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BHU विवाद में कूदने वालों जान लो, संस्‍कृत हिंदू और उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 23 नवम्बर, 2019 06:58 PM
  • 22 नवम्बर, 2019 07:14 PM
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BHU में छात्रों ने फिरोज खान का विरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि उन्होंने संस्कृत सीखी बल्कि इसलिए किया क्योंकि वो मुसलमान थे. विरोध करने वाले लोगों को समझना होगा कि धर्म और भाषा का आपस में कोई लेना देना नहीं है इसलिए इसपर जो राजनीति हो रही है वो पूरी तरह व्यर्थ है.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुसलमान प्रोफ़ेसर की नियुक्ति देश भर में चर्चा का विषय है. हिंदू धर्म विभाग में पढ़ने वाले छात्र विरोध कर रहे हैं कि एक आखिर हिंदू धर्म में आस्‍था न रखने वाला व्‍यक्ति हिंदू धर्म की मान्‍यताओं पर कैसे व्‍याख्‍यान दे सकता है. लेकिन, इस विरोध का विरोध करने वाले और भी अजीब तर्क पेश कर रहे हैं. एक मुस्लिम द्वारा संस्‍कृत भाषा में विशेषज्ञता हासिल करने से अभिभूत वे यह मान बैठे हैं कि बीएचयू का मामला सिर्फ भाषा से जुड़ा है (जो कि सही नहीं है). इसे गंगा-जमुनी तहजीब का मामला समझने वाले लोगों को तो वे हिंदू गांव भी मिल गए हैं, जहां उर्दू के भरोसे लोगों को नौकरी मिली है. संस्‍कृत को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानने वाले यहीं गलती कर रहे हैं. बड़ी ही चतुराई के साथ धर्म को आधार बनाकर भाषा का बंटवारा कर दिया गया है. कहा जा रहा है कि संस्कृत और हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की.

BH में मुस्लिम शिक्षक के प्रति छात्रों के विरोध की एक बड़ी वजह भाषा नहीं बल्कि धर्म है

डिबेट क्योंकि भाषा बनाम धर्म की चल रही है तो कुछ और बात करने से पहले हमारे लिए धर्म और भाषा को समझना जरूरी हो जाता है. बात अगर धर्म की हो तो धर्म का अर्थ है धारण, याने जिसे धारण किया जा सके. धर्म, क्रम प्रधान होता है. मतलब इसका ये भी हुआ कि गुणों को जो प्रदर्शित करे वो धर्म है. धर्म की अपनी खूबी भी है. धर्म केवल मानव से संबंधित नहीं है. प्रदार्थों के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है जैसे पानी का धर्म है बहना, आग का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जला देना. यूं तो धर्म के मद्देनजर कई हजार शब्द लिखे जा सकते हैं मगर जब हम सारी...

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुसलमान प्रोफ़ेसर की नियुक्ति देश भर में चर्चा का विषय है. हिंदू धर्म विभाग में पढ़ने वाले छात्र विरोध कर रहे हैं कि एक आखिर हिंदू धर्म में आस्‍था न रखने वाला व्‍यक्ति हिंदू धर्म की मान्‍यताओं पर कैसे व्‍याख्‍यान दे सकता है. लेकिन, इस विरोध का विरोध करने वाले और भी अजीब तर्क पेश कर रहे हैं. एक मुस्लिम द्वारा संस्‍कृत भाषा में विशेषज्ञता हासिल करने से अभिभूत वे यह मान बैठे हैं कि बीएचयू का मामला सिर्फ भाषा से जुड़ा है (जो कि सही नहीं है). इसे गंगा-जमुनी तहजीब का मामला समझने वाले लोगों को तो वे हिंदू गांव भी मिल गए हैं, जहां उर्दू के भरोसे लोगों को नौकरी मिली है. संस्‍कृत को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानने वाले यहीं गलती कर रहे हैं. बड़ी ही चतुराई के साथ धर्म को आधार बनाकर भाषा का बंटवारा कर दिया गया है. कहा जा रहा है कि संस्कृत और हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की.

BH में मुस्लिम शिक्षक के प्रति छात्रों के विरोध की एक बड़ी वजह भाषा नहीं बल्कि धर्म है

डिबेट क्योंकि भाषा बनाम धर्म की चल रही है तो कुछ और बात करने से पहले हमारे लिए धर्म और भाषा को समझना जरूरी हो जाता है. बात अगर धर्म की हो तो धर्म का अर्थ है धारण, याने जिसे धारण किया जा सके. धर्म, क्रम प्रधान होता है. मतलब इसका ये भी हुआ कि गुणों को जो प्रदर्शित करे वो धर्म है. धर्म की अपनी खूबी भी है. धर्म केवल मानव से संबंधित नहीं है. प्रदार्थों के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है जैसे पानी का धर्म है बहना, आग का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जला देना. यूं तो धर्म के मद्देनजर कई हजार शब्द लिखे जा सकते हैं मगर जब हम सारी बातों का सार निकालें तो कह सकते हैं धर्म सार्वभौमिक होता है.

वहीं जब हम भाषा पर आते हैं तो मिलता है कि भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं. भाषा, मुंह से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है. किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं.

