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तुम किससे इंसाफ़ मांग रही हो परी...

    • अबयज़ खान
    • Updated: 14 अप्रिल, 2018 03:58 PM
  • 14 अप्रिल, 2018 03:58 PM
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परी तुम्हारे जाने के बाद अब सिर्फ ढकोसला हो रहा है. आन्दोलनों के नाम पर गले फाड़े जा रहे हैं, बलात्कार में भी मजहब का तड़का लगाया जा रहा है, तुम्हें मालूम है जो कल निर्भया के नाम पर ढोंग कर रहे थे आज तुम्हारे नाम पर मजहबी रोटियां सेंक रहे है.

लिखते हुए मेरी उंगलियां कांप रही हैं. सोशल मीडिया से लेकर अखबारों और टीवी तक, जहां भी तुम्हारी तस्वीर देखता हूं, आंखों से आंसू ज़ार ज़ार बहने लगते हैं. मैं चाहकर भी तुम्हारा नाम नहीं लिख सकता, अदालतों की बन्दिशों ने मजबूरियों की बेड़ियां हाथों में डाल दी हैं, मगर मैं तुम्हें परी तो बुला सकता हूं, शायद इससे तुम्हारे अम्मी-अब्बू को भी तकलीफ़ नहीं होगी.

यकीन मानो परी अगर इस मुल्क में अदालतें नहीं होतीं तो आज तुम्हारी फरियाद संसद की चाहरदीवारी से लौटकर वापस आ जाती क्योंकि जिन्हें तुमने अपना रहनुमा बनाया है उनकी ज़ुबान पर तो ताला लगा है. ऐसा नहीं है कि ये ताला कभी खुलेगा नहीं, ये तो वक़्त, नज़ाकत और चुनाव देखकर खुलता है और फिर जिनकी अपनी औलादें नहीं होतीं वो दूसरों की बच्चियों का दर्द क्या समझेंगे. तुम्हारा दर्द वैसे भी कोई क्यों समझेगा, तुम से ज्यादा ज़रूरी तो वो विधायक है जिसकी जाति के नाम पर वोट मिलेंगे, फिर चाहें उसके भेष में कोई वहशी ही क्यों ना हो.

परी तुम्हारे जाने के बाद अब सिर्फ ढकोसला हो रहा है. आन्दोलनों के नाम पर गले फाड़े जा रहे हैं, बलात्कार में भी मजहब का तड़का लगाया जा रहा है, तुम्हें मालूम है जो कल निर्भया के नाम पर ढोंग कर रहे थे आज तुम्हारे नाम पर मजहबी रोटियां सेंक रहे हैं, परी अफसोस तो इस बात का है कि कुछ औरतें भी तुम्हारे नाम पर अपनी पार्टी की दलाली कर रहीं हैं, क्योंकि उनकी कुर्सियां बदल गयीं हैं, कल निर्भया के केस में लाली लिपिस्टिक लगाकर सड़कें जाम करने वाली औरतें आज अपनी पार्टियों की तरफ़ से तुम्हारे साथ हुई दरिंदगी को जायज़ ठहराने में जुटी हैं, परी बस सिर्फ पाला बदला है और कुछ नहीं..

परी तुमने जिस समाज में जन्म लिया था, यहां तो पैदा होने से पहले ही हैवान फूलों को मसल दिया करते थे, फिर तुम किस समाज से इन्साफ की उम्मीद कर रही हो, काले कोट के...

लिखते हुए मेरी उंगलियां कांप रही हैं. सोशल मीडिया से लेकर अखबारों और टीवी तक, जहां भी तुम्हारी तस्वीर देखता हूं, आंखों से आंसू ज़ार ज़ार बहने लगते हैं. मैं चाहकर भी तुम्हारा नाम नहीं लिख सकता, अदालतों की बन्दिशों ने मजबूरियों की बेड़ियां हाथों में डाल दी हैं, मगर मैं तुम्हें परी तो बुला सकता हूं, शायद इससे तुम्हारे अम्मी-अब्बू को भी तकलीफ़ नहीं होगी.

