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मुस्लिम महिलाएं 600 साल बाद अचानक अछूत क्यों हो गईं?

    • नूरजहां साफिया नियाज
    • Updated: 20 अक्टूबर, 2015 07:10 PM
  • 20 अक्टूबर, 2015 07:10 PM
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पुरुष और महिलाओं की बराबरी ही इस्लाम का आधार है. कई ऐसे दरगाह हैं, जहां आज भी महिलाएं बेरोकटोक जाती हैं, तो क्या वहां इस्लाम की तौहीन की जा रही है? बेहतर है कि अपनी व्याख्या को इस्लाम का नाम मत दीजिए.

जून 2012 में मैं अपने परिवार के साथ हाजी अली की दरगाह पर गई थी - एकदम अंदर मजार तक. अकेली नहीं थी मैं. मेरे जैसी हजारों और महिलाएं भी थीं. मजार के आगे सिर झुकाया हर एक शख्स चाहे महिला हो या पुरुष, हिंदू भी मुसलमान भी. साबित हो रहा था कि इस्लाम में सब बराबर हैं. हाजी अली के प्रति मेरी श्रद्धा अगले महीने जुलाई में फिर से मुझे वहां खींच ले गई. अफसोस तब सब कुछ बदल चुका था. मजार तक औरतों के जाने पर मनाही कर दी गई थी. हम औरतों से हमारे इस्लामिक समानता का हक छीन लिया गया था.

मुस्लिम महिलाओं के हक की आवाज उठाना ही मेरा काम है. 2007 से मैं यही करते आ रही थी. अपने हक को मरते देख मैं कैसे चुप रहती! जब इस तुगलकी और गैर-इस्लामिक फैसले के बारे में जानने की कोशिश की तो बताया गया कि हाजी अली दरगाह के ट्रस्ट ने यह फैसला लिया है. ट्रस्ट को तो दरगाह के इंतजाम से जुड़े मसले देखने चाहिए, वो इस्लाम की व्याख्या करने वाले कौन होता है! और फिर ऐसी कौन सी व्याख्या, जिससे इस्लाम का सैद्धांतिक आधार ही खत्म हो जाए. पुरुष और महिलाओं की बराबरी ही इस्लाम का आधार है. मेरे ये सारे तर्क बाबा हाजी अली तक तो पहुंच रहे थे पर उनकी दरगाह के ट्रस्टियों के सामने दम तोड़ रहे थे.

मैंने और मेरी एक महिला मित्र जाकिया सोमन जो मेरी ही तरह भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक हैं, दोनों ने एक साथ कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. बॉम्बे हाई कोर्ट का. पीआईएल फाइल की. कोर्ट के सामने हाजी अली दरगाह के ट्रस्ट ने अपना पक्ष रखा - हास्यास्पद पक्ष. मैं तो हंस चुकी. आप भी पढ़ें, शर्तिया हंसी आएगी.

- इस्लाम के अनुसार पुरुषों की कब्र के आस-पास महिलाओं का जाना 'महापाप' है.

- ट्रस्ट के फैसले से महिलाएं खुश हैं. खुश हैं क्योंकि मजार पर भीड़भाड़ के कारण होने वाली छेड़छाड़ की घटनाएं अब कम हो गई हैं.

- संविधान की धारा 26 के तहत ट्रस्ट को यह मौलिक अधिकार दिया गया है कि वह धार्मिक मामलों के फैसले स्वयं ले और इसमें किसी...

जून 2012 में मैं अपने परिवार के साथ हाजी अली की दरगाह पर गई थी - एकदम अंदर मजार तक. अकेली नहीं थी मैं. मेरे जैसी हजारों और महिलाएं भी थीं. मजार के आगे सिर झुकाया हर एक शख्स चाहे महिला हो या पुरुष, हिंदू भी मुसलमान भी. साबित हो रहा था कि इस्लाम में सब बराबर हैं. हाजी अली के प्रति मेरी श्रद्धा अगले महीने जुलाई में फिर से मुझे वहां खींच ले गई. अफसोस तब सब कुछ बदल चुका था. मजार तक औरतों के जाने पर मनाही कर दी गई थी. हम औरतों से हमारे इस्लामिक समानता का हक छीन लिया गया था.

मुस्लिम महिलाओं के हक की आवाज उठाना ही मेरा काम है. 2007 से मैं यही करते आ रही थी. अपने हक को मरते देख मैं कैसे चुप रहती! जब इस तुगलकी और गैर-इस्लामिक फैसले के बारे में जानने की कोशिश की तो बताया गया कि हाजी अली दरगाह के ट्रस्ट ने यह फैसला लिया है. ट्रस्ट को तो दरगाह के इंतजाम से जुड़े मसले देखने चाहिए, वो इस्लाम की व्याख्या करने वाले कौन होता है! और फिर ऐसी कौन सी व्याख्या, जिससे इस्लाम का सैद्धांतिक आधार ही खत्म हो जाए. पुरुष और महिलाओं की बराबरी ही इस्लाम का आधार है. मेरे ये सारे तर्क बाबा हाजी अली तक तो पहुंच रहे थे पर उनकी दरगाह के ट्रस्टियों के सामने दम तोड़ रहे थे.

