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उल्लेखनीय सेवाओं के लिए माइग्रेन पाने वाले पत्रकार का बायोडाटा

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 18 जनवरी, 2017 12:57 PM
  • 18 जनवरी, 2017 12:57 PM
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शायद ये दुनिया का सबसे रोचक बायोडाटा लगे, लेकिन सपाट नौकरी की क्रूर हकीकत को ऐसे ही तो बयां किया जाएगा.

बात गुजरे सालों की है, इंटर में साइंस लेने के बाद हमारे पिता जी की इच्छा हुई कि हमारा लड़का भी डॉक्टर बने. हमने बगावत का बिगुल बजाकर उन्हें साफ बता दिया कि लखनऊ के चौक चौराहे पर, चाऊमीन का ठेला लगाके उसमें हम फ्राइड राइस और मोमो बेच लेंगे, मगर  डॉक्टर हम हरगिज़ न बनेंगे. डॉक्टर न बनने के पीछे की वजह ये है कि हमें छुटपन से ही खून देखकर उल्टी आती थी, और आज भी हम इंजेक्शन से बड़ा डरते हैं.

इंटर से निकल कर हम फिर ग्रेजुएशन में आए, पिताजी ने सोचा था लड़का बीएससी कर लेगा, फिर बैंक पीओ की कोचिंग करवा देंगे, कम से कम सचिवालय वाले दोस्तों को बताने में ही अच्छा लगेगा. हम बाग़ी थे, हमने बीए में एडमिशन लिया. इस फैसले के बाद पिताजी के अरमानों पर नील गिर गयी और उनके सपनों पर चूना मल गया, उन्होंने हमसे किसी भी तरह की कोई भी उम्मीद रखना लगभग छोड़ दिया था.

हमारे बीए में सेकंड डिवीजन पास होने के बाद और बगल वाले शुक्ला जी के लड़के बिट्टू और सामने वाले अंसारी साहब की लड़की पिंकी को देखकर पिताजी के उम्मीद के कीड़े फिर से जागे. अब हमको एमबीए के फायदे गिनाए जाने लगे, एमबीए के अलावा हमसे बैंक पीओ, क्लर्क, समूह “ग” जैसे फॉर्म डलवाए गए. हम बड़े आदर्शवादी थे पर्चे सारे दिए मगर सोकर! नतीजा निकला सिफ़र.

ये भी पढ़ें- ये गाइड पढ़ें, राजनीति में अव्वल आने की शुद्ध गारंटी है !

 हम बाग़ी थे, हमने बीए में एडमिशन लिया. इस फैसले के...

बात गुजरे सालों की है, इंटर में साइंस लेने के बाद हमारे पिता जी की इच्छा हुई कि हमारा लड़का भी डॉक्टर बने. हमने बगावत का बिगुल बजाकर उन्हें साफ बता दिया कि लखनऊ के चौक चौराहे पर, चाऊमीन का ठेला लगाके उसमें हम फ्राइड राइस और मोमो बेच लेंगे, मगर  डॉक्टर हम हरगिज़ न बनेंगे. डॉक्टर न बनने के पीछे की वजह ये है कि हमें छुटपन से ही खून देखकर उल्टी आती थी, और आज भी हम इंजेक्शन से बड़ा डरते हैं.

इंटर से निकल कर हम फिर ग्रेजुएशन में आए, पिताजी ने सोचा था लड़का बीएससी कर लेगा, फिर बैंक पीओ की कोचिंग करवा देंगे, कम से कम सचिवालय वाले दोस्तों को बताने में ही अच्छा लगेगा. हम बाग़ी थे, हमने बीए में एडमिशन लिया. इस फैसले के बाद पिताजी के अरमानों पर नील गिर गयी और उनके सपनों पर चूना मल गया, उन्होंने हमसे किसी भी तरह की कोई भी उम्मीद रखना लगभग छोड़ दिया था.

हमारे बीए में सेकंड डिवीजन पास होने के बाद और बगल वाले शुक्ला जी के लड़के बिट्टू और सामने वाले अंसारी साहब की लड़की पिंकी को देखकर पिताजी के उम्मीद के कीड़े फिर से जागे. अब हमको एमबीए के फायदे गिनाए जाने लगे, एमबीए के अलावा हमसे बैंक पीओ, क्लर्क, समूह “ग” जैसे फॉर्म डलवाए गए. हम बड़े आदर्शवादी थे पर्चे सारे दिए मगर सोकर! नतीजा निकला सिफ़र.

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 हम बाग़ी थे, हमने बीए में एडमिशन लिया. इस फैसले के बाद पिताजी के अरमानों पर नील गिर गयी

हम बीए कर चुके थे, आगे शादी होनी थी, बीए वालों से कोई शादी नहीं करता तो हमनें कई रातें जागने के बाद जर्नलिज्म से पीजी करने का सोचा. कोर्स का नाम था "एमजेएमसी" यानी मास्टर इन जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन. आपको बता दूं कि कोर्स करने से पहले हम अखबार और मैगज़ीन सरीखी चीज़ों से दूर रहते थे, अंततः वो दिन भी आया जब हम बीए से एमए होने वाले थे.

कॉउंसलिंग में हमसे 2 सवाल हुए, पहला की पत्रकार क्यों बनना चाहते हो दूसरा ये कि पत्रकारिता क्यों करनी है. पहले पर हमारा जवाब था कि हमारे पास बाइक है उसपर हमें "प्रेस" लिखवाना और कार्ड बनवाना है दूसरे पर हमनें कहा कि हमने रंगदारी और बदमाशी से लेके ठेकेदारी सब देखी मगर असल रुतबा पत्रकार का है, उन्हें कुछ भी करने पर कोई कुछ नहीं कहता. अब हमारी बात में वज़न था या हमारे कोटे के लोटे में आरक्षण की अफ़ीम ज्यादा थी हमें एक माइनॉरिटी कॉलेज में, "एमजेएमसी" में एडमिशन मिल गया.

कॉलेज के शुरुआती दिनों तक सब ठीक था हम क्राइम रिपोर्टर और हमारे साथ की लड़कियां एंकर बनना चाहती थीं. ख़ैर जैसे- जैसे सेमेस्टर बढ़ते गए और उस दौरान इनवर्टेड पिरामिड संकरे से चौड़ा हुआ, खबर क्या है, कैमरा कैसे चलाते हैं, डिजर्टेशन का टॉपिक क्या है, जैसे सवालों से दो चार हुए हमारी अक्ल ठिकाने आ गयी. कोर्स खत्म करने और इंटरशिप के नाम पर अपना शोषण कराने के बाद हमारे ज्ञान चक्षु खुले और हमें इस बात का एहसास हुआ कि असल पत्रकारिता शोषण हैं बाकी भौकाल तो फसाना है. शोषण से रुतबे के बीच हम एक प्रोडक्शन हाउस, एक न्यूज़ चैनल, एक वेबसाइट और कुछ अखबारों में, लखनऊ में रहकर और जींस टी शर्ट और स्पोर्ट्स शूज़ पहनकर काम कर चुके थे. इस बीच हमारे पास बैंगलोर की एक मीडिया कंपनी में बतौर सब एडिटर काम करने का ऑफर आया. हमनें आव देखा न ताव नौकरी ज्वाइन कर ली.

 जर्नलिज़्म का कोर्स करने से पहले हम अखबार और मैगज़ीन सरीखी चीज़ों से दूर रहते थे

खेल असली शुरू हुआ बैंगलोर वाली कंपनी में, बतौर सब एडिटर ज्वाइन करने के बाद. बैंगलोर आने से पहले हम फील्ड पर भागादौड़ी करने वाले जर्नलिस्ट थे बैंगलोर आने के बाद हम डेस्क पर सब एडिटर हो गए. हमारे जीवन की ग्रोथ रुक गयी हमारी तोंद की ग्रोथ बढ़ गयी. हम सुबह फॉर्मल पहन के ऑफिस आते और टीवी देखकर या गूगल न्यूज़ पढ़कर खबर बनाते. जीवन चल रहा था, चले जा रहा था. लखनऊ में काम करने के दौरान हम बिल्कुल नार्मल थे ज़ुकाम भी बताकर होता था, बैंगलोर में हालात दूसरे थे विग का पेंच, टारगेट का टेंशन, पेज व्यू और सबसे आगे निकलने की मार, सिंगल पेजर, मल्टी पेजर, फोटो फीचर,सनी लियोनी, पूनम पांडे, महेंद्र सिंह धोनी इतना सब झेलते हुए एक दिन हमें "माइग्रेन" हो गया. अब हम दवाओं पर ज़िंदा हैं.

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डेस्क पर इतने दिन काम करने के बाद अब हमको ये एहसास होता है कि हम कभी रिपोर्टर और सब एडिटर तो थे ही नहीं, दरअसल हम डाटा एंट्री ऑपरेटर हैं. हम अपनी-अपनी संस्था के सीएमएस पर डाटा की एंट्री करते हैं, पिक्सलार पर फोटो एडिट करते हैं, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, रैडिट, पिंटरेस्ट, व्हाट्सएप्प, गूगल प्लस सरीखी सोशल साइट्स पर अपने आर्टिकल की शेयरिंग करते हैं. सक्रिय पत्रकारिता के दिनों में हम शव को पोस्टमार्टम के लिए भेजते थे अब डेस्क पर आर्टिकल को भरपूर एसईओ लगाकर टॉप ट्रेंड होने के लिए भेजते हैं.

आजकल डेस्क वालों खासतौर पर वेबसाइट से जुड़े लोगों के लिए ये बात बेहद जरूरी है कि भले ही आर्टिकल में कंटेंट न के बराबर या बिलकुल न रहे मगर तस्वीरों पर कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए. वेबसाइट के लिए तस्वीरें जान होती हैं उनकी पहचान होती हैं अतः डेस्क पर बैठे व्यक्ति के लिए बिना कॉपीराइट की तस्वीरें खोजना भी अपने आप में एक बड़ा सरदर्द है.

बहरहाल अपनी व्यथा लिखते-लिखते मैं जज़्बाती हो गया हूं और मारे टेंशन के मेरा सिरदर्द बढ़ गया है जो थोड़ी देर में माइग्रेन का रूप ले लेगा. अतः अब समय हो चला है अपनी बात खत्म करके चाय सुट्टा ब्रेक पर जाने का, यूं भी इस महाठगनी और मायावी दुनिया में डेस्क पर बैठे व्यक्ति के पास केवल ‘चाय सुट्टे’ और ‘माइग्रेन’ के अलावा अपना है भी क्या! वो आज है, कल भी था और भविष्य में भी रहेगा.                          

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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