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न्यायपालिका कोशिश करे उसका निष्पक्ष न्याय, निष्पक्ष दिखाई भी दे!

    • Akash Singh
    • Updated: 13 फरवरी, 2023 09:20 PM
  • 13 फरवरी, 2023 09:20 PM
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न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद संवैधानिक पद पर बैठाने की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सर्वोच्च न्यायालय से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए न्यायाधीश अब्दुल नजीर को अब आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है.

सर्वोच्च न्यायालय से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए जस्टिस अब्दुल नजीर को आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है, इसी के साथ एक बार फिर विपछ द्वारा न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं, गौरतलब है कि जस्टिस नजीर ने अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ दिनों पूर्व मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को सही ठहराया था, इसके अलावा ये राम मंदिर के पक्ष में फैसला देने वाले जजों में से एक थे, इसी तरह से पूर्व सीजेआई गोगोई ने भी कश्मीर से धारा 370 को हटाने, राम मंदिर निर्माण, तीन तलाक जैसे अनेकों भारत के बड़े और महत्वपूर्ण विवादित मामलों का निस्तारण किया था और सेवानिवृत्ति के ठीक बाद उन्हें राज्यसभा के लिए नामित किया गया था, जिसके बाद विपक्षी दलों ने जमकर हंगामा खड़ा किया था.

हाल ही में सेवानिवृत्त हुए जस्टिस अब्दुल नजीर को आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है

इस बार भी कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने इसे लेकर सवाल उठाया है, राशिद अल्वी ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा, ''जजों को सरकारी जॉब देना, सरकारी पोस्ट देना, दुर्भाग्यपूर्ण है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के 50 फीसदी रिटायर्ड जजों को सरकार कहीं न कहीं भेज देती है, जिससे लोगों दिया, रामजन्मभूमि- का यकीन ज्यूडिशियरी पर कम होता चला जाता है. जस्टिस गोगोई को अभी तो राज्यसभा दी थी, अब जस्टिस नