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Delhi Riots खतरनाक या दंगाइयों की उम्र ? सवाल जस का तस बरक़रार है

    • अनु रॉय
    • Updated: 02 मार्च, 2020 01:58 PM
  • 02 मार्च, 2020 01:58 PM
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दिल्ली दंगों (Delhi Riots) के दौरान जो भी तस्वीरें आई हैं यदि उनपर ध्यान दिया जाए तो दंगाइयों (Rioters) की उम्र कई मायनों में हैरान करने वाली हैं. सवाल ये है कि जिन्हें अपने अस्तित्व के लिए, अपने बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष करना था. वो एक ऐसी चीज के लिए सड़कों पर हैं जिसका उद्देश्य तबाही और मौत है.

कभी गौर किया है कि जब भी कोई दंगा भड़कता (Delhi Riots) है तो उस में मौजूद भीड़ की उम्र क्या होती है? नोटिस कीजिएगा तो पाइएगा कि भीड़ की उम्र 13-14 साल से लेकर 20-25 के बीच की होगी. फिर सोचने की कोशिश कीजिएगा कि ये जो भी दंगा भड़का है उससे इन नौजवानों की ज़िंदगी पर कोई ख़ास पड़ने वाला है क्या? क्या इन दंगे-फ़साद में वो इसलिए शामिल हो रहें कि उनके कॉलेज में क्लास नहीं चल रही, या उनके इम्तिहान के रिज़ल्ट नहीं आए हैं. क्या ये दंगे नौकरी (Jobs) नहीं मिल रही इसलिए भड़के हैं और उनका शामिल होना लाज़मी सा है. इस सारे सवालों के जवाब आपको न में मिलेंगे. बारहा जो दंगे भड़कते हैं वो जाति-धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर भड़कते हैं. शिक्षा को ले कर जो प्रोटेस्ट (CAA Protest) होते हैं उनमें आग और गोलियां नहीं चलती. उन प्रोटेस्ट में ये शामिल भी नहीं होते. फिर सोचिए कि जब भी बात धर्म की आती है तभी ये कम उम्र लड़के दोनों ही क़ौम के क्यों बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने आते हैं. बात साफ़ सी है. ये लड़के अपने दिमाग़ से नहीं चल रहें होते. किसी के हाथ में कट्टा और किसी के हाथ में पत्थर उनकी अपनी सोच की वजह से नहीं होता. वो रोबॉट की तरह अपने-अपने क़ौम की नेताओं के रिमोट से चल रहे होते हैं.

दंगाइयों को देखिये और समझिये कि जिस उम्र में इन्हें अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना था ये किस लिए सड़कों पर हैं

अब दो दिन से जल रही दिल्ली का उदाहरण लीजिए. ये हिंदू मुस्लिम की बात नहीं है. बात उन लड़कों की है जिनकी उम्र 13-14 से लेकर 19-20 साल के बीच की है. जो हिंदू और मुसलमान दोनों साइड से बिना कुछ जाने समझे किसी भी दंगे में कूद पड़ते हैं. इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता हक़ीक़त और सच्चाई से. वो ख़ाली बैठें हैं. कालेज और पढ़ाई से मतलब नहीं है. फ़्यूचर के लिए सोचना नहीं...

कभी गौर किया है कि जब भी कोई दंगा भड़कता (Delhi Riots) है तो उस में मौजूद भीड़ की उम्र क्या होती है? नोटिस कीजिएगा तो पाइएगा कि भीड़ की उम्र 13-14 साल से लेकर 20-25 के बीच की होगी. फिर सोचने की कोशिश कीजिएगा कि ये जो भी दंगा भड़का है उससे इन नौजवानों की ज़िंदगी पर कोई ख़ास पड़ने वाला है क्या? क्या इन दंगे-फ़साद में वो इसलिए शामिल हो रहें कि उनके कॉलेज में क्लास नहीं चल रही, या उनके इम्तिहान के रिज़ल्ट नहीं आए हैं. क्या ये दंगे नौकरी (Jobs) नहीं मिल रही इसलिए भड़के हैं और उनका शामिल होना लाज़मी सा है. इस सारे सवालों के जवाब आपको न में मिलेंगे. बारहा जो दंगे भड़कते हैं वो जाति-धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर भड़कते हैं. शिक्षा को ले कर जो प्रोटेस्ट (CAA Protest) होते हैं उनमें आग और गोलियां नहीं चलती. उन प्रोटेस्ट में ये शामिल भी नहीं होते. फिर सोचिए कि जब भी बात धर्म की आती है तभी ये कम उम्र लड़के दोनों ही क़ौम के क्यों बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने आते हैं. बात साफ़ सी है. ये लड़के अपने दिमाग़ से नहीं चल रहें होते. किसी के हाथ में कट्टा और किसी के हाथ में पत्थर उनकी अपनी सोच की वजह से नहीं होता. वो रोबॉट की तरह अपने-अपने क़ौम की नेताओं के रिमोट से चल रहे होते हैं.

