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Book Review: एक सूरज स्याह सा: अन्तर्मन की कहानियां

    • आनंद प्रधान
    • Updated: 04 जुलाई, 2023 09:36 PM
  • 04 जुलाई, 2023 09:36 PM
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Ek Suraj Syah Sa Book Review : 'एक सूरज स्याह सा: अन्तर्मन की कहानियां' किताब उन घर-परिवारों की कहानियां अपने में समेटे है जहां महिला किरदार अदृश्य नहीं हैं और चुपचाप एक बड़े बदलाव को रच-गढ़ रही हैं.

पाकिस्तानी शायर मुनीर नियाजी की एक बहुत प्यारी सी नज्म है:

हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में

ज़रूरी बात कहनी हो कोई वा'दा निभाना हो

उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो

हमेशा देर कर देता हूं मैं..

किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो

हमेशा देर कर देता हूं मैं...”

आप कह सकते हैं कि हिंदी के साहित्य संसार में सविता सिंह देर से आईं हैं. वे 42 साल से लिख रही हैं, चुपचाप! घर के रोजमर्रा के कामों की व्यस्तता के बीच वे अपने आसपास के जीवन और परिवारों की कहानियां लिखती रहीं. उनकी कहानियों की कापियां घर के कोने-अंतरों में पड़ी रहीं. उन्हें छपवाने की लालसा नहीं रही. लेकिन अब जब वे कहानियां एक सुगढ संकलन के रूप में छपकर आईं हैं तो कह सकते हैं कि देरी के बावजूद वे दुरुस्त आई हैं. सविता सिंह अपने पहले कहानी संग्रह 'एक सूरज स्याह सा : अंतर्मन की कहानियां' के साथ बहुत सधे क़दमों से कहानियों की दुनिया में दस्तक दे रही हैं. ये कहानियां शायद पहले आतीं तो और अच्छा होता. लेकिन कई बार कुछ चीज़ें देर से आती हैं, ज़्यादा पक कर आती हैं, गहरे अनुभव लेकर आती हैं तो और बेहतर ही होती हैं.

किताब जो बताती है कि महिलाओं की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं है जितनी दिखाई देती है

इस संग्रह की कहानियां भी इसकी अपवाद नहीं हैं. ये कहानियां, हम-सब लोगों की कहानियां हैं. दरअसल, हम-सब क्या हैं? कहानियां ही तो हैं. हम सबकी अपनी-अपनी कहानियां हैं. हम कहानियों में ही जीते हैं, कहानियों से ही बनते हैं. सविता सिंह की कहानियां...

पाकिस्तानी शायर मुनीर नियाजी की एक बहुत प्यारी सी नज्म है:

हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में

ज़रूरी बात कहनी हो कोई वा'दा निभाना हो

उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो

हमेशा देर कर देता हूं मैं..

किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो

हमेशा देर कर देता हूं मैं...”

आप कह सकते हैं कि हिंदी के साहित्य संसार में सविता सिंह देर से आईं हैं. वे 42 साल से लिख रही हैं, चुपचाप! घर के रोजमर्रा के कामों की व्यस्तता के बीच वे अपने आसपास के जीवन और परिवारों की कहानियां लिखती रहीं. उनकी कहानियों की कापियां घर के कोने-अंतरों में पड़ी रहीं. उन्हें छपवाने की लालसा नहीं रही. लेकिन अब जब वे कहानियां एक सुगढ संकलन के रूप में छपकर आईं हैं तो कह सकते हैं कि देरी के बावजूद वे दुरुस्त आई हैं. सविता सिंह अपने पहले कहानी संग्रह 'एक सूरज स्याह सा : अंतर्मन की कहानियां' के साथ बहुत सधे क़दमों से कहानियों की दुनिया में दस्तक दे रही हैं. ये कहानियां शायद पहले आतीं तो और अच्छा होता. लेकिन कई बार कुछ चीज़ें देर से आती हैं, ज़्यादा पक कर आती हैं, गहरे अनुभव लेकर आती हैं तो और बेहतर ही होती हैं.

