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हुसैनी ब्राह्मण: वे हिंदू जो करबला युद्ध में इमाम हुसैन के साथ लड़े

    • ऑनलाइन एडिक्ट
    • Updated: 14 सितम्बर, 2018 07:46 PM
  • 14 सितम्बर, 2018 07:46 PM
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करबला का युद्ध सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि एक वर्ग के ब्राह्मणों के लिए भी बहुत मायने रखता है. बहुत ही कम लोग हैं जो ये जानते हैं कि दक्षिण एशिया, खासकर भारत में ऐसा समुदाय भी रहता है जिसका इमाम हुसैन की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान रहा है.

दाऊदी बोहरा समुदाय के मौजूदा सर्वोच्च धर्मगुरू सैय्यदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन इन दिनों इंदौर में हैं और मध्य प्रदेश सरकार सैय्यदना को राजकीय अतिथि घोषित कर चुकी है. इस दौरान मुहर्रम के मौके पर उनके प्रवचन के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वहां पहुंचे. बोहरा मुसलमानों को फ़ातिमी इमामों से जोड़कर देखा जाता है और कहा जाता है कि ये पैगंबर हजरत मोहम्मद के वंशज हैं. दाऊद और सुलेमान के अनुयायियों में बंटे होने के बावजूद बोहरा समुदाय के धार्मिक सिद्धांतों में खास सैद्धांतिक फर्क नहीं है.

बोहरा मुसलमान सूफियों और मज़ारों पर खास विश्वास रखते हैं. बोहरा मुसलमानों के लिए मुहर्रम और करबला की अहमियत भी बहुत है. करबला के युद्ध के समय बोहरा मुसलमान हर साल हुसैन इब्न अली (इमाम हुसैन), उनके परिवार और 72 अनुयायियों की करबला के युद्ध में हुई मौत का मातम मनाते हैं.

करबला का युद्ध सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि एक वर्ग के ब्राह्मणों के लिए भी बहुत मायने रखता है. बहुत ही कम लोग हैं जो ये जानते हैं कि दक्षिण एशिया, खासकर भारत में एक ऐसा समुदाय भी रहता है जिसका इमाम हुसैन की लड़ाई से जुड़ाव रहा है. ये समुदाय है 'हुसैनी ब्राह्मण'. ये वो समुदाय है जिसने हुसैन इब्न अली यानी इमाम हुसैन की करबला की लड़ाई में सहायता की थी.

कौन हैं हुसैनी ब्राह्मण..

हुसैनी ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के लोग हैं जो हिंदू और मुसलमान दोनों से संबंध रखते हैं. मौजूदा समय में हुसैनी ब्राह्मण सिंध, पंजाब, पाकिस्तान, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली और अरब और भारत के अन्य हिस्सों में रहते हैं. हिस्ट्री ऑफ मुहियाल्स (History of muhiyals) नाम की किताब के अनुसार कर्बला के युद्ध के समय 1400 ब्राह्मण उस समय बगदाद में रहते थे. जब करबला का युद्ध हुआ तो इन लोगों ने याजिद (Yazid) के खिलाफ युद्ध में इमाम हुसैन का साथ दिया था. करीब 125 हुसैनी ब्राह्मणों का परिवार पुणे में रहता है, कुछ दिल्ली में रहते हैं और ये हर साल मुहर्रम भी मनाते हैं.

दाऊदी बोहरा समुदाय के मौजूदा सर्वोच्च धर्मगुरू सैय्यदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन इन दिनों इंदौर में हैं और मध्य प्रदेश सरकार सैय्यदना को राजकीय अतिथि घोषित कर चुकी है. इस दौरान मुहर्रम के मौके पर उनके प्रवचन के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वहां पहुंचे. बोहरा मुसलमानों को फ़ातिमी इमामों से जोड़कर देखा जाता है और कहा जाता है कि ये पैगंबर हजरत मोहम्मद के वंशज हैं. दाऊद और सुलेमान के अनुयायियों में बंटे होने के बावजूद बोहरा समुदाय के धार्मिक सिद्धांतों में खास सैद्धांतिक फर्क नहीं है.

बोहरा मुसलमान सूफियों और मज़ारों पर खास विश्वास रखते हैं. बोहरा मुसलमानों के लिए मुहर्रम और करबला की अहमियत भी बहुत है. करबला के युद्ध के समय बोहरा मुसलमान हर साल हुसैन इब्न अली (इमाम हुसैन), उनके परिवार और 72 अनुयायियों की करबला के युद्ध में हुई मौत का मातम मनाते हैं.

करबला का युद्ध सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि एक वर्ग के ब्राह्मणों के लिए भी बहुत मायने रखता है. बहुत ही कम लोग हैं जो ये जानते हैं कि दक्षिण एशिया, खासकर भारत में एक ऐसा समुदाय भी रहता है जिसका इमाम हुसैन की लड़ाई से जुड़ाव रहा है. ये समुदाय है 'हुसैनी ब्राह्मण'. ये वो समुदाय है जिसने हुसैन इब्न अली यानी इमाम हुसैन की करबला की लड़ाई में सहायता की थी.

कौन हैं हुसैनी ब्राह्मण..

हुसैनी ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के लोग हैं जो हिंदू और मुसलमान दोनों से संबंध रखते हैं. मौजूदा समय में हुसैनी ब्राह्मण सिंध, पंजाब, पाकिस्तान, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली और अरब और भारत के अन्य हिस्सों में रहते हैं. हिस्ट्री ऑफ मुहियाल्स (History of muhiyals) नाम की किताब के अनुसार कर्बला के युद्ध के समय 1400 ब्राह्मण उस समय बगदाद में रहते थे. जब करबला का युद्ध हुआ तो इन लोगों ने याजिद (Yazid) के खिलाफ युद्ध में इमाम हुसैन का साथ दिया था. करीब 125 हुसैनी ब्राह्मणों का परिवार पुणे में रहता है, कुछ दिल्ली में रहते हैं और ये हर साल मुहर्रम भी मनाते हैं.

हुसैनी ब्राह्मणों का इतिहास करबला के युद्ध से भी पहले का है

दत्त के 7 बेटे..

एक मान्यता के अनुसार राहब सिध दत्त के कोई संतान नहीं थी और वो हुसैन इब्न अली के पास गया. उसने कहा कि उसे संतान चाहिए. इमाम हुसैन ने जवाब दिया कि वो ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि उसकी किस्मत में संतान नहीं है. ऐसा सुनकर दत्त काफी दुखी हुआ और रोने लगा. उसका दुख देखकर हुसैन ने उसे एक बेटा होने का वरदान दिया. ऐसा होते देख किसी ने हुसैन को कहा कि वो अल्लाह की मर्जी के खिलाफ जा रहे हैं. ऐसा सुनने पर हुसैन ने फिर कहा कि दत्त को एक और बेटा होगा. ऐसा करते-करते हुसैन दत्त को 7 बेटों का वरदान दे चुके थे. कहा जाता है कि इमाम, उनके परिवार, 72 अनुयायियों के साथ दत्त के 7 बेटे भी इस युद्ध में शहीद हो गए थे.

मान्यता है कि जिस जगह दत्त रहते थे उसे दायर-अल-हिंडिया कहा जाता था यानी भारतीय क्वार्टर. मौजूदा समय में ये ईराक की अल-हिंडिया डिस्ट्रिक्ट कहलाती है. दत्त समाज की लोककथाओं में ये बहुत अहम समय रहा है.

कुछ मान्यताओं के अनुसार ये भी एक कारण था कि ये ब्राह्मण कर्बला की लड़ाई में हुसैन के साथ लड़े थे. और यही कारण है कि उन्हें हुसैनी ब्राह्मण कहा जाता है.

वैसे तो बंटवारे के पहले वाले भारत में हुसैनी ब्राह्मण लाहौर में रहते थे, लेकिन अब उनका एक अहम गढ़ माना जाता है पुष्कर को. अजमेर की दरगाह में जहां मोइनुद्दीन चिश्‍ती ने अपनी आखिरी सांसे ली थीं वहां अब भी कई लोग मिल जाएंगे जो खुद को हुसैनी ब्राह्मण कहेंगे. ये ब्राह्मण न ही पूरी तरह से हिंदू हैं न ही पूरी तरह से मुस्लिम. वो मिली जुली मान्यताओं पर भरोसा करते हैं. 'दत्त' ऐसे ही हुसैनी ब्राह्मणों में से एक हैं. 

एक और मान्यता भी..

कहा जाता है कि हुसैनी ब्राह्मणों को इमाम हुसैन से मोहब्बद थी. इतनी मोहब्बत कि जब उन्हें इमाम की शहादत के बारे में पता चला तो अमीर मुख्तार के साथ मिलकर हुसैनी ब्राह्मणों ने हुसैन का बदला लिया था. राहिब सिध दत्त पैगंबर का अहसान नहीं भूले थे और इसलिए जब उन्हें पता चला कि याजिद की फौज इमाम का सिर काटकर कूफा शहर ले जा रही है तो अपने जत्थे के साथ वो गए और लड़ाई में इमाम हुसैन का सिर ले आए.

हुसैनी ब्राह्मणों के लिए इमाम हुसैन बहुत जरूरी थे.

(दरअसल, ये लोग करबला की लड़ाई में भी गए थे, लेकिन इमाम ने इन्हें वापस भेज दिया था क्योंकि वो काफिले को दस्ते में बदलना नहीं चाहते थे.) इमाम का सिर लेने जब यजीदी फौज वापस आई तो दत्त ने अपने एक बेटे का सिर काटकर दे दिया. फौज चिल्लाई कि ये इमाम का सिर नहीं है और इमाम का सिर बचाने के लिए दत्त ने एक-एक कर अपने सभी बेटों का सिर काटकर दे दिया. हालांकि, ये कुर्बानी काम न आई और बाद में दत्त ब्राह्मणों को अमीर मुख्तार का साथ लेकर इमाम हुसैन का बदला लेना पड़ा.

महाभारत से जुड़ा है हुसैनी ब्राह्मणों का इतिहास..

हुसैनी ब्राह्मणों का कुछ इतिहास महाभारत काल से भी जुड़ा है. कौरवों और पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य दरअसल, दत्त ब्राह्मण थे. महाभारत के युद्ध के समय उनका बेटा अश्वत्थामा घायल होकर भूमि पर गिर पड़ा और उसे लोगों ने मरा हुआ समझ लिया. अश्वत्थामा तब शरण लेते हुए ईराक पहुंच गए और वहीं बस गए. महाभारत काल के बचे हुए योद्धाओं में से अश्वत्थामा भी एक थे. उन्हीं के वंशज माने जाते हैं हुसैनी ब्राह्मण.

दत्त या मोहियाल ब्राह्मणों के इतिहास में लिखा है कि ये पुराने जमाने में ब्राह्मण दान लेकर अपनी आजीविका चलाते थे. इस दौरान कुछ लोगों को ये अच्छा नहीं लगा तो वो सैनिक बन गए. इन्हीं को मोहियाल कहा गया. मोहि यानी जमीन और आल यानी मालिक. ये लोग योद्धा थे और अपनी जमीन के मालिक. इतिहास में इस तरह हुसैनी ब्राह्मणों के कई किस्‍से और किरदार दर्ज हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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