यकीन मानो परी अगर इस मुल्क में अदालतें नहीं होतीं तो आज तुम्हारी फरियाद संसद की चाहरदीवारी से लौटकर वापस आ जाती क्योंकि जिन्हें तुमने अपना रहनुमा बनाया है उनकी ज़ुबान पर तो ताला लगा है. ऐसा नहीं है कि ये ताला कभी खुलेगा नहीं, ये तो वक़्त, नज़ाकत और चुनाव देखकर खुलता है और फिर जिनकी अपनी औलादें नहीं होतीं वो दूसरों की बच्चियों का दर्द क्या समझेंगे. तुम्हारा दर्द वैसे भी कोई क्यों समझेगा, तुम से ज्यादा ज़रूरी तो वो विधायक है जिसकी जाति के नाम पर वोट मिलेंगे, फिर चाहें उसके भेष में कोई वहशी ही क्यों ना हो.

परी तुम्हारे जाने के बाद अब सिर्फ ढकोसला हो रहा है. आन्दोलनों के नाम पर गले फाड़े जा रहे हैं, बलात्कार में भी मजहब का तड़का लगाया जा रहा है, तुम्हें मालूम है जो कल निर्भया के नाम पर ढोंग कर रहे थे आज तुम्हारे नाम पर मजहबी रोटियां सेंक रहे हैं, परी अफसोस तो इस बात का है कि कुछ औरतें भी तुम्हारे नाम पर अपनी पार्टी की दलाली कर रहीं हैं, क्योंकि उनकी कुर्सियां बदल गयीं हैं, कल निर्भया के केस में लाली लिपिस्टिक लगाकर सड़कें जाम करने वाली औरतें आज अपनी पार्टियों की तरफ़ से तुम्हारे साथ हुई दरिंदगी को जायज़ ठहराने में जुटी हैं, परी बस सिर्फ पाला बदला है और कुछ नहीं..

परी तुमने जिस समाज में जन्म लिया था, यहां तो पैदा होने से पहले ही हैवान फूलों को मसल दिया करते थे, फिर तुम किस समाज से इन्साफ की उम्मीद कर रही हो, काले कोट के भेष में घुस आये कुछ हैवानों से, जो तुम्हें इन्साफ दिलाने के बजाय हैवानों के पाले में खड़े हो गये, कुछ वर्दी वाले गुन्डों से जो तुम्हें इन्साफ दिलाने के बजाय खुद हैवान बन जाते हैं, भगवान की भक्ति करने वाले कुछ शैतानों से जो भगवान के घर में इस घिनौने काम में खुद शामिल हो जाते हैं. उस समाज से जो तिरंगा लेकर तुम्हारे बजाय हैवानों के लिये इन्साफ मांगता है तुम इन्साफ की उम्मीद किस से कर रही हो, अपने सूबे की मुखिया से जिनके मुंह से एक औरत होने के बावजूद दो अल्फाज़ तक नहीं फूटे, तुम्हारी चीखों से जिनका दिल तक नहीं पसीजा..दिल्ली में बैठे बड़े साहिबान से जिनके पास 2019 के चुनाव के अलावा अभी बिल्कुल फुर्सत नहीं है. उस महिला आयोग से जो किटी पार्टियों में बिज़ी है. मैं जानता हूं, जिस उम्र में तुम्हें गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेलते हुए बड़े होना था, उस उम्र में हैवानों ने तुम्हारे जिस्म को सिर्फ गोश्त का लोथड़ा समझा और तुम्हारे साथ वहशीपन की वो तमाम हदें पार कर दी गयीं, जिनके बारे में सोचकर ही मैं सिहर जाता हूं.

