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समाज

दहेज किसका हुआ? वो कल रात मरी, एक घंटे बाद फिर मारी जाएगी!

    • धीरेंद्र राय
    • Updated: 26 नवम्बर, 2020 02:37 PM
  • 26 नवम्बर, 2020 02:35 PM
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दहेज के कारण हत्या या आत्महत्या से पहले एक विवाहिता की जिंदगी कई दुष्चक्र से गुजरती है. बेटी को विदा करते वक्त माता-पिता को यही लगता है कि उन्होंने तो अपनी लाड़ली की खुशियों का सारा इंतजाम कर दिया. लेकिन हर घंटे आ रही बुरी खबरें कुछ और ही कहानी बयां कर रही हैं...

दहेज के कारण मार दी गई बेटी के शव पर विलाप करते हुए माता-पिता यदि ये कह रहे हैं कि 'हमने शादी में सबकुछ तो दिया था.' तो समझ लीजिए कि गुनाहगार वो भी हैं. इस बात का कोई तर्क नहीं है कि 'दहेजलोभियों का पेट न भरा.' पेट होता ही बार बार भरने के लिए है. क्योंकि वो बार बार खाली होता है. संतुष्ट तो मन होता है. यदि वो शादी के दौरान संतुष्ट न हुआ, तो समझो कि आपने अपनी बेटी की शादी पेट वाले ससुराल में की है. जहां शादी के दौरान दिया गया दहेज 'सबकुछ' नहीं होता. कुछ समय बाद फिर भूख लगती है.

आपको ये लग सकता है कि कोरोना, इकोनॉमी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं के बीच दहेज की बात कहां से आ गई? क्योंकि कल रात हुआ ही कुछ ऐसा है. दहेज से हुई एक मौत से दिल दहल गया है. ऐसी खौफनाक मौत, जिसकी कल्पना भी आप और हम नहीं कर सकते. हंसने-मुस्कुराने वाली वो अब सिर्फ शव है. शव बना दी गई है. गहने और चमकीली साड़ी में सजी अभी कुछ समय पहले ही तो दिखाई दी थी. आप शायद जानते हैं उसे, या हो सकता है न भी जानते हों. उसके नजदीकी लोग उसे न्याय दिलाने के लिए सोशल मीडिया पर हैशटैग ट्रेंड करवाना चाहते हैं. ये हैशटैग कुछ भी हो सकता है. आप इसे 'जस्टिस फॉर रिक्त स्थान' समझ लीजिए. यदि आप उसे जानते हैं तो शायद उसकी मौत पर सहानुभूति जताएंगे, गुस्सा करेंगे. और नहीं जानते होंगे, तो वह आपके लिए मात्र खबर हो सकती है. ऐसी खबर जो हर घंटे बन रही है. अपराध ब्यूरो के आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले दस साल से लगातार सात से आठ हजार विवाहिताएं दहेज प्रताड़ना से बचने के लिए खुद मौत को गले लगा ले रही हैं, या फिर उनको मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. औसत 20 महिलाएं रोज मर रही हैं दहेज के कारण. हर घंटे एक. जितनी देर में यह स्टोरी पूरी लिख पाऊंगा, उतनी देर में कोई महिला दहेज के कारण दम तोड़ चुकी होगी. कल रात वाली कहानी फिर दोहरा दी जाएगी. फिर भले हम उस मरने वाली ब्याहता को जानते हों, या नहीं. तो आइए, सब छोड़कर इसी विषय पर बात करते हैं. क्योंकि, दहेज गुजरे जमाने की बात नहीं हुई है. लड़के-लड़कियां पढ़ लिख गए हैं, लेकिन समाज का ढर्रा वही है. गूगल न्यूज सर्च में 'dowry death' लिखकर नतीजा देख लीजिए, रोंगटे खड़े हो जाएंगे.

दहेज के कारण मार दी गई बेटी के शव पर विलाप करते हुए माता-पिता यदि ये कह रहे हैं कि 'हमने शादी में सबकुछ तो दिया था.' तो समझ लीजिए कि गुनाहगार वो भी हैं. इस बात का कोई तर्क नहीं है कि 'दहेजलोभियों का पेट न भरा.' पेट होता ही बार बार भरने के लिए है. क्योंकि वो बार बार खाली होता है. संतुष्ट तो मन होता है. यदि वो शादी के दौरान संतुष्ट न हुआ, तो समझो कि आपने अपनी बेटी की शादी पेट वाले ससुराल में की है. जहां शादी के दौरान दिया गया दहेज 'सबकुछ' नहीं होता. कुछ समय बाद फिर भूख लगती है.

आपको ये लग सकता है कि कोरोना, इकोनॉमी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं के बीच दहेज की बात कहां से आ गई? क्योंकि कल रात हुआ ही कुछ ऐसा है. दहेज से हुई एक मौत से दिल दहल गया है. ऐसी खौफनाक मौत, जिसकी कल्पना भी आप और हम नहीं कर सकते. हंसने-मुस्कुराने वाली वो अब सिर्फ शव है. शव बना दी गई है. गहने और चमकीली साड़ी में सजी अभी कुछ समय पहले ही तो दिखाई दी थी. आप शायद जानते हैं उसे, या हो सकता है न भी जानते हों. उसके नजदीकी लोग उसे न्याय दिलाने के लिए सोशल मीडिया पर हैशटैग ट्रेंड करवाना चाहते हैं. ये हैशटैग कुछ भी हो सकता है. आप इसे 'जस्टिस फॉर रिक्त स्थान' समझ लीजिए. यदि आप उसे जानते हैं तो शायद उसकी मौत पर सहानुभूति जताएंगे, गुस्सा करेंगे. और नहीं जानते होंगे, तो वह आपके लिए मात्र खबर हो सकती है. ऐसी खबर जो हर घंटे बन रही है. अपराध ब्यूरो के आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले दस साल से लगातार सात से आठ हजार विवाहिताएं दहेज प्रताड़ना से बचने के लिए खुद मौत को गले लगा ले रही हैं, या फिर उनको मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. औसत 20 महिलाएं रोज मर रही हैं दहेज के कारण. हर घंटे एक. जितनी देर में यह स्टोरी पूरी लिख पाऊंगा, उतनी देर में कोई महिला दहेज के कारण दम तोड़ चुकी होगी. कल रात वाली कहानी फिर दोहरा दी जाएगी. फिर भले हम उस मरने वाली ब्याहता को जानते हों, या नहीं. तो आइए, सब छोड़कर इसी विषय पर बात करते हैं. क्योंकि, दहेज गुजरे जमाने की बात नहीं हुई है. लड़के-लड़कियां पढ़ लिख गए हैं, लेकिन समाज का ढर्रा वही है. गूगल न्यूज सर्च में 'dowry death' लिखकर नतीजा देख लीजिए, रोंगटे खड़े हो जाएंगे.

बेटियों को अच्छी परवरिश दीजिए, उन्हें सामर्थ्यवान बनाइए. बेटियों की खुशी को दहेज से खरीदने का खतरा मोल मत लीजिए.

दहेज के कारण हुई मौतों की खूबरों पर नजर डालेंगे तो सब एक सी नजर आएंगी. महानगर, शहर, कस्बे हो या गांव सब जगह. दहेज प्रताड़ना के आरोपियों में औसत कामगारों से लेकर बड़े साहब लोग तक सब शामिल हैं. दक्षिण भारत के पढ़े-लिख राज्यों में तो स्थिति और भयावह है. हां, इन मामलों में संस्थाओं की प्रतिक्रिया देखने लायक है:

-जम्मू में दहेज हत्या के आरोपियों की जमानत पर सुनवाई करते हुए अदालत ने सरकार से कहा है कि तमाम प्रयासों के बावजूद दहेज के कारण होने वाली मौतें बढ़ रही हैं. यदि सरकार और समाज ने इकट्ठा होकर काम न किया तो अपराधी बेकाबू होने लगेंगे. (इस खबर पर सरकार की प्रतिक्रिया का इंतजार है)

-हरियाणा में महिलाओं संग होने वाले कई तरह के अपराधों की संख्या में कमी आई है, सिवाय दहेज से होने वाली मौतों के. 2019 में जनवरी से सितंबर तक 208 जानें गई थीं, जबकि इस साल 217 तक यह आंकड़ा पहुंच गया. (इस खबर पर भी सरकार की प्रतिक्रिया का इंतजार है)

