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Chandra Grahan: विज्ञान से ज्यादा वैज्ञानिक नजरिए की जरूरत

    • Pardeep
    • Updated: 12 नवम्बर, 2022 06:56 PM
  • 12 नवम्बर, 2022 06:56 PM
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हमेशा की तरह इस बार भी ग्रहण के एक-दो दिन पहले से ही टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से फलित ज्योतिषी अपना कूपमंडूक सुनाते दिखाई दिए. हालांकि मनुष्य चांद पर जा चुका है और विजयी होकर वापस भी लौट आया है, लेकिन फिर भी हमारे यहां ग्रहण के लिए दो सिद्धांत हैं.

मंगलवार को भारत में साल का आखिरी पूर्ण चंद्रग्रहण लगा. हमारे देश ही नहीं पूरी दुनिया में प्राचीन काल से ही ग्रहण से संबंधित कथाएं और किवदंतियां चलती चली आ रही हैं. आज भी ज्यादातर लोग इन किवदंतियों को सही मानते हैं. हमेशा की तरह इस बार भी ग्रहण के एक-दो दिन पहले से ही टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से फलित ज्योतिषी अपना कूपमंडूक सुनाते दिखाई दिए. हालांकि मनुष्य चांद पर जा चुका है और विजयी होकर वापस भी लौट आया है, लेकिन फिर भी हमारे यहां ग्रहण के लिए दो सिद्धांत हैं, एक स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने के लिए और दूसरा घर पर कर्मकांड के लिए. आज भी सूर्य और चंद्रमा राहु-केतु के शिकंजे से आजाद नहीं हो पाए हैं. दु:ख की बात यह है भारतीय मीडिया का भी रुख ज्यादातर लोगों के मतानुकूल ही है.

ऐसा भी नही हैं कि प्राचीन काल में किसी भी भारतीय ज्योतिषी को सूर्य ग्रहण के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी. आज से लगभग ढेढ़ हजार साल पहले प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में ग्रहण का कारण बताते हुए लिखा है, ''छादयति शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया''. यानी सूर्य ग्रहण पर सूर्य को चंद्रमा ढक लेता है और चंद्रग्रहण पर पृथ्वी की बड़ी छाया चंद्रमा को ढक लेती है. इसलिए उन्हें अपने समकालीन ज्योतिषियों की आलोचनाएं भी झेलनी पड़ीं.

आज इक्कीसवीं सदी में भी भारत के ज्यादातर लोग ग्रहणों को देखने और इस दौरान भोजन पकाने और खाने से डरते हैं. जबकि स्कूल जाने वाले मामूली छात्र भी यह जानते हैं कि ग्रहण एक प्राकृतिक और खगोलीय घटना या सूर्य-चंद्रमा की लुका-छिपी का भर हैं. आखिर क्यों विज्ञान के इतने विकास के बाद भी हम काल्पनिक राहु-केतु के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं? क्यों हम भूत-प्रेतों, जादू-टोना, पुनर्जन्म, फलित ज्योतिष एवं अन्य मिथकों व अंधविश्वासों में यकीन करते हैं? क्यों लड़की के जन्म पर अभी भी कुछ लोग महिलाओं को प्रताड़ित करते हैं? जबकि सालों से स्कूली किताबों में यह पढ़ाया जा रहा है कि लड़की या लड़के के जन्म के लिए मां जिम्मेदार नहीं...

मंगलवार को भारत में साल का आखिरी पूर्ण चंद्रग्रहण लगा. हमारे देश ही नहीं पूरी दुनिया में प्राचीन काल से ही ग्रहण से संबंधित कथाएं और किवदंतियां चलती चली आ रही हैं. आज भी ज्यादातर लोग इन किवदंतियों को सही मानते हैं. हमेशा की तरह इस बार भी ग्रहण के एक-दो दिन पहले से ही टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से फलित ज्योतिषी अपना कूपमंडूक सुनाते दिखाई दिए. हालांकि मनुष्य चांद पर जा चुका है और विजयी होकर वापस भी लौट आया है, लेकिन फिर भी हमारे यहां ग्रहण के लिए दो सिद्धांत हैं, एक स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने के लिए और दूसरा घर पर कर्मकांड के लिए. आज भी सूर्य और चंद्रमा राहु-केतु के शिकंजे से आजाद नहीं हो पाए हैं. दु:ख की बात यह है भारतीय मीडिया का भी रुख ज्यादातर लोगों के मतानुकूल ही है.

