अय्याशियां कर रहे हैं. मेरी दाढ़ी, मेरा कलमा, मेरी नमाज़, मेरा मज़हब, मेरा ईमान, मेरा दीन, उनके लिए मुझे नचाने के लिए यही काफी है. कभी डराकर, कभी फुसला कर, कभी ललचाकर, हर बार उनका मकसद है कि मुझे इस्तेमाल करके वो...

गुफरान, फुरकान, अब्दुल हमीद, सलमान, सुल्तान... इन जैसे कितने ही नामों से जाना जाता हूं मैं... क्योंकि मैं मुसलमान हूं. हमीदा, आयशा, शाज़िया, आसिया.. इन जैसे कितने ही दूसरे नाम हैं, जो मेरे वजूद की पहचान कराते हैं. हिंदुस्तान की आज़ादी से लेकर 20वीं सदी से 21वीं सदी तक कुछ भी नहीं बदला है. अनगिनत नाम, अनगिनत पहचान और सैकड़ों सरमायादार, यही अब तक मेरी पहचान है. आज़ादी के 70 बरस बाद भी मेरा अब तक कोई मुकाम नहीं है. मुल्क की आबादी में 14 फीसदी की हिस्सेदारी के बावजूद मेरा अब तक कोई वजूद नहीं है. क्योंकि दिल्ली की संसद से लेकर विधानसभाओं की दहलीज़ तक मैं सिर्फ वोट हूं, और वो इसलिए क्योंकि मैं मुसलमान हूं.

पिछले 70 सालों से भटक रहा हूं मैं, कभी कांग्रेस, कभी लेफ़्ट, कभी जनता दल, कभी वीपी, कभी लालू, कभी मुलायम, कभी मायावती, कभी पासवान.  बस किसी फुटबॉल की तरह इधर से उधर ठोकरों में रौंदा जाता हूं मैं. अपने वजूद के लिए लड़ते हुए कभी बुखारी, कभी रशादी, कभी मदनी मुझे इस्तेमाल करते हैं. तो कभी नदवा, कभी देवबंद, कभी बरेली मेरी हैसियत तय करते हैं. कभी सुन्नी, कभी शिया, कभी देवबंदी, कभी बरेलवी, कभी वहाबी मेरी पहचान बन जाती है. कभी बाबरी, कभी लव जिहाद, कभी तीन तलाक, कभी कॉमन सिविल कोड, कभी गाय के नाम पर मुझे कुर्बान करने की कोशिश की जाती है.

आजादी के बाद से अब तक कठपुतलियों की तरह खेल का हिस्सा हूं मैं. दूसरों की डोर पर नाचना शायद मेरी किस्मत बन चुकी है. मेरे नाम पर मजहबी रोटियां सेंकने वाले अपनी दुकान चमका रहे हैं. सियासत की दुकान चलाने वाले कुर्सियों के साथ अय्याशियां कर रहे हैं. मेरी दाढ़ी, मेरा कलमा, मेरी नमाज़, मेरा मज़हब, मेरा ईमान, मेरा दीन, उनके लिए मुझे नचाने के लिए यही काफी है. कभी डराकर, कभी फुसला कर, कभी ललचाकर, हर बार उनका मकसद है कि मुझे इस्तेमाल करके वो अपनी सियासी दुकान चलाते रहें. लेकिन मैं उनकी इन चालों को कभी समझ नहीं पाता हूं. मुझे फतवों, हिंदू-मुस्लिम, दंगा-फसाद में उलझाए रखकर वो मेरे रास्तों में बैरियर अटकाए रखते हैं.