कानून बदला, दूल्हे का रेट कार्ड नहीं

सरकार को लगा था कि दहेज का दानव कानून की खामियों से पनपा है. 1956 का हिंदू उत्तराधिकार कानून सिर्फ बेटों को पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकार देता था, जिसे 50 साल बाद 2005 में संशोधित कर दिया गया. और बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सेदार बना दिया गया. तब तक यही माना जा रहा था कि बेटों को तो पैतृक संपत्ति मिल जाती है, इसलिए बेटियों के भरण-पोषण का इंतजाम एक परिवार दहेज के रूप में करता है. सरकार ने यह मान लिया कि इस कानूनी इंतजाम से विवाहिताओं के दिन फिरेंगे. लेकिन, इससे न समाज की सोच बदली, और न ही विवाहिताओं के लिए स्थिति. बेटियों ने भले अपनी स्थिति सुदृढ़ की हो, लेकिन वर पक्ष का तुर्रा तो कायम ही रहा. लड़के वालों ने अपना मार्केट डाउन न होने दिया. सरकार के तमाम इंतजाम नाकाफी हैं. दहेजप्रथा को रोकने के तमाम जतन बौने साबित हुए.

दहेज का मनोविज्ञान

दहेज का सीधा संबंध लालच से है. यदि कोई गिफ्ट लेने के लिए भी लालायित है, तो समझ लीजिए कि वह दहेजलोभी है. ऐसा नहीं है कि सभी दहेजलोभी दहेज न मिलने पर ब्याह कर लाई जाने वाली लड़की की मौत की ही कामना करते हैं. लालच से पैदा होने वाली विकृति की पराकाष्ठा है हत्यारा बन जाना. उससे पहले अलग अलग लेवल के दहेजलोभी/लोभी आपको मिल जाएंगे. इस मामले में यदि कोई संतोषी नहीं हैं, तो मतलब वो दहेजलोभी हैं. दहेज के मामले में तो यही पैमाना है. इस पार, या उस पार. यदि शादी के दौरान लड़की वालों की ओर से किसी भी कमी का उलाहना दिया जा रहा है, तो समझ लीजिए कि आप का रिश्ता लोभियों से जुड़ने जा रहा है. शादी के दौरान बेटी का ससुराल पक्ष जितना आहत महसूस करे, समझ लीजिए लालच की डिग्री उतनी ही ज्यादा है. क्योंकि, इस खुन्नस का रिटर्न गिफ्ट जरूर मिलता है. वो सीधे तौर पर तानों के रूप में हो सकता है. वो किसी और कारण का हवाला देकर निकाले गए गुस्से के रूप में हो सकता है. या सीधे सीधे दहेज की अगली किश्त मांगे जाने के रूप में भी हो सकता है. दहेज का लालच पेट में पित्त पैदा करता है. और इससे होने वाला अपच कई तरह की व्याधियां लेकर आता है. कई ससुराल वालों को सही डोज़ न मिलने तक मरोड़ होता दिखेगा. गैस उठेगी तो सिर भन्नाएगा. और वो जीवन नर्क करेंगे आपकी बेटी का. उस पर पाबंदियां लगाई जाएंगी. ये पित्त ससुराल वालों के उस दिल पर कब्जा करके बैठ जाता है, जिसमें संवेदनाएं होती हैं. वो दिल, जो एक विवाहिता की भावनाएं और उमंग को समझना चाहता है. उसे नौकरानी, चौकीदार या सिर्फ बच्चों की मां नहीं मानता.

दहेज का मनोविज्ञान, जितना ससुराल पक्ष पर काम करता है, उतना ही लड़की और उसके मायके वालों पर भी. इसका भी अलग अलग लेवल है. पहला तो ये कि बेटी और उसके मायके वाले नीति बना लें कि दहेज नहीं देंगे. और उनकी इसी शर्त पर बेटी का ब्याह भी हो जाए. सबकुछ ठीक रहा तो लड़की वाले ही अपने आपको भाग्यशाली मानते हैं. फोन पर वे बेटी की आवाज गौर से सुनते हैं कि कहीं उसे कोई दुख तो नहीं है. देश के कई हिस्सों में दहेज का सिस्टम इतना नॉर्मल बन गया है कि माता-पिता बेटी के जन्म से ही उसकी शादी का 'इंतजाम' शुरू कर देते हैं. यूपी-बिहार के अलावा दक्षिण भारत में भी ये सब खूब होता है. लड़की को शादी में खूब धन, जेवर और सााजो-सामान दिया जाता है. लेकिन, क्या ये सबकुछ उसके सुखमय जीवन की गारंटी है? बिल्कुल नहीं. वो अपने विवाहित जीवन का बड़ा हिस्सा लो-प्रोफाइल रहकर ही बिता देना चाहती है कि कहीं कोई क्लेश न हो. क्योंकि लालच किसी भी रूप में बाहर आ सकता है. इसी साल जनवरी की तो बात है. बेंगलुरू के खाते-कमाते शख्स ने अपनी पत्नी का जला कर मार डाला. उसकी पत्नी शादी में एक किलो सोना (आज की स्थिति में 50 लाख रु.) लेकर आई थी, लेकिन लालची पति को कैश अलग से चाहिए था. केरल में 27 साल की ब्याहता को दहेज में दो लाख रु. कम लाने पर भूखा मार दिया गया. तो क्या लालच की कोई सीमा है? 1961 में दहेज को अपराध घोषित कर दिया गया, लेकिन यह अलग अलग नाम और रूप से आज भी कायम है. एक ऐसा सिस्टम जो एक परिवार से नाहक उसका धन और एक बेटी का आत्मविश्वास छीनने के लिए बनाया गया है. घिन आती है, ऐसे रुपए या संपत्ति पर नजर रखने वालों पर.

उजली तस्वीर नाकाफी है

मध्यप्रदेश सहित कई राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर सामूहिक विवाह के आयोजन शुरू किए हैं. जहां बिना दहेज की शादियां करवाई जाती हैं, और सरकार अपनी तरफ से शुभकामना स्वरूप नवविवाहित जोड़े को तोहफे देती है. लेकिन, ऐसे आयोजनों में ज्यादातर गरीब या निम्न-मध्यम वर्ग की हिस्सेदारी है. ऐसे कार्यक्रम उन राज्यों में न के बराबर हो रहे हैं, जहां दहेज ने परंपरा का रूप ले रखा है. कई समाजसेवियों ने इस कुरीति को खत्म करने का प्रयास किया है, लेकिन उसका भी असर व्यापक होता नहीं दिख रहा है. कुछ NGO भी लगे हुए हैं अपनी तरफ से. लेकिन उनका काम भी चेतना जगाने की एकतरफा कोशिश और कुछ पीड़ित परिवारों के आंसू पोंछने से आगे नहीं बढ़ पा रहा है. तो आखिर में इलाज क्या है और कहां है? इलाज वहीं हैं, जहां से समस्या पैदा हो रही है. बेटी के पैदा होने पर उसकी शादी की जिम्मेदारी को बोझ समझने वाले वाले माता-पिता और उसके समाज का नजरिया पूरी तरह बदल देना जरूरी है. इसके लिए उसके ससुराल की मेहरबानी नहीं चाहिए. वक्त है समय को बदल देने का. बेटियों को खूब पढ़ाइये. भेदभाव रहित परवरिश दीजिए. उनके करिअर की अनिवार्यता को समझिए, और उन्हें भी समझाइये. ये बात पूरी तरह उनके भीतर भर दीजिए कि आत्मनिर्भरता से किसी भी तरह का समझौता न करें, क्योंकि ये समझौता ही उन्हें निर्भर बनाता है. उन्हें पता भी नहीं चलता कि वे कब अपने पति या ससुराल की मेहरबानियों के हवाले हो गईं.

माता-पिता ने अपनी परवरिश में क्रांति ला दी, तो बाकी की क्रांति बेटियां खुद कर लेंगी. झुकी हुई कमजोर गर्दन को दबा दिए जाने का खतरा हमेशा बना रहता है. लेेेेेेेकिन, बेेेटियांं जब सिर उठाकर जियेंगी, तो कोई कमबख्त लालची उनकी गर्दन तक पहुंचने की हिम्मत नहीं करेगा. बेटी को आत्मविश्वास और साहस के साथ विदा कीजिए. दहेज में बाकी 'सबकुछ' मत दीजिए. वरना, सबकुछ चला जाता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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