मैंने और मेरी एक महिला मित्र जाकिया सोमन जो मेरी ही तरह भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक हैं, दोनों ने एक साथ कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. बॉम्बे हाई कोर्ट का. पीआईएल फाइल की. कोर्ट के सामने हाजी अली दरगाह के ट्रस्ट ने अपना पक्ष रखा - हास्यास्पद पक्ष. मैं तो हंस चुकी. आप भी पढ़ें, शर्तिया हंसी आएगी.

- इस्लाम के अनुसार पुरुषों की कब्र के आस-पास महिलाओं का जाना 'महापाप' है.

- ट्रस्ट के फैसले से महिलाएं खुश हैं. खुश हैं क्योंकि मजार पर भीड़भाड़ के कारण होने वाली छेड़छाड़ की घटनाएं अब कम हो गई हैं.

- संविधान की धारा 26 के तहत ट्रस्ट को यह मौलिक अधिकार दिया गया है कि वह धार्मिक मामलों के फैसले स्वयं ले और इसमें किसी तीसरे पक्ष की दखलअंदाजी न हो.

सबसे पहली बात. मुझे इनकी नेक नीयती पर इतना शक तो है ही कि बिना किसी सबूत के मैं बता दूं कि हाजी अली दरगाह की ट्रस्ट में कोई भी महिला मेंबर नहीं होगी. भला कोई महिला अपने ही अधिकारों का गला क्यों घोंटेगी? दूसरी बात इस्लाम में यह कहां कहा गया है कि महिलाएं मजार के पास नहीं जा सकती हैं? और अगर ऐसा है तो मुंबई के जिन 19 दरगाहों में मैं गई हूं, उनमें से सिर्फ 7 (हाजी अली सहित) ही ऐसे क्यों हैं, जहां महिलाओं के जाने पर पाबंदी लगा दी गई है. क्या यह मान लिया जाए कि बाकी के दरगाह इस्लाम की तौहीन कर रहे हैं.    

ट्रस्ट के फैसले से महिलाएं खुश हैं! वो भी इसलिए क्योंकि इससे हाजी अली दरगाह पर छेड़छाड़ कम हो गई है! अरे जनाब, हम महिलाओं के साथ छेड़छाड़ तो स्कूलों, कॉलेजों, बसों और तो और घरों तक में होती आई है. तो क्या करें, स्कूल-कॉलेज जाना छोड़ दें, घरों से निकलना छोड़ दें या जीना ही छोड़ दें! और हां, रह गई बात महिलाओं के खुश होने की, तो जो पीआईएल फाइल की गई है, कम से कम उसे तो पढ़ कर जवाब दिया होता. कोर्ट भी हंस रहा होगा आपके तर्कों पर... वो इसलिए क्योंकि पीआईएल सैकड़ों महिलाओं की आपत्ति और उनके हस्ताक्षर के साथ फाइल की गई थी. तो बेहतर है कि महिलाओं की खुशी और दुख का पैमाना हम महिलाओं को ही तय करने दीजिए. और हां, आखिर में आपने संविधान का तर्क दिया - मौलिक अधिकार का. अब क्या यह भी बताने की जरूरत है कि मौलिक अधिकार पर पहला हक इंसानों का होता है, धर्म का बाद में.      

आप अपनी व्याख्या को इस्लाम की व्याख्या मत बताइए. ऊपर वाले ने हम महिलाओं को न सिर्फ कुरान-ए-पाक पढ़ने की इजाजत दी है बल्कि उसको समझने का दिमाग भी दिया है. इस्लाम पर जितना हक मर्दों का है, उससे कम हक हमारा भी नहीं है. और हां, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि जिन महिलाओं को आप हाजी अली की मजार तक जाने से रोक रहे हैं, ठीक वैसी ही कोई महिला उनकी मां रही होगी, उन्हें जन्म दिया होगा, पाला-पोसा और बड़ा बनाया होगा. और लगभग 600 वर्षों से सब कुछ ठीक ही तो चला आ रहा था - क्या महिला क्या पुरुष - सभी तो मजार पर मत्था टेक ही रहे थे. तो अब क्यों अचानक से हमें अछूत बना दिया गया? अपने गैर-इस्लामिक कृत्य को इस्लाम का नाम देना बंद कीजिए. लोग हंसते हैं और शायद हाजी अली भी.

(जैसा कि चंदन कुमार को बताया)

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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