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मेरे हमलावर को मिली आजादी और मुझे आजीवन कारावास

    • अपर्णा कालरा
    • Updated: 15 जुलाई, 2017 01:10 PM
  • 15 जुलाई, 2017 01:10 PM
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अगर ये शहर असुरक्षित है तो सभी महिलाओं के लिए असुरक्षित है. ये अकेले मेरी लड़ाई क्यों होनी चाहिए?

"...दुर्घटना के दिन आरोपी ने पीड़ित को झाड़ियों के पीछे खींच लिया था और उसकी हत्या के इरादे से उसके सिर पर वार किया था.

7 अप्रैल, 2017 से अब तक हिरासत में रहा है, और उसके खिलाफ एक आरोप पत्र पहले ही दर्ज किया जा चुका है. पीड़िता को पहले ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी. अब उसको जमानत मिल गई…"

जिस हमलावर ने मुझे मारा और मुझे मरने के लिए छोड़ दिया था उसे सोमवार (10 जुलाई) को जमानत मिल गई. मेरे जख्मों के पूरी तरह भरने और मेरे फूटे सिर के टुकड़ों के जुड़ने के पहले ही उसे जमानत मिल गई है.

हमारी कानूनी प्रणाली ऐसे काम करती है. मैं पुलिस के लिए सिर्फ एक फाइल हूं, मीडिया के लिए एक हेडलाइन; मुझपर हुए हमले के दिन से ही मैं एक इंसान नहीं रह गई थी.

तीन महीने तक उसे जेल में रखने के लिए मैंने एडीशनल डीसीपी विजयंता आर्य के सामने अपना बयान वीडियो-रिकॉर्ड किया. जबकि इस वक्त भी मैं अस्पताल में दर्द से कराह रही थी, मेरे माथे पर पट्टियां बंधी थी और दो आईवी ट्यूब मेरे शरीर से जुड़े हुए थे. मैंने रोहिणी जिला अदालत में एक और बयान दर्ज किया. इस बार  एक मजिस्ट्रेट के सामने मेरा बयान दर्ज किया गया था. इसी बीच तिहाड़ जेल में एक जज की उपस्थिति में मैंने उसकी पहचान भी की.

मेरी क्या गलती थी?

न्यूरोसर्जन के पास जाना अब मेरे लाइफ का रुटीन बन चुका है. मैं टैक्सी लेती हूं क्योंकि मेरे घावों की वजह से मैं गाड़ी चलाने की स्थिति में नहीं हूं. और हमेशा मेरे साथ कोई न कोई होता है.

डॉ पीके के सचदेव ने मुझसे कहा था, "किसी भी ब्रेन इंज्यूरी को भरने में पूरे तीन महीने का समय लगता है. हम मरीज को बताते नहीं हैं, मरीज डर जाता है."

वो सही कह रहे थे, मैं डर रही थी.

मुस्करा कर मैंने अपने सिर को छुआ. एक अच्छा डॉक्टर...

"...दुर्घटना के दिन आरोपी ने पीड़ित को झाड़ियों के पीछे खींच लिया था और उसकी हत्या के इरादे से उसके सिर पर वार किया था.

7 अप्रैल, 2017 से अब तक हिरासत में रहा है, और उसके खिलाफ एक आरोप पत्र पहले ही दर्ज किया जा चुका है. पीड़िता को पहले ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी. अब उसको जमानत मिल गई…"

जिस हमलावर ने मुझे मारा और मुझे मरने के लिए छोड़ दिया था उसे सोमवार (10 जुलाई) को जमानत मिल गई. मेरे जख्मों के पूरी तरह भरने और मेरे फूटे सिर के टुकड़ों के जुड़ने के पहले ही उसे जमानत मिल गई है.

हमारी कानूनी प्रणाली ऐसे काम करती है. मैं पुलिस के लिए सिर्फ एक फाइल हूं, मीडिया के लिए एक हेडलाइन; मुझपर हुए हमले के दिन से ही मैं एक इंसान नहीं रह गई थी.

