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गोरखपुर के मानवेला गांव के जानलेवा गांव में बदल जाने की हकीकत

    • मौसमी सिंह
    • Updated: 14 अगस्त, 2017 10:27 PM
  • 14 अगस्त, 2017 10:27 PM
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उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक मानवीय त्रासदी करवट ले रही है. यहां के गांव ऐसी खतरनाक बीमारी की चपेट में हैं जिसने यहां के भविष्य को ही अंधेरे में ढकेल दिया है.

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में मचे हाहाकार से कुछ दो किलोमीटर दूर मानवेला गांव में सन्नाटा पसरा है. यह वही गांव है जहां पर दर्जनों बार योगी आदित्यनाथ आ चुके हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीएम बनने से पहले और पीएम बनने के बाद यहां पर आये हैं. पर राजनेताओं की दस्तक ने भी इस गांव के भाग्य को नहीं बदला. मानवेला पूर्वी उत्तर प्रदेश के उन सैकड़ों गांव में से एक है जो दिमागी बुखार के जहर से हर पल घुट रहे हैं.

दिल्ली की चकाचौंध से दूर गोरखपुर की गंदगी के बेहद करीब ये है मानवेला गांव. बरसात के मौसम में यहां की मुफलिसी और मनहूस लगती है. इस मौसम में गांववालों को दहशत रहती है, आतंक है एक ऐसी बीमारी का जो चपेट में लेने से पहले शिकार की कच्ची उम्र जरूर पूछती है.

2014 के बाद बच्चों की मौत का औसत 29% पहुंच गया है

अब ये 7 साल का गोलू ना तो अपने भाई सुमित के साथ गुल्ली डंडा खेलता है और न ही अपनी बहन प्रियंका के साथ कविता पढ़ता है. मगर गोलू ऐसा ना था वो 4 साल का था जब सब कुछ थम सा गया. दिमागी बुखार ने इस मासूम को ऐसा रौंद दिया कि गोलू को देख मन रो पड़ता है. गोलू की हालत दिन ब दिन खराब हो रही है. गोलू की बहनें भगवान के दरबार में प्रार्थना कर कर के थक गईं, पर कोई फल नहीं मिला.

गोलू अपने परिवार के साथ

दिमागी बुखार इतना खतरनाक है कि अब वह गांव की जिंदगी में घुन की तरह घुल गया है. एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम यानी AES दो तरह के होते हैं जापानीज इंसेफेलाइटिस और इंट्रो वायरल एंसेफलाइटिस. मगर चिंता इस बात की है कि 2014 के बाद मरने का औसत 29 प्रतिशत पहुंच...

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में मचे हाहाकार से कुछ दो किलोमीटर दूर मानवेला गांव में सन्नाटा पसरा है. यह वही गांव है जहां पर दर्जनों बार योगी आदित्यनाथ आ चुके हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीएम बनने से पहले और पीएम बनने के बाद यहां पर आये हैं. पर राजनेताओं की दस्तक ने भी इस गांव के भाग्य को नहीं बदला. मानवेला पूर्वी उत्तर प्रदेश के उन सैकड़ों गांव में से एक है जो दिमागी बुखार के जहर से हर पल घुट रहे हैं.

दिल्ली की चकाचौंध से दूर गोरखपुर की गंदगी के बेहद करीब ये है मानवेला गांव. बरसात के मौसम में यहां की मुफलिसी और मनहूस लगती है. इस मौसम में गांववालों को दहशत रहती है, आतंक है एक ऐसी बीमारी का जो चपेट में लेने से पहले शिकार की कच्ची उम्र जरूर पूछती है.

2014 के बाद बच्चों की मौत का औसत 29% पहुंच गया है

अब ये 7 साल का गोलू ना तो अपने भाई सुमित के साथ गुल्ली डंडा खेलता है और न ही अपनी बहन प्रियंका के साथ कविता पढ़ता है. मगर गोलू ऐसा ना था वो 4 साल का था जब सब कुछ थम सा गया. दिमागी बुखार ने इस मासूम को ऐसा रौंद दिया कि गोलू को देख मन रो पड़ता है. गोलू की हालत दिन ब दिन खराब हो रही है. गोलू की बहनें भगवान के दरबार में प्रार्थना कर कर के थक गईं, पर कोई फल नहीं मिला.

गोलू अपने परिवार के साथ

दिमागी बुखार इतना खतरनाक है कि अब वह गांव की जिंदगी में घुन की तरह घुल गया है. एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम यानी AES दो तरह के होते हैं जापानीज इंसेफेलाइटिस और इंट्रो वायरल एंसेफलाइटिस. मगर चिंता इस बात की है कि 2014 के बाद मरने का औसत 29 प्रतिशत पहुंच गया.

इन आकड़ों को जी रही है किरण जो अपनी बेटी के इंतजार में बैठी है. रह-रहकर पुराने से सूटकेस में अपनी बेटी को तलाशती है ये मां. किरण के पास और चारा भी क्या है ? दरअसल किरण की गरीबी ने उसकी बेबसी को और दुगना कर दिया और मनीषा के बुखार को और खतरनाक. 

अपनी बड़ी बेटी मनीषा को खो चुकी किरण अपनी छोटी बेटी के साथ

किरण को तो मौत ने समय ही नहीं दिया. दोपहर को मनीषा की तबीयत खराब हुई तो वह भागी-भागी फिरती रही. उसकी बेटी को लगातार झटके आते रहे, शरीर तप रहा था. दो दिन अस्पताल के चक्कर काटने के बाद मनीषा ने मौत से हार मान ली. मनीषा तो इस दुनिया से चली गई मगर इस मां को रह रहकर अपनी छुटकी के लिए डर लगता है.

दिमागी बुखार से पूर्वी उत्तर प्रदेश के 20 जिले प्रभावित हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बतौर सांसद खुद लगभग 10 बार इस मुद्दे को संसद में उठा चुके हैं. योगी सरकार ने कम्पेन के तहत बीस जिलों में केंद्र बनाने और 88 लाख वैक्सीन देने का वादा किया है. लेकिन पिछले 40 सालों से सरकारी वादों को और उनको पूरा करने के बीच के फासले में ही तो गोलू, मनीषा और रिंकी फंसे हैं.

देखिए क्या गुजर रही है इन बच्चों पर -

रिंकी बोल नहीं सकती, खुलकर जिंदगी नहीं जी सकती. जब दिमागी बुखार ने इसका साथ पकड़ा तो उसको ऐसा जकड़ा कि रिंकी मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गई. रिंकी के शरीर एक तरफ से पूरा लकवा से ग्रस्थ है. अब रिंकी का संघर्ष तालियों की गड़गड़ाहट तक सीमित है.

रिंकी अपनी मां रामवती के साथ

आजकल गांव की गलियों में आपको एक बेचैन मां, एक परेशान दादी, या हैरान पिता नजर आ ही जाएगा. कोई न कोई तो होगा ही जो मेडिकल कॉलेज के चक्कर काट रहा होगा. नई सरकार के नए राज्य में क्या सोच रहा है गांव का गरीब?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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