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जब बटुकेश्वर दत्त ने क्रांति के प्रचार के लिए विधानसभा में फेंके थे बम

    • Jyoti Verma
    • Updated: 18 नवम्बर, 2022 09:43 PM
  • 18 नवम्बर, 2022 09:43 PM
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महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की जयंती पर जानिये उन्होंने भगत सिंह के साथ मिलकर विधानसभा में बम क्यों फेका?

8 अप्रैल 1929, विद्रोह से उफनती विधानसभा 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारों से गूंज उठी. दो बम फेंके गए और साथ ही कुछ पर्चे, पर्चों में लिखा था, "बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की आवश्यकता होती है."

यह समय था जब साइमन कमीशन के भारत आने के बाद जगह-जगह भारी विरोध का माहौल था. अक्टूबर 1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुंचा तो इसके विरोध प्रदर्शन के दौरान लाहौर में लाला लाजपत राय की अंग्रेजों द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी. इसके परिणामस्वरूप क्रांतिकारियों में गुस्सा और अधिक भड़क उठा और उन्होंने इस हत्या के ज़िम्मेदार अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी. इस हत्या को अंजाम भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद एवं राजगुरु द्वारा दिया गया.

एक बंगाली कायस्थ परिवार में जन्में बटुकेश्वर दत्त की भगत सिंह से मुलाकात 1924 कानपुर में इनकी स्नातकीय शिक्षा के दौरान हुई थी. इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए काम करना शुरू कर दिया जिसके दौरान इन्होंने बम बनाना भी सीखा.

एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बटुकेश्वर दत्त जैसे शूरवीर का नाम गुमनामी के अंधेरों में कहीं खो गया

सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारियों के छुप जाने से ब्रिटिश सरकार द्वारा आम जनता को परेशान किया जाने लगा जिसके परिणामस्वरूप हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसिसिएशन द्वारा दो सदस्यों को गिरफ़्तारी के उद्देश्य से भेजने का निर्णय लिया गया जिससे आम जनता पर अत्याचार बंद हो. ये दो क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह थे जिन्होंने बलिदान देने का निर्णय किया.

8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को काबू में करने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो...

8 अप्रैल 1929, विद्रोह से उफनती विधानसभा 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारों से गूंज उठी. दो बम फेंके गए और साथ ही कुछ पर्चे, पर्चों में लिखा था, "बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की आवश्यकता होती है."

यह समय था जब साइमन कमीशन के भारत आने के बाद जगह-जगह भारी विरोध का माहौल था. अक्टूबर 1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुंचा तो इसके विरोध प्रदर्शन के दौरान लाहौर में लाला लाजपत राय की अंग्रेजों द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी. इसके परिणामस्वरूप क्रांतिकारियों में गुस्सा और अधिक भड़क उठा और उन्होंने इस हत्या के ज़िम्मेदार अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी. इस हत्या को अंजाम भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद एवं राजगुरु द्वारा दिया गया.

एक बंगाली कायस्थ परिवार में जन्में बटुकेश्वर दत्त की भगत सिंह से मुलाकात 1924 कानपुर में इनकी स्नातकीय शिक्षा के दौरान हुई थी. इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए काम करना शुरू कर दिया जिसके दौरान इन्होंने बम बनाना भी सीखा.

एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बटुकेश्वर दत्त जैसे शूरवीर का नाम गुमनामी के अंधेरों में कहीं खो गया

सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारियों के छुप जाने से ब्रिटिश सरकार द्वारा आम जनता को परेशान किया जाने लगा जिसके परिणामस्वरूप हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसिसिएशन द्वारा दो सदस्यों को गिरफ़्तारी के उद्देश्य से भेजने का निर्णय लिया गया जिससे आम जनता पर अत्याचार बंद हो. ये दो क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह थे जिन्होंने बलिदान देने का निर्णय किया.

8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को काबू में करने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया. इसी सत्र के दौरान भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दो बम और साथ ही कुछ पर्चे फेंके.

उनका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाए बिना विरोध प्रदर्शन कर सरकार की नज़र में आना था जिसके बाद उन्होंने समर्पण कर गिरफ्तारी को स्वीकार किया और उन्हें आजीवन कारावास सुनाया गया. बाद में इस घटना को 'असेम्बली बम काण्ड' नाम से जाना गया. चूंकि भगत सिंह सांडर्स की हत्या के आरोपी थे इसलिए उन्हें लाहौर षड्यंत्र केस की कार्यवाही के परिणामस्वरूप फांसी की सज़ा हुई और बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा काटने के लिए जेल भेज दिया गया.

एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बटुकेश्वर दत्त जैसे शूरवीर का नाम गुमनामी के अंधेरों में कहीं खो गया और क्रांति का चोला ओढ़े एक महान क्रांतिकारी का जीवन स्वतंत्रता सेनानी होकर स्वतंत्र भारत में भी अथक संघर्ष संघर्ष की कहानी कहता है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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