तीन महीने तक उसे जेल में रखने के लिए मैंने एडीशनल डीसीपी विजयंता आर्य के सामने अपना बयान वीडियो-रिकॉर्ड किया. जबकि इस वक्त भी मैं अस्पताल में दर्द से कराह रही थी, मेरे माथे पर पट्टियां बंधी थी और दो आईवी ट्यूब मेरे शरीर से जुड़े हुए थे. मैंने रोहिणी जिला अदालत में एक और बयान दर्ज किया. इस बार  एक मजिस्ट्रेट के सामने मेरा बयान दर्ज किया गया था. इसी बीच तिहाड़ जेल में एक जज की उपस्थिति में मैंने उसकी पहचान भी की.

मेरी क्या गलती थी?

न्यूरोसर्जन के पास जाना अब मेरे लाइफ का रुटीन बन चुका है. मैं टैक्सी लेती हूं क्योंकि मेरे घावों की वजह से मैं गाड़ी चलाने की स्थिति में नहीं हूं. और हमेशा मेरे साथ कोई न कोई होता है.

डॉ पीके के सचदेव ने मुझसे कहा था, "किसी भी ब्रेन इंज्यूरी को भरने में पूरे तीन महीने का समय लगता है. हम मरीज को बताते नहीं हैं, मरीज डर जाता है."

वो सही कह रहे थे, मैं डर रही थी.

मुस्करा कर मैंने अपने सिर को छुआ. एक अच्छा डॉक्टर होने के नाते वो समझ गए. सिर में जहां टांके लगे थे वहां से बालों का गुच्छा गायब था. मेरे सिर में फिर से बाल लाने के लिए उन्होंने दवाई लिख दी.

सिर में होने वाली थोड़ी सनसनी या तेज चुभन वाले दर्द को डॉ सचदेवा ने नजरअंदाज करने की सलाह दी. चुभन वाले दर्द मेरी नसों के वापस जुड़ने का संकेत हैं. सिर में होने वाली सनसनी शायद दूसरे ऑपरेशन के बाद ठीक हो जाएगी.

मेरे घर पड़ोसियों के आने का सिलसिला शुरु हो गया. वो मेरे बुढ़े माता-पिता से हमले के बारे में बताने के लिए कहते. मैंने "उत्तेजक कपड़े" नहीं पहने थे, मैंने "उत्तेजक" व्यवहार नहीं किया था, और "उत्तेजक समय" पर मैं पार्क में नहीं गई थी. लेकिन कुछ भी मायने नहीं रखता. मुझे फिर से सबकुछ रीसेट करना था.

उदार मित्रों को दूसरे तरह की चिंताएं थीं- "क्या पुलिस ने सही आदमी को पकड़ा था? हम उनपर भरोसा कर सकते हैं? क्या अभियुक्त वास्तव में दोषी था? आखिर उसने मुझपर हमला क्यों किया?"

लेकिन इस दुर्घटना के बाद मेरे पास कुछ यादगार पल थे: एक महिला पायलट का साथ. वो खूब तेज-तर्रार और मजेदार है लड़की है. मुंबई की एक दोस्त जिसने अपनी शादी की तैयारियों के बीच मुझसे मिलने का समय निकाला और मुझे एक किताब गिफ्ट किया. चेन्नई से एक व्यक्ति जिसने मेरी देखभाल की क्योंकि हम दोनों ने हमेशा ही एक-दूसरे का ख्याल रखा था. हम दोनों ने राजनीति पर चर्चा करते हुए घंटो बिताए. मेरी दो पुरानी दोस्त जिन्हें मैं बहुत प्यार करती हूं. एक पूर्व सहयोगी के साथ चलना जिसकी उपस्थिति ने मेरे बचने को सार्थक बना दिया.***बादलों की छांव में

तिहाड़ जेल में एक लाइन अप में मैंने आरोपी की पहचान की थी. उस लाइन दस लोग एक जैसे ही कपड़े पहने खड़े थे.

मौके पर मौजूद जज ने मुझसे कहा- "थोड़ा और करीब आ जाओ. डरो मत." हालांकि उन्होंने मुझे घंटों इंतजार करवाया. अपनी टोपी हटाते हुए मैंने उनसे पूछा- "क्या आप जानते हैं कि उसने मेरे साथ क्या किया है?"