परी तुम इस मुल्क में अकेली नहीं हो जिसके साथ हैवानियत का खेल हुआ है, कठुआ से सासराम तक और दिल्ली से उन्नाव तक वहशी दरिन्दे हर जगह हर भेष में मिल जायेंगे.. सत्ता के रसूख में पले बड़े ये हैवान मजहब, जात या उम्र नहीं देखते. इनको फर्क़ नहीं पड़ता किसी लड़की के कपड़ों से, इनको फर्क़ नहीं पड़ता किसी लड़की की उम्र से, इनको मतलब तुम्हारे जिस्म से होता है, जिनके घर में खुद की बेटियां होती हैं उन्हें भी हैवान बनते देर नहीं लगती है. अफसोस तो ये भी है कि जिस भगवान-अल्लाह-गॉड को हम दिन रात शीश नवाते हैं वो भी हैवानों के पाले में खड़े नज़र आते हैं, फिर तुम्हारे साथ तो जो हुआ वो भगवान के घर में ही हुआ और तुम्हारी चीखें सुनकर भी उनका दिल नहीं पसीजा, इन्साफ की देवी की तरह वो भी आंखोँ पर पट्टी बांधे हैवानियत को अपनी आंखों से देखते रहे.

सासाराम में 6 साल की बच्ची के साथ जो हुआ उसे सुनकर भी रोंगटे खड़े हो जायेंगे, यहां एक हैवान मुसलमान था. मैं मगर उसे मुसलमान नहीं हैवान कहूंगा. परी तुम्हें मालूम है वो बच्ची भी तुम्हारी तरह तमाम सपने लेकर आयी थी, गुड्डे-गुड़ियों वाले सपनों से लेकर घोड़े पर आने वाले राजकुमार तक, मगर उस मासूम को क्या पता था कि उसके पड़ोस में ही एक दरिंदा रहता है जो उसकी फूल से जिन्दगी को जहन्नुम बना देगा. खून से लथपथ 6 साल की मासूम एक जिन्दा लाश बन चुकी थी. मगर यहां के हुक्मरान भी नफा नुकसान देखकर अपना मुंह खोलेंगे.

परी तुम्हें मालूम है उन्नाव में तो एक बेटी ने जिसे अपना रहबर बनाया उसी ने उसकी नाजुक सी जिन्दगी को बर्बाद कर दिया. और जब उसने इंसाफ़ की गुहार लगायी तो उसके बाप की अवाज को ही हमेशा हमेशा के लिये खामोश कर दिया गया. यहां तो वर्दी वालों से लेकर सत्ता के शिखर पे बैठे हुक्मरान तक उस रहनुमा को बचाने में लगे हैं जिसने एक बच्ची की जिन्दगी को नर्क में तब्दील कर दिया, फिर तुम किस्से इंसाफ़ की आस लगाये बैठी हो.

परी हैवानों ने तुम्हारे जिस्म को जिस तरह नोचा है, उसको बयान भी नहीं किया जा सकता. तुम्हारे साथ हुई हैवानियत को याद करते ही आंखें नम हो जाती हैं, गला भर आता है. जाने कैसे थे वो दरिन्दे जिनकी रूह तक नहीं कांपी. परी तुम अभी बहुत छोटी थीं, तुमने दुनिया ठीक से देखी भी नहीं थी, यहां तो लड़की होना ही गुनाह है, यहां लड़कियां हर रोज ऐसे दरिन्दों से खुद की आबरू बचाये फिरती हैं, यहां गली-मुहल्लों से चौक चौराहों तक, स्कूलों से दफ्तरों तक और तो और सड़कों से घर की चाहरदीवारों के अन्दर तक कदम कदम पर कोई न कोई भेड़िया फिराक में बैठा रहता है, अफसोस तो ये है कि देवियों को पूजने वाले देश में बेटियों की इज़्ज़त घरों के अंदर तक महफूज़ नहीं है.. और तुम इंसाफ़ मांग रही हो परी..

यहां सिर्फ कैंडल मार्च होता है, बहसें होती हैं, अखबारों के पन्ने रंगे जाते हैं, सरकारें बदलती हैं, मगर किसी बेटी की किस्मत नहीं बदलती. यहां किसी को सज़ा नहीं मिलती.

परी हम शर्मिन्दा हैं, तुम्हारे क़ातिल ज़िन्दा हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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