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तिरंगे में लिपटा ये शव हमारे सैनिकों का अपमान है...

    • आईचौक
    • Updated: 07 अक्टूबर, 2016 06:32 PM
  • 07 अक्टूबर, 2016 06:32 PM
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किसी शव पर जब हम तिरंगा लिपटा हुआ देखते हैं तो पहला ख्याल सैनिकों की शहादत का आता है. लेकिन किसी हत्या के आरोपी को तिरंगे के नीचे रखने का मकसद क्या हो सकता है ?

दादरी के बिसाहड़ा गांव में एक बार फिर तनाव का माहौल है. पिछले साल यहां जो हुआ था, वो अब भी सबके जेहन में है. जब अखलाक की हत्या हुई तो कुछ ही दिनों बाद एक खबर ये भी आई कि एक मुस्लिम शादी में दोनों समुदायों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. लेकिन अब जो हो रहा है उसने साबित कर दिया है कि दरकते रिश्तों को जोड़ना इतना भी आसान नहीं है.

अखलाक की हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुए रवि सिसोदिया की मौत पर राजनीति शुरू हो गई है. फ्रीजर वाले ताबूत में रखे रवि के शव पर जब तिरंगा लपेटा गया तो पुलिस वहां मौजूद थी. पुलिस तब भी मौजूद थी, जब साध्वी प्राची आईं और मुजफ्फरनगर दंगो का जिक्र करने लगीं. कई और लोग लगातार भाषण दे रहे हैं. बदले की बात कर रहे हैं. पुलिस की मुश्किल ये है कि वो कुछ कर नहीं रही, इस डर से कि मामला और भड़क न जाए. वो फिलहाल बस ये घोषणा कराने में जुटी है कि इलाके के मुस्लिम घर में रहे..बाहर नहीं निकलें!

यह भी पढ़ें- मत कीजिए समाज का सर्जिकल ऑपरेशन !

4 अक्टूबर को रवि की दिल्ली के एक अस्पताल में मौत हुई. बताया गया कि किडनी के फेल होने से रवि की मौत हो गई. रवि के परिवार और गांव वालों का आरोप है कि मौत जेल में उसके साथ हुई ज्यादती और पिटाई से हुई है. इसकी जांच वाकई होनी चाहिए कि सच क्या है. लेकिन उसके क्या शव पर तिरंगा लपेटना ठीक फैसला था? क्या ये तिरंगे का अपमान नहीं है. बात केवल अपमान से सम्मान से नहीं जुड़ा है. दरअसल, कुछ लोग वहां जरूर जमे हैं जो शव पर तिरंगा लपेटने, अंतिम क्रिया कर्म नहीं होने देने की बात कर रहे हैं...गांव और परिवार वालों से करा रहे हैं.

ये ट्वीट 'दिं हिंदू' अखबार के रिपोर्टर ने की है जो वहां मौजूद थे. नियमों के अनुसार राजकीय...

दादरी के बिसाहड़ा गांव में एक बार फिर तनाव का माहौल है. पिछले साल यहां जो हुआ था, वो अब भी सबके जेहन में है. जब अखलाक की हत्या हुई तो कुछ ही दिनों बाद एक खबर ये भी आई कि एक मुस्लिम शादी में दोनों समुदायों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. लेकिन अब जो हो रहा है उसने साबित कर दिया है कि दरकते रिश्तों को जोड़ना इतना भी आसान नहीं है.

अखलाक की हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुए रवि सिसोदिया की मौत पर राजनीति शुरू हो गई है. फ्रीजर वाले ताबूत में रखे रवि के शव पर जब तिरंगा लपेटा गया तो पुलिस वहां मौजूद थी. पुलिस तब भी मौजूद थी, जब साध्वी प्राची आईं और मुजफ्फरनगर दंगो का जिक्र करने लगीं. कई और लोग लगातार भाषण दे रहे हैं. बदले की बात कर रहे हैं. पुलिस की मुश्किल ये है कि वो कुछ कर नहीं रही, इस डर से कि मामला और भड़क न जाए. वो फिलहाल बस ये घोषणा कराने में जुटी है कि इलाके के मुस्लिम घर में रहे..बाहर नहीं निकलें!