कभी सच्चर कमेटी, कभी वज़ीफ़ों के नामों का ढकोसला, कभी रिज़र्वेशन का लॉलीपॉप, तो कभी ख़ाकी और सरकारी डंडे का खौफ़. कभी डराकर, कभी धमकाकर, कभी ललचाकर वो मुझे बस इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं. बिल्कुल वैसे ही जैसे आजादी के बाद से मैं अब तक इस्तेमाल किया जाता रहा हूं. बिल्कुल वैसे ही जैसे अंग्रेज हिंदू-मुस्लमां के नाम पर दो मुल्क बनाकर सैकड़ों लोगों के खून से होली खेलकर चले गये थे. ठीक उसी तरह आजतक ये मुझे नफरतों की दीवार के बीच में चिनवा देना चाहते हैं.

इनको मतलब नहीं मेरी तालीम से, इनको मतलब नहीं मेरे रोजगार और घरबार से, इनको मतलब नहीं मेरी खुशहाली से, इनको मतलब नहीं मेरे खुद के वजूद और वकार से, इनका मकसद तो बस एक ही है. चुनाव के वक्त किस तरह मैं इनके लिए वोटबैंक बन जाऊं, कैसे हर बार की तरह मैं इनके वादों पर फिर से बेवकूफ बन जाऊं, कैसे बस इनके कहे मुताबिक ईवीएम का बटन दबा आऊं.

मुझे शिकवा नहीं किसी सियासी रहनुमा से, मुझे शिकायत नहीं किसी पार्टी से, अपने वजूद की तलाश में अब भी खुद को कैद महसूस करता हूं अपने मज़हबी आकाओं के बीच. मुझे एहसास होता है एक बंदिश का, अपने आसपास मजबूत बेड़ियों का, जिसकी कैद मुझे मदरसों से स्कूल की तरफ बढ़ने नहीं देती. साइकिल और दर्जी की दुकान से आगे कारोबार करने नहीं देती. झुग्गियों और तंग मुहल्लों से निकलने नहीं देती. मेरे जिस्म के साथ मेरी सोच को भी इन लोगों ने कैद कर दिया है, ताकि कभी इनसे बराबरी कर भी ना पाऊं.

मेरा मज़हब मुझे आगे बढ़ना सिखाता है. मेरा दीन मुझे दुनिया की हर बुलंदी पर पहुंचने की इजाज़त देता है. मेरा कुरान मुझे दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की हिदायत देता है. लेकिन मेरे रहनुमा मुझे अपनी कठपुतलियों पर नचाना चाहते हैं. ताकि मै कभी वोट बैंक से आगे ना बढ़ पाऊं. कभी बुखारी खुदा के घर में बैठकर मेरा सौदा कर लेते हैं. कभी रशादी और तौकीर रज़ा मेरी कीमत लगा लेते हैं. कभी सज्जादानशीन मेरी बोली लगाते हैं. कभी मुफ़्ती साहब मेरी हैसियत बताते हैं. अपनी लाल बत्तियों की खातिर खुदा के घर में बैठने वाले खुदा के खौफ से भी नहीं डरते.

चुनावों के वक्त मेरी मुंह-मांगी कीमत तय होती है. कभी मेरी टोपी पर सियासत होती है. कभी मेरी पगड़ी उछाली जाती है. कभी मैं बिसहाड़ा का अखलाक बना दिया जाता हूं. कभी मुज़फ़्फ़रनगर, बरेली, अलीगढ़ की आग में झुलसा दिया जाता हूं. सियासत की प्रयोगशाला में हर रोज इस्तेमाल किया जाता हूं मैं. उसके बाद मुआवज़ों का मरहम लगाकर मुझे अपाहिज बनाने की कोशिश की जाती है. ताकि उम्रभर मैं उनके एहसानात के नीचे दबा रहूं. और इस सबसे बेखबर मैं बार-बार इस्तेमाल होता जाता हूं. सियासत के लिए, कुर्सी के लिए,  70 साल बाद आज भी मैं खुद को वहीं खड़ा पाता हूं. जहां मेरे पुरखे मुझे छोड़कर गये थे. क्योंकि मेरी हैसियत आज भी एक वोट से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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