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अनुपम खेर की गालियों पर तालियां चाहिए या बहस?

    • आईचौक
    • Updated: 26 जनवरी, 2016 06:31 PM
  • 26 जनवरी, 2016 06:31 PM
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जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अनुपम खेर ने कहा क्या आप घर में 'बकचोद' जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जब आप इन शब्दों का इस्तेमाल घर में नहीं कर सकते तो फिर आप देश के लोगों के लिए कैसे कर सकते हैं. वहां तो उनके भाषण पर तालियां बजीं, लेकिन क्‍या इस पर बहस की गुंजाइश नहीं है.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आखिरी दिन था और साहित्य के मंच पर फ्रीडम ऑफ स्पीच की वो झलक देखने को मिली जो इस फ्रीडम के ऊपर एक सवालिया निशान लगा सकती है.

अनुपम खेर कहते हैं 'अभिव्यक्ति की आजादी के साथ आती है सेंस ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी जिसका होना बहुत जरूरी है. और ये जिम्मेदारी देश के हर नागरिक की होती है. क्या आप घर में 'बकचोद' जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जब आप इन शब्दों का इस्तेमाल घर में नहीं कर सकते तो फिर आप देश के लोगों के लिए कैसे कर सकते हैं. आप अपने घर में अपने पिता से अपशब्द नहीं बोल सकते लेकिन प्रधानमंत्री को गाली दे सकते हैं. जितनी फ्रीडम ऑफ स्पीच भारत में है उतनी किसी मुल्क में नहीं है.' 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्होंने जितनी स्वतंत्रता ले ली उस पर लोगों ने तालियां और सीटियां तो बजाईं, लेकिन एक साहित्यिक मंच पर अपने मुंह से गालियां निकालना (उदाहरण के तौर पर ही सही) क्या स्वतंत्रता का फायदा उठाना नहीं है?

हालांकि इस बात पर एक अच्छी खासी बहस गरमा गई. जब दिल्ली के पर्यटन मंत्री कपिल मिश्रा ने अनुपम खेर की इन्हीं बातों का जवाब अपने अंदाज में दिया. बाद आयोजकों को ही कहना पड़ा कि ये राजनैतिक अखाड़ा नहीं साहित्य का मंच है.

एक ओर फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर अनुपम खेर मंच पर अपशब्द भी बडे़ फक्र से बोल रहे हैं, वहीं करण जौहर इसी फेस्टीवल में बोल चुके हैं कि "आप मन की बात कहना चाहते हैं या अपनी निजी जिंदगी के राज खोलना चाहते हैं, तो भारत सबसे मुश्किल देश है. 14 साल पहले मैंने नेशनल एंथम के अपमान का केस झेला है. अपना पर्सनल ओपिनियन रखना और डेमोक्रेसी की बात करना, ये दोनों ही मजाक हैं. हम फ्रीडम ऑफ़ स्पीच की बात करते हैं पर अगर मैं एक सेलिब्रिटी होने के नाते अपनी राय रख भी दूं तो एक बड़ी कॉन्ट्रोवर्सी बन जाती है.'

बहरहाल स्पीच में कितनी फ्रीडम लेनी चाहिए इस पर बहस भी अनंत हैं. आपका क्‍या कहना है?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आखिरी दिन था और साहित्य के मंच पर फ्रीडम ऑफ स्पीच की वो झलक देखने को मिली जो इस फ्रीडम के ऊपर एक सवालिया निशान लगा सकती है.

अनुपम खेर कहते हैं 'अभिव्यक्ति की आजादी के साथ आती है सेंस ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी जिसका होना बहुत जरूरी है. और ये जिम्मेदारी देश के हर नागरिक की होती है. क्या आप घर में 'बकचोद' जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जब आप इन शब्दों का इस्तेमाल घर में नहीं कर सकते तो फिर आप देश के लोगों के लिए कैसे कर सकते हैं. आप अपने घर में अपने पिता से अपशब्द नहीं बोल सकते लेकिन प्रधानमंत्री को गाली दे सकते हैं. जितनी फ्रीडम ऑफ स्पीच भारत में है उतनी किसी मुल्क में नहीं है.' 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्होंने जितनी स्वतंत्रता ले ली उस पर लोगों ने तालियां और सीटियां तो बजाईं, लेकिन एक साहित्यिक मंच पर अपने मुंह से गालियां निकालना (उदाहरण के तौर पर ही सही) क्या स्वतंत्रता का फायदा उठाना नहीं है?

हालांकि इस बात पर एक अच्छी खासी बहस गरमा गई. जब दिल्ली के पर्यटन मंत्री कपिल मिश्रा ने अनुपम खेर की इन्हीं बातों का जवाब अपने अंदाज में दिया. बाद आयोजकों को ही कहना पड़ा कि ये राजनैतिक अखाड़ा नहीं साहित्य का मंच है.

एक ओर फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर अनुपम खेर मंच पर अपशब्द भी बडे़ फक्र से बोल रहे हैं, वहीं करण जौहर इसी फेस्टीवल में बोल चुके हैं कि "आप मन की बात कहना चाहते हैं या अपनी निजी जिंदगी के राज खोलना चाहते हैं, तो भारत सबसे मुश्किल देश है. 14 साल पहले मैंने नेशनल एंथम के अपमान का केस झेला है. अपना पर्सनल ओपिनियन रखना और डेमोक्रेसी की बात करना, ये दोनों ही मजाक हैं. हम फ्रीडम ऑफ़ स्पीच की बात करते हैं पर अगर मैं एक सेलिब्रिटी होने के नाते अपनी राय रख भी दूं तो एक बड़ी कॉन्ट्रोवर्सी बन जाती है.'

बहरहाल स्पीच में कितनी फ्रीडम लेनी चाहिए इस पर बहस भी अनंत हैं. आपका क्‍या कहना है?


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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