यह भी पढ़ें- मत कीजिए समाज का सर्जिकल ऑपरेशन !

4 अक्टूबर को रवि की दिल्ली के एक अस्पताल में मौत हुई. बताया गया कि किडनी के फेल होने से रवि की मौत हो गई. रवि के परिवार और गांव वालों का आरोप है कि मौत जेल में उसके साथ हुई ज्यादती और पिटाई से हुई है. इसकी जांच वाकई होनी चाहिए कि सच क्या है. लेकिन उसके क्या शव पर तिरंगा लपेटना ठीक फैसला था? क्या ये तिरंगे का अपमान नहीं है. बात केवल अपमान से सम्मान से नहीं जुड़ा है. दरअसल, कुछ लोग वहां जरूर जमे हैं जो शव पर तिरंगा लपेटने, अंतिम क्रिया कर्म नहीं होने देने की बात कर रहे हैं...गांव और परिवार वालों से करा रहे हैं.

ये ट्वीट 'दिं हिंदू' अखबार के रिपोर्टर ने की है जो वहां मौजूद थे. नियमों के अनुसार राजकीय सम्मान के साथ होने वाले अंत्येष्टि, सशस्त्र बलों या दूसरे अर्ध सैनिक बलों की अंतिम यात्रा के अलावा किसी भी हाल में तिरंगा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. फिर तिंरगा की बात वहां किसने की. 

जब 22 साल के किसी नौजवान की मौत हो, तो दुख किसे नहीं होगा. रवि साल भर पहले हुए अखलाक हत्याकांड में शामिल था या नहीं, ये सवाल अभी जांच के घेरे में था.

अखलाक की हत्या के बाद भी यूपी पुलिस पर आरोप लगे थे कि वो मामले को बस दबाने के लिए ऐसे ही गांव के कुछ लड़कों को उठा लाई है. फिर अचानक जेल में रवि की मौत! पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आना अभी बाकी है, लेकिन ये सवाल तो है कि एक 22 साल के नौजवान की किडनी फेल होने से मौत की बात पर क्या भरोसा किया जा सकता है.

 एक मौत पर सियासत...

कुछ संगठन रवि को शहीद बता रहे हैं. वो हिंदू मूल्यों की रक्षा करते-करते शहीद हो गया. असल में जो लोग ये बातें कर रहे हैं, उनकी हमदर्दी रवि से तो बिल्कुल नहीं है. उसकी मौत कितना फायदा उठा लिया जाए, सारी कवायद शायद इसकी है.

अर्थ, सारांश, नाम, डैडी जैसी बेहतरीन फिल्में देने वाले महेश भट्ट की 1998 में एक फिल्म आई थी 'जख्म'. धार्मिक उन्माद और उस पर सियासत की रोटी कैसे सेंकी जाती है, उस पर चोट करती एक बेहतरीन फिल्म. मां की लाश अस्पताल में पड़ी है. बड़ा बेटा उसे दफनाना चाहता है. उसे हकीकत मालूम है कि उसकी मां दरअसल एक मुस्लिम है लेकिन हालात ऐसे बने कि उसने अपने इस पहचान को दुनिया से छिपाये रखा. छोटा बेटा इससे अंजान एक हिंदू संगठन से जुड़ा है. घोर हिंदूवादी. जब उसे सच्चाई मालूम होती है तो वो भरोसा ही नहीं कर पाता. हजम नहीं कर पाता कि हिंदुओं के लिए मरने मारने की बात करने वाला वो खुद एक 'मुस्लिम कोख' से जन्मा है. और इन सबके बीच जिस संगठन से वो जुड़ा है, उसके नेताओं को चिंता सताने लगती है कि अब एक लाश को दिखाकर हिंदुओं को भड़काने की योजना का क्या होगा...

यह भी पढ़ें- अब बोलो अखलाक की मौत पर बवाल काटने वालों !

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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