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हिजाब का आस्था से क्या लेना-देना

    • विनीत कुमार
    • Updated: 25 जुलाई, 2015 03:35 PM
  • 25 जुलाई, 2015 03:35 PM
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लड़कियां इस परीक्षा को पास कर डॉक्टर बनती हैं तो क्या ऑपरेशन थिएटर में भी वे इसे कायम रखेंगी? हिजाब अपनी जगह जरूरी है. लेकिन प्रोफेशनल जिंदगी को देखते हुए 'परंपरा' में कुछ बदलाव भी जरूरी हैं.

ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट (AIPMT) में इस बार सुप्रीम कोर्ट ने हिजाब पहन कर आने की मांग को ठुकरा कर कड़ा संदेश दिया है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. हम धर्मनिरपेक्ष देश हैं. यहां हर किसी को अपने धर्म-जाति की मान्यता के अनुसार जिंदगी जीने का अधिकार है. इसमें कोई दो राय भी नहीं है. लेकिन कई बार जब धर्म देश के कानून और नियमों से ऊपर उठने की कोशिश करे तो ऐसी रोक जरूरी है. कोर्ट ने बड़े सीधे शब्दों में कहा, 'अगर आप एक दिन हिजाब नहीं पहनते, तो इससे आपकी आस्था खत्म नहीं हो जाती है.' 
 
इसी साल मई में AIPMT की परीक्षा में हुई धांधली की शिकायत मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने CBSE को इस परीक्षा में फिर से आयोजित करने का निर्देश दिया था. इसके बाद CBSE ने परीक्षा के लिए बेहद कड़े ड्रेस कोड तय किए. कई लोगों ने इसकी आलोचना की. उसमें मैं भी शामिल हूं. बेल्ट, जूते, इयररिंग्स, घड़ी आदि पहन कर नहीं आने जैसे बेतुके फरमान मुझे भी पसंद नहीं आए. लेकिन हिजाब का मसला मैं दूसरे तरीके से देखता हूं. यह धार्मिक मामला हो सकता है. लेकिन हम कई विषयों पर ईमानदारी से बात करने से डरते हैं. डर लगता है कि पता नहीं हमारी टिप्पणी पर कोई क्या समझ ले.
 
आप जो समझें, मैं हिजाब को पर्देदारी से जोड़ कर देखता हूं. मुझे जानकारी नहीं कि इस्लाम में इसे कितना जरूरी बताया गया है. लेकिन एक हद से ज्यादा पर्देदारी को मैं सही नहीं मानता. केरल में दो लड़कियों ने परीक्षा में हिजाब नहीं पहन कर आने की CBSE के निर्देश को राज्य के हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. कोर्ट ने दोनों लड़कियों की मांग को मानते हुए उन्हें हिजाब पहन कर परीक्षा देने की अनुमति दे दी. मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है. क्या हिजाब पहनना सच में उनका निजी फैसला है? क्या आज के दौर में यह इतना जरूरी है? सारे नियम-कायदे दुनिया की आधी आबादी पर थोपने की कोशिश क्यों होती है?
 
अगर लड़कियां इस परीक्षा को पास करती हैं, डॉक्टर बनती हैं तो क्या ऑपरेशन थिएटर में भी वे इसे कायम रखेंगी. हिजाब अपनी जगह जरूरी है. आप इस परंपरा को अन्य मौकों पर कायम रख सकते हैं. लेकिन अपने प्रोफेशनल जिंदगी को देखते हुए 'परंपरा' में कुछ बदलाव भी जरूरी हैं. आज कोई महिला आईएएस ऑफिसर...

ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट (AIPMT) में इस बार सुप्रीम कोर्ट ने हिजाब पहन कर आने की मांग को ठुकरा कर कड़ा संदेश दिया है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. हम धर्मनिरपेक्ष देश हैं. यहां हर किसी को अपने धर्म-जाति की मान्यता के अनुसार जिंदगी जीने का अधिकार है. इसमें कोई दो राय भी नहीं है. लेकिन कई बार जब धर्म देश के कानून और नियमों से ऊपर उठने की कोशिश करे तो ऐसी रोक जरूरी है. कोर्ट ने बड़े सीधे शब्दों में कहा, 'अगर आप एक दिन हिजाब नहीं पहनते, तो इससे आपकी आस्था खत्म नहीं हो जाती है.' 
 
इसी साल मई में AIPMT की परीक्षा में हुई धांधली की शिकायत मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने CBSE को इस परीक्षा में फिर से आयोजित करने का निर्देश दिया था. इसके बाद CBSE ने परीक्षा के लिए बेहद कड़े ड्रेस कोड तय किए. कई लोगों ने इसकी आलोचना की. उसमें मैं भी शामिल हूं. बेल्ट, जूते, इयररिंग्स, घड़ी आदि पहन कर नहीं आने जैसे बेतुके फरमान मुझे भी पसंद नहीं आए. लेकिन हिजाब का मसला मैं दूसरे तरीके से देखता हूं. यह धार्मिक मामला हो सकता है. लेकिन हम कई विषयों पर ईमानदारी से बात करने से डरते हैं. डर लगता है कि पता नहीं हमारी टिप्पणी पर कोई क्या समझ ले.
 
आप जो समझें, मैं हिजाब को पर्देदारी से जोड़ कर देखता हूं. मुझे जानकारी नहीं कि इस्लाम में इसे कितना जरूरी बताया गया है. लेकिन एक हद से ज्यादा पर्देदारी को मैं सही नहीं मानता. केरल में दो लड़कियों ने परीक्षा में हिजाब नहीं पहन कर आने की CBSE के निर्देश को राज्य के हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. कोर्ट ने दोनों लड़कियों की मांग को मानते हुए उन्हें हिजाब पहन कर परीक्षा देने की अनुमति दे दी. मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है. क्या हिजाब पहनना सच में उनका निजी फैसला है? क्या आज के दौर में यह इतना जरूरी है? सारे नियम-कायदे दुनिया की आधी आबादी पर थोपने की कोशिश क्यों होती है?
 
अगर लड़कियां इस परीक्षा को पास करती हैं, डॉक्टर बनती हैं तो क्या ऑपरेशन थिएटर में भी वे इसे कायम रखेंगी. हिजाब अपनी जगह जरूरी है. आप इस परंपरा को अन्य मौकों पर कायम रख सकते हैं. लेकिन अपने प्रोफेशनल जिंदगी को देखते हुए 'परंपरा' में कुछ बदलाव भी जरूरी हैं. आज कोई महिला आईएएस ऑफिसर है, पत्रकार है, डॉक्टर है, खिलाड़ी है तो क्या वह अपने काम के दौरान हिजाब पहने? अगर हां, तो अच्छा है आप उन्हें घर में ही कैद रखें. हम अपनी लड़कियों को अगर तीन-चार घंटों के लिए भी पर्दे से बाहर आने की अनुमति नहीं दे सकते तो फिर तो बात ही खत्म कीजिए. 
 
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने वाले कुछ लोग इस बात का तर्क दे रहे हैं कि फिर सिख समुदाय की पगड़ी पर रोक क्यों नहीं. कोर्ट ने इस पर कुछ नहीं कहा और न ही ऐसा कोई मामला अदालत के सामने आया. फिर भी पगड़ी और हिजाब दो अलग-अलग चीजें हैं. अपनी खोजबीन के आधार पर जितना मुझे पता चला उसके अनुसार हिजाब कहीं भी जरूरी नहीं बताया गया है. यह स्वेच्छा से पहने जाने वाली बात है. पगड़ी का मामला अलग है. 
 
कई बार ऐसे ही खाप पंचायतों के फरमान भी सुनने को मिलते रहते हैं. परंपरा की दुहाई देकर वे लड़कियों के जींस पहनने, मोबाइल पर बात करते पर टोका-टिप्पणी करते रहते हैं. मजाल है कि वे अपने घर के लड़कों को टी-शर्ट और जींस छोड़ धोती-कुर्ता पहनने की सीख दें.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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