परिभाषा हमें मिल चुकी है. अब अगर हम धर्म और भाषा की तुलना करें तो इसमें दूर दूर तक कोई समानता नहीं दिख रही है. अब इन सारी बातों के बाद कोई अगर ये कह दे कि संस्कृत हिंदुओं की है और उर्दू मुसलमानों की है तो फिर यहां कुछ और हो न हो मगर पॉलिटिक्स यानी राजनीति ज़रूर हो रही है और राजनीति को लेकर चाणक्य से लेकर महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण तक किसी ने सही नहीं माना है.

किसी ने शायद ही इस बात को समझा हो कि यदि फिरोज ने संस्कृत ली है तो इसकी एक बड़ी वजह उनकी रुचि है

बात BH के संस्कृत विभाग में नियुक्ति पाने वाले फिरोज खान को लेकर हुई है. सारा बवाल इस बात को लेकर है कि कैसे एक व्यक्ति जो खुद मुसलमान है वो छात्रों को संस्कृत भाषा में निबद्ध हिंदू धर्म के कर्मकांड पढ़ाएगा? आज दौर ही ऐसा है. मुद्दा कोई भी रहे हर आदमी का अपना ओपिनियन है. व्यक्ति का ये ओपिनियन तब और ज्यादा खतरनाक हो जाता है जब बात धर्म या फिर उसके सांचे में आती है. तिल का ताड़ कैसे बनता है? इसे फिरोज खान से बेहतर कौन समझ सकता है.

फिरोज! हां वही फिरोज जिसने खाने कमाने के लिए एक ऐसी भाषा का चयन किया जिसे समाज उसका नहीं मानता. हो सकता है ये बात थोड़ी विचलित कर दे. मगर जब हम अपने द्वारा कही गई इस बात को किसी पारखी Linguistic की नजर से देखें तो शायद वो यही कहे कि जब किसी को किसी भाषा से प्रेम होता है तो इस प्रेम की एक बड़ी वजह खाना कमाना ही होता है. बाकी किसी भी काम को करने के लिए इंटरेस्ट बहुत प्रभावी कारक होता है.

हो सकता है फिरोज खान, जिन्होंने एक मुसलमान होने के बावजूद अपने बचपन में घर पर ही गीता के श्लोक सुने हों. वेदों के मन्त्रों का उच्चारण होते देखा हो. भाषा को और अधिक गहराई से समझने के लिए एक इंटरेस्ट पैदा किया हो. सीखने को तो फिरोज खान फ्रेंच, जर्मन,रशियन से लेकर अंग्रेजी तक कुछ भी सीख सकते थे मगर शायद उन्हें हिंदी साहित्य के पुरोधा रहे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की वो बात याद आ गई हो जिसमें भारतेन्दु ने बड़ी ही साफ़ गोही से इस बात को कहा था कि

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन.

होने को तो भाषा अनुभूति की अभिव्यक्ति है मगर जब आदमी अपने काम में रम जाता है तो वो इस बात को भूल जाता है कि भले ही भाषा अनुभूति की अभिव्यक्ति हो मगर पार तभी लगा जा सकता है जब पॉलिटिक्स के दांव पेंच आते हों. फिरोज खान मामले में हमें याद रखना होगा कि विवाद एक मुस्लिम द्वारा संस्कृत पढ़ाने को लेकर नहीं, बल्कि वेदांगों में से एक 'छंदशास्त्र' को पढ़ाने को लेकर है.

मतलब ये हुआ कि भाषा सीधे तौर पर धर्म को चुनौती दे रही हैं. मामला अब चूंकि यहां तक आ ही गया है तो हमें कुंवर नारायण की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं. जो शायद हमारा मनोरंजन करें मगर जब बात फिरोज खान की आएगी तो लगेगा कि कुंवर नारायण आगे का भविष्य देस्ख रहे थे और उन्होंने अपनी ये रचना फिरोज खान की मनोस्थिति को सोच कर ही लिखी थी. पंक्तियां कहती हैं कि -

कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर

स्वयं ही जीवन और भाषा से

बाहर चले जाते हैं...

ऐसा ही एक शब्द था "शांति"

अब विलिप्त हो चुका उसका वंश;

कहीं नहीं दिखाई देता वह--

न आदमी के अंदर न बाहर!

कहते हैं मृत्यु के बाद वो मिलती है

मुझे शक है--

हर उस चीज़ पर

जो मृत्यु के बाद मिलती है.

हम बार बार इस बात को कह रहे हैं कि भाषा को धर्म से जोड़ना गलत है. और किसी भाषा के नजरिए से धर्म को समझना भी. क्‍योंकि, ऐसा करने से विवाद हल नहीं हो रहा, राजनीति को जगह जरूर मिल रही है. सामाजिक ताना-बना बनाए रखने के लिए साफ़ भाषा के नाम पर धार्मिक ताने-बाने का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता. संस्‍कृत का विद्वान पुजारी की ट्रेनिंग नहीं दे सकता, उसी तरह जैसे कुरान की भाषा अरबी का जानकार कोई मंदिर किसी मुस्लिम को मौलवी बनने की ट्रेनिंग नहीं दे सकता.

पढ़ने-पढ़ाने की आजादी बुनियादी उसूल है. इसके लिए संविधान का हवाला देने की भी जरूरत नहीं है. फिरोज खान ने संस्‍कृत में निपुणता हासिल की है, तो उन्‍हें संस्‍कृत की शिक्षा देने का पूरा हक है. लेकिन, इस हक की बात करने के लिए उस यथार्थ को नहीं झुठलाया जाना चाहिए, जहां धर्म ग्रंथों से जुड़ी आस्‍था का अधिकार क्षेत्र शुरू होता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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