ऐसा भी नही हैं कि प्राचीन काल में किसी भी भारतीय ज्योतिषी को सूर्य ग्रहण के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी. आज से लगभग ढेढ़ हजार साल पहले प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में ग्रहण का कारण बताते हुए लिखा है, ''छादयति शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया''. यानी सूर्य ग्रहण पर सूर्य को चंद्रमा ढक लेता है और चंद्रग्रहण पर पृथ्वी की बड़ी छाया चंद्रमा को ढक लेती है. इसलिए उन्हें अपने समकालीन ज्योतिषियों की आलोचनाएं भी झेलनी पड़ीं.

आज इक्कीसवीं सदी में भी भारत के ज्यादातर लोग ग्रहणों को देखने और इस दौरान भोजन पकाने और खाने से डरते हैं. जबकि स्कूल जाने वाले मामूली छात्र भी यह जानते हैं कि ग्रहण एक प्राकृतिक और खगोलीय घटना या सूर्य-चंद्रमा की लुका-छिपी का भर हैं. आखिर क्यों विज्ञान के इतने विकास के बाद भी हम काल्पनिक राहु-केतु के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं? क्यों हम भूत-प्रेतों, जादू-टोना, पुनर्जन्म, फलित ज्योतिष एवं अन्य मिथकों व अंधविश्वासों में यकीन करते हैं? क्यों लड़की के जन्म पर अभी भी कुछ लोग महिलाओं को प्रताड़ित करते हैं? जबकि सालों से स्कूली किताबों में यह पढ़ाया जा रहा है कि लड़की या लड़के के जन्म के लिए मां जिम्मेदार नहीं होती, ग्रहण सामान्य खगोलीय घटना है, भूत-प्रेत मन की बीमारियां हैं, फलित ज्योतिष व वास्तु शास्त्र विज्ञान नहीं हैं. इसके बावजूद कुछ लोग अंधविश्वासों, रूढ़िवादी मान्यताओं एवं कुरीतियों का समर्थन करते नज़र आते हैं.

आखिर क्या कारण है कि शिक्षा और उच्च शिक्षा भी हमारे मन से अंधविश्वास का प्रभाव दूर नहीं कर पाती? वैज्ञानिक कहते हैं इसका एक कारण है बिना किसी प्रमाण या तर्क के किसी भी बात पर यकीन करने की प्रवृत्ति यानी वैज्ञानिक नजरिए का अभाव. वैज्ञानिक नजरिया मूलतः एक ऐसी मनोवृत्ति या सोच है जिसका मूल आधार है किसी भी घटना की पृष्ठभूमि में उपस्थित कार्य-कारण को जानने की प्रवृत्ति. मगर इस बात का जवाब नहीं मिलता कि स्कूलों के पाठ्यक्रमों से गुजरने और कालेजों-विश्वविद्यालयों में रहते हुए तमाम बड़े विद्वानों के विचारों को आत्मसात करने के बाद भी हमारा मन अंधविश्वास के अंधेरों से पीछा क्यों नहीं छुड़ा पाता. जाहिर है कि जीवन पूरी तरह किताबों से संचालित और नियंत्रित नहीं होता. किताबों से बाहर के बहुत से कारक हैं जो हमारे जीवन और सोच को आकार देते हैं. जीवन में आशंका, असुरक्षा की निरंतरता भी अंधविश्वास के लिए खाद-पानी की निर्बाध सप्लाई का स्रोत है.

बहरहाल, वैज्ञानिक नजरिए का अभाव निजी तौर पर भी हमारे जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. हमें अंधविश्वास के उन गड्ढों की ओर ले जाता है जो कभी कभार पूरे परिवार की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं. खास बात यह कि जरा सी वैज्ञानिक चेतना ऐसे गड्ढों से बचाने के लिए काफी हो सकती है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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