किताब जो बताती है कि महिलाओं की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं है जितनी दिखाई देती है

इस संग्रह की कहानियां भी इसकी अपवाद नहीं हैं. ये कहानियां, हम-सब लोगों की कहानियां हैं. दरअसल, हम-सब क्या हैं? कहानियां ही तो हैं. हम सबकी अपनी-अपनी कहानियां हैं. हम कहानियों में ही जीते हैं, कहानियों से ही बनते हैं. सविता सिंह की कहानियां हमारे-आपके अपने परिवारों, संयुक्त परिवारों की कहानियां हैं जहां महिलाएं अदृश्य नहीं हैं बल्कि वे मुख्य भूमिका में हैं.

ये परिवारों के अन्दर महिलाओं के अंतर्मन की वे कहानियां हैं जिन्हें एक महिला की नज़र और अंतर्मन से देखा और महसूस किया गया है. साहित्य हमें बनाता है. रचता है. हमारे अंतर्मन का रंजन या परिष्कार करता है. हम जिन कहानियों और उपन्यासों से गुज़रते हैं, वे हमें संस्कार देते हैं. समझ देते हैं. दुनिया को देखने का नज़रिया देते हैं.

हमें कहानियों के जरिए जीवन-समाज और परिवार के यथार्थ से परिचित कराते हैं. उन कहानियों ने हमें दुनिया देखने का एक तरीक़ा, एक सलीक़ा दिया है. 'एक सूरज स्याह सा' हमें उन संयुक्त परिवारों या छोटे शहरों और कस्बाई परिवारों में ले जाता है, जहां स्त्रियां परिवार और संस्कारों के दायरे में अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही हैं.

पहचान हासिल कर रही हैं. वे आकांक्षी हैं. प्रेम करती हैं. इस प्रक्रिया में अंतर्मन की गुत्थियों से जूझती हैं और धीरे-धीरे और बिलकुल स्वाभाविक तरीके से खड़ी हो रही हैं. सविता सिंह की खूबी यह है कि रोजमर्रा के जीवन के जो अनुभव होते हैं, वो उन्हीं से कहानियां ढूंढती हैं. इन कहानियों को पढ़ते हुए कई बार मेरे रोंगटे खड़े हो गए. आंखें छलछला आईं क्योंकि उसमें ऐसे बहुत से प्रसंग हैं जिसे पढ़कर लगा कि यह वास्तविकता के बहुत क़रीब है.

गल्प होते हुए भी यह आपके सबसे ज़्यादा क़रीब हैं, आपकी सचाई के सबसे ज़्यादा क़रीब हैं. इनमें दुःख भी है, तनाव है, चिंताएं हैं, तिल-तिलकर टूटते मन हैं तो खुशियां भी हैं, अपनी पहचान हासिल करने का गर्व भी. यही इन कहानियों की ताक़त है. इसमें संयुक्त परिवारों के दादा–दादी, नाना-नानी, चाचा–चाची, बड़ी माएं सब हैं जिन्हें हम खोते जा रहे हैं. इसमें अपने समय की राजनीति, सामाजिक सरोकारों और बदलावों की परछाईयां भी हैं.

शायद यही वो कहानियां हैं जो हमें अतीत से जोड़ देती हैं, जो बहुत नास्टेल्जिक होता है, जिसको हम धीरे–धीरे खोते जाते हैं. यही इन कहानियों का नास्टेलजिया है. ये कहानियां बार–बार अतीत की ओर ले जाती हैं. लेकिन अतीत की तरफ़ ले जाते हुए भी उनमें एक आगे की दृष्टि है. उनमें आगे का भी दरवाज़ा खुलता है. वो अतीत में जाकर बंद नहीं हो जाती हैं.

ये लेखिका की ताक़त है. उनकी भाषा में सहज प्रवाह है. इस संग्रह की सभी कहानियां जीवन की गति की सहजता और उतार-चढ़ाव की तरह बहती चलती हैं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा है कि ’दुःख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुःख को तोड़ दो, बस अपनी आंखें औरों के सपनों से जोड़ दो.’ किताब के कई प्रसंगों में किरदारों के साथ आप यही महसूस करेंगे. ये कहानियां औरों के सपनों और संघर्षों से जोड़े रखती हैं. ये कहानियां आपको निराश नहीं करती हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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