जब मैं कागजी कार्रवाई पूरा होने का इंतजार कर रही थी तब मेरे दिमाग में ये बात कौंधी कि: वो जेल में था, लेकिन मैं भी जेल में ही थी. घर से मुझे कब निकलना है, कितने बजे तक मुझे घर में वापस आना है, मैं किसके साथ बाहर गई, इन सारी बंदिशों को तोड़ने के लिए और अपने सम्मान को बचाकर रखते हुए अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने के लिए मैंने कड़ी मेहनत की.

लेकिन आज मैं फिर वहीं थी. उन्हीं बेड़ियों से घिरी हुई.

अभियुक्त और पीड़ित दोनों हमेशा के लिए जुड़ गए थे. दोनों ही जेल में थे.

10 जुलाई को उसे अपनी आजादी हासिल मिल गई लेकिन मैं कभी भी अपनी आजादी वापस नहीं पा सकूंगी. कभी कभी मेरे दायरों को मेडिकल साइंस द्वारा निर्धारित किए जाते थे. डॉ सचदेव अभी भी अपने मरीज को ड्राइव करने की इजाजत नहीं देते हैं और रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी के होने तक मेट्रो में सफर करना भी मना है.

कभी-कभी मुझे 8 बजे भी डर लगने लगता था. मैं कीर्ति नगर में रिपोर्टिंग कर रही थी और 8 बजे चुके थे. अंधेरा हो गया था, मैं डर गई थी.

मार्केट जाकर मैंने कुछ सीमाएं तोड़ने की कोशिश जरुर की लेकिन फेल हो गई.

पत्रकार हिंदोल सेनगुप्ता ने मुझे लोदी गार्डन दिखाते हुए कहा, "इस पार्क में कोई भी तुम पर हमला नहीं करेगा. यह एक ऐसा पार्क है जहां जयराम रमेश वॉक करने के लिए आते हैं." लोदी गार्डन मेरे घर से एक घंटे की दूरी पर है.

मुझे उम्रकैद मिली***मेरी बहन ने कहा "इस हमले का कुछ हिस्सा हमेशा आपके साथ रहेगा बेहतर है कि आप इसे स्वीकार कर लें."

"और आपको मजबूत होना होगा."

मजबूत सिर्फ इस दुर्घटना की कड़वी यादों का सामना करने, मेडिकल भाग-दौड़ और भावनात्मक रूप से खुद को संभाले रखने के लिए ही नहीं, बल्कि हमारे देश के न्याय व्यवस्था से निपटने के लिए भी होना पड़ेगा. हमारी न्याय व्यवस्था पीड़ितों को ही दबाती है. मैं माइक्रोस्कोप के नीचे हूं, जिसे बार-बार बयान देने होंगे और प्रमाण-पत्र देना होगा. उस आरोपी ने ऐसा क्यों किया और क्या वो फिर से ऐसा कर सकता ये जानने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं है.

मैंने देखा कि पुलिस वालों की संख्या काफी कम है. थाना अपनी जरुरत की आधी शक्ति के साथ काम करती है. दिल्ली की तीन-चौथाई पुलिस वीआईपी लोगों की सुरक्षा में लगा दी गई है. और इस पर हमारे न्यायलयों के स्पीडी ट्रायल में कमी सोने पर सुहागा सरीखा काम करती है.

मेरा बयान लेने वाले जज ने मुझसे सवाल किया- "आप ऐसा क्यों सोचती हैं कि उसने आप पर हमला किया? क्या आप उसका नाम जानती हैं?"

जांच अधिकारी ने मुझे बताया कि- "जमानत उसका अधिकार है."

मैं अब अपने अधिकारों के बारे में नहीं सोचती. मेरे अधिकार वैसे भी मायने नहीं रखते. पब्लिक प्लेस पर चलने का अधिकार, बाहर जाने का अधिकार, बिना डर के जीने का अधिकार. बिना दर्द के जीने का अधिकार. काम करने का अधिकार. मेरी प्राइवेसी का अधिकार. प्राइवेसी के अधिकार को ही सबसे ज्यादा धक्का लगा है. मेरा नाम, उम्र, जगह, फोन नंबर सब वहां लिखे हुए हैं.

ओह, और क्या मैंने आपको बताया कि सोमवार को आरोपी को जमानत मिल गई? बता दिया!

अगर ये शहर असुरक्षित है तो सभी महिलाओं के लिए असुरक्षित है. ये अकेले मेरी लड़ाई क्यों होनी चाहिए?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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