दंगाइयों को देखिये और समझिये कि जिस उम्र में इन्हें अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना था ये किस लिए सड़कों पर हैं

अब दो दिन से जल रही दिल्ली का उदाहरण लीजिए. ये हिंदू मुस्लिम की बात नहीं है. बात उन लड़कों की है जिनकी उम्र 13-14 से लेकर 19-20 साल के बीच की है. जो हिंदू और मुसलमान दोनों साइड से बिना कुछ जाने समझे किसी भी दंगे में कूद पड़ते हैं. इन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता हक़ीक़त और सच्चाई से. वो ख़ाली बैठें हैं. कालेज और पढ़ाई से मतलब नहीं है. फ़्यूचर के लिए सोचना नहीं है. मां-बाप के पैसे से ठूस  रहें है. मुफ़्त का इंटरनेट  मिल रहा. जिससे हिंदू आका अपने हिंदू लड़कों में विष बो रहे और मुस्लिम नेता अपने लड़कों को बर्बाद कर रहे हैं. पूरी की पूरी नस्ल बर्बाद हो रही दोनों क़ौम की. ये किसी को नहीं दिख रहा.

हिंदू लड़का मस्जिद पर चढ़ केसरिया झंडा लहरा देता है. कोई मुस्लिम लड़का मंदिर में पत्थर फेंक आता है. अब हिंदू लोग मुस्लिम लड़के को कोस रहें और मुस्लिम, हिंदू को. कोई भी ये सोचना नहीं चाहता कि आख़िर ये हो क्यों रहा है? इन दंगों में ये कम उम्र के लड़के ही कूदते नज़र आ रहें? आख़िर कौन इनका ब्रेनवाश कर रहा. दोनों क़ौम बस वीडियो और फ़ोटो शेयर करने पर लगी है. नेता लोग बंदरों की लड़ाई देख कर मज़े ले रहे हैं.

ठीक है. यही कीजिए. कट जाइए, काट दीजिए. पढ़िए-लिखिए मत. ये भी मत सोचिए कि आने वाली नस्ल को बर्बाद कर के आप देश को बर्बाद कर रहें. इस वक़्त में जितने राजनेता ग़लत हैं. उतने ही दोषी हम और आप भी हैं. ज़रा ठहर के सोचिए.और जिस वक़्त मैं ये लिख रही हूं उसी वक़्त ख़बर आ रही कॉन्स्टेबल अंकित शर्मा के मौत की. ऑफ़िस से अंकित शर्मा घर की तरफ़ भागा क्योंकि घर से फ़ोन आया था कि दंगाई उसके घर पत्थर बरसा रहें.

दंगे में मारे गए अंकित शर्मा की फाइल फोटो और रोते हुए परिजन

मां ने फ़ोन किया था. उसका घर चांद बाग़ के नज़दीक था. वो घर पहुंचने ही वाला था कि भीड़ ने उसे घेर लिया. उसे उठा कर उसके घर से दूर ले गए. जहां उसे पहले पत्थरों से मारा फिर गोली मार दी. अंकित सिर्फ़ 26 साल का था. 2017 में उसने इंडियन इंटेलीजेंस ब्यूरो में नौकरी हासिल की थी. और उसके लिए उसने कितनी मेहनत की होगी इसका अंदाज़ा सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहें लोग लगा सकते हैं. उसके कितने सपने रहे होंगे जो अब कभी पूरे नहीं होंगे. ठीक न.

अब ज़रा सोचिए और सोच कर मुझे बताइए कि अंकित शर्मा की क्या ग़लती थी? और बात सिर्फ़ अंकित शर्मा की भी नहीं है. बात इस प्रोटेस्ट में मारे जा रहें उन सभी लोगों की है जो प्रोटेस्ट का हिस्सा नहीं थे. जो न तो किसी मुसलमान या हिंदू को मार रहे थे. तो फिर ऐसे बेगुनाह लोग क्यों मर रहें हैं?

अंकित के मां-बाप को क्या जवाब दीजिएगा. मंदिर पर पत्थर फेंकने वाला वीडियो क्लिप दिखाइएगा या मस्जिद पर गेरुआ झंडा वाला. तय कीजिए. शर्म और इंसानियत ख़त्म हो चुकी है. केजरीवाल और अमित शाह आपके घर में तो सब ख़ैरियत है . ख़ुश हैं न अब आप. शाहीन बाग़ के नाम पर चढ़ने दीजिए बलि. जय हो. अंकित तुम्हें शांति मिले और अगले जन्म कहीं और पैदा होना. सॉरी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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