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आखिर कैसे लॉन्ग वीकेंड से बच्चों में रचनात्मकता बढ़ती है?

    • ज्योतिरंजन पाठक
    • Updated: 03 नवम्बर, 2022 07:18 PM
  • 03 नवम्बर, 2022 07:02 PM
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अमेरिका के कई राज्यों में ‘फोर डे वीक‘ का फॉर्मूला काफी लोकप्रिय हो रहा है. शिक्षक और बच्चे दोनों काफी खुश हैं. एक शोध के अनुसार, जिसमें अमेरिका के 1600 स्कूलों को शामिल किया गया था उसमें पाया गया कि लंबे अंतराल के बाद जब बच्चे स्कूल पहुंचते हैं तो उनकी रचनात्मकता बढ़ जाती है.

अमेरिका के कई राज्यों में 'फोर डे वीक' का फॉर्मूला काफी लोकप्रिय हो रहा है. शिक्षक और बच्चे दोनों काफी खुश हैं. एक शोध के अनुसार, जिसमें अमेरिका के 1600 स्कूलों को शामिल किया गया था उसमें पाया गया कि लंबे अंतराल के बाद जब बच्चे स्कूल पहुंचते हैं तो वे काफी तरोताजा महसूस करते हैं और पढ़ाई पर ज्यादा उत्सुकता से ध्यान दे पाते हैं और शिक्षकों को भी लेसन प्लान तैयार करने और पढ़ाने के नए –नए तरीकों के बारे में सोचने के लिए उपयुक्त समय मिल जाता है. इसमें कुछ स्कूलों का यह भी कहना है कि इस फॉर्मूले के तहत स्कूल के नतीजों में 25 फीसदी की बढ़ोत्तरी भी हुई है . परंतु क्या अमेरिका के स्कूलों द्वारा किए जा रहे नए प्रयोगों को भारत को अनुसरण करना चाहिए ? क्या भारत में भी इस प्रकार की फॉर्मूले को आजमाया जा सकता है जिससे बच्चों के कंधों को बस्ते के बोझ से लंबे अंतराल तक आराम मिल सके और मासूमियत को जीवित रखने में सहायक सिद्ध हो.

अगर भारतीय छात्रों के वीकेंड को लंबा किया जाए तो कहा यही जा रहा है कि उनकी रचनात्मकता बढ़ जाएगी

छोटी उम्र से ही प्रतियोगी माहौल को झेलते बच्चे आज सिर्फ अंक मशीन बन चुके हैं, उनकी बौद्धिक विकास नहीं हो रही है. इस नंबर गेम में स्कूलों का भी बराबर का सहभागिता होती है क्योंकि साल दर साल अंकों में वृद्धि होने से स्कूलों को जबर्दस्त फायदा होता है. छात्रों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सारे अध्याय को रटे और अच्छे नंबर लाएं. मगर इस नंबरों कि होड़ में पराजित होता है वह एक देश का युवा, देश का भविष्य.

नंबर बटोरने की होड़ में लगे बच्चे शायद हीं अपने पाठ्यक्रम के बाहर जाकर ज्ञान की खोज में लगते हैं. सिर्फ असाइनमेंट पूरा करने और सैद्धांतिक सबक सीखने में इतना व्यस्त रहते हैं कि रचनात्मकता के लिए...

अमेरिका के कई राज्यों में 'फोर डे वीक' का फॉर्मूला काफी लोकप्रिय हो रहा है. शिक्षक और बच्चे दोनों काफी खुश हैं. एक शोध के अनुसार, जिसमें अमेरिका के 1600 स्कूलों को शामिल किया गया था उसमें पाया गया कि लंबे अंतराल के बाद जब बच्चे स्कूल पहुंचते हैं तो वे काफी तरोताजा महसूस करते हैं और पढ़ाई पर ज्यादा उत्सुकता से ध्यान दे पाते हैं और शिक्षकों को भी लेसन प्लान तैयार करने और पढ़ाने के नए –नए तरीकों के बारे में सोचने के लिए उपयुक्त समय मिल जाता है. इसमें कुछ स्कूलों का यह भी कहना है कि इस फॉर्मूले के तहत स्कूल के नतीजों में 25 फीसदी की बढ़ोत्तरी भी हुई है . परंतु क्या अमेरिका के स्कूलों द्वारा किए जा रहे नए प्रयोगों को भारत को अनुसरण करना चाहिए ? क्या भारत में भी इस प्रकार की फॉर्मूले को आजमाया जा सकता है जिससे बच्चों के कंधों को बस्ते के बोझ से लंबे अंतराल तक आराम मिल सके और मासूमियत को जीवित रखने में सहायक सिद्ध हो.

अगर भारतीय छात्रों के वीकेंड को लंबा किया जाए तो कहा यही जा रहा है कि उनकी रचनात्मकता बढ़ जाएगी

छोटी उम्र से ही प्रतियोगी माहौल को झेलते बच्चे आज सिर्फ अंक मशीन बन चुके हैं, उनकी बौद्धिक विकास नहीं हो रही है. इस नंबर गेम में स्कूलों का भी बराबर का सहभागिता होती है क्योंकि साल दर साल अंकों में वृद्धि होने से स्कूलों को जबर्दस्त फायदा होता है. छात्रों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सारे अध्याय को रटे और अच्छे नंबर लाएं. मगर इस नंबरों कि होड़ में पराजित होता है वह एक देश का युवा, देश का भविष्य.

नंबर बटोरने की होड़ में लगे बच्चे शायद हीं अपने पाठ्यक्रम के बाहर जाकर ज्ञान की खोज में लगते हैं. सिर्फ असाइनमेंट पूरा करने और सैद्धांतिक सबक सीखने में इतना व्यस्त रहते हैं कि रचनात्मकता के लिए उनके पास समय नहीं होती है. ऐसे समय में, जब दुनिया रचनात्मक और उत्साही व्यक्तियों की तलाश में है, भारतीय स्कूल बच्चे को सिर्फ अंक लाने के लिए प्रशिक्षित कर रहा है. रचनात्मकता को प्रभावित करता उनका थकाऊ दिनचर्या बच्चों की मासूमियत को नष्ट कर रही है.

स्कूल बैगों का बढ़ता वजन भी बच्चों के लिए गंभीर समस्या बनती जा रही है अगर समय रहते इस पर पर ध्यान नहीं दिया गया तो नए भारत का निर्माण की कल्पना से वंचित रहना पड़ सकता है. भारी भरकम बैग के विषय में नई शिक्षा नीति क्या कहती है यह भी जानना जरूरी है . नई शिक्षा नीति के तहत बच्चे के शरीर के वजन के 10 प्रतिशत से अधिक बैग का वजन नहीं होना चाहिए. अगर बच्चे का शरीर का वजन 20 किलोग्राम है तो स्कूल का बैग का भार 2 किलोग्राम होना चाहिए.

साथ ही नई शिक्षा नीति के अनुसार नर्सरी से लेकर कक्षा दो तक कोई होमवर्क नहीं दिया जा सकता है . कक्षा तीन से चार तक के छात्रों को प्रति सप्ताह केवल दो घंटे का होमवर्क दिया जा सकता है. 6वीं से 8वीं तक के बच्चों को रोजाना अधिकतम एक घंटा और सप्ताह में 5 से 6 घंटे ही होमवर्क दे सकते हैं . माध्यमिक और उच्चतर मध्यमिक छात्रों को रोज अधिकतम 2 घंटे और प्रति सप्ताह 10 से 12 घंटे होमवर्क देने की सलाह है.

लेकिन तमाम शिक्षा नीति के इतर स्कूलों द्वारा होमवर्क का बोझ और बैगों का बढ़ता वजन बच्चों के स्कूल जाने के लिए हतोत्साहित कर रही है. बस्ते के बोझ को कम करने के लिए कुछ सार्थक पहल करने की जरूरत है जैसे पश्चिम में बच्चों के पास स्कूल में लॉकर होते हैं, जिससे स्कूल ले जाने वाली पुस्तकों की संख्या कम हो जाती है. ऐसा क्यों न किया जाए कि बच्चे को कोई पुस्तक लाने की जरूरत ही न रहे.

शिक्षक उन्हें सॉफ्ट कॉपी से पढ़ाएं, जब स्कूलों में डिजिटली माध्यम से शिक्षा का उपयोग शुरू हो ही गया है तो यह भी संभव है कि स्कूल में लॉकर की व्यवस्था जिसमें छात्र अपनी पुस्तक सहेज कर विधालय में रखे ताकि उन्हे प्रति दिन बैगों के वजन से मुक्ति मिले और शिक्षक द्वारा पढ़ाए गए लेशन को अपने पास रखे गए कॉपी पर नोट करे ,इससे काफी हद तक बैग का वजन कम हो जाएगा और बचपन फिर से खिल उठेगा.

पढ़ाई को और रुचिकर बनाने हेतु उत्तर प्रदेश सरकार ने प्राथमिक विधालय के बच्चों के लिए सप्ताह में एक दिन 'नो बैग डे' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है, इस एक दिन कक्षा 1 से 8 तक के छात्रों को तनावमुक्त समय बिताने और सुलभ तरीके से अध्ययन करने पर बल दिया जाएगा. क्योंकि शिक्षा को संवेदना से जोड़ना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. लेकिन साथ ही 'फोर डे वीक ' का फॉर्मूले का अनुकरण करने के लिए विचार करना चाहिए. क्योंकि ऐसे छात्र के लिए तो बहुत ही कारगर सिद्ध होगा जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं है, वे अपने परिवार में आर्थिक योगदान देते हैं. अतिरिक दिन मिलने से वे अधिक रूपए बचा सकते हैं. साथ ही बच्चों के पास अपने सैद्धांतिक अध्याय को रटने के अलावा रचनात्मकता के लिए उपयुक्त समय मिल सकेगा. 'फोर डे वीक' फॉर्मूले जैसे विकल्पों पर सरकारों गंभीरता से विचार करते हुए कुछ ऐसा शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा जिससे बच्चों में पढ़ाई के साथ साथ खुशियों का भी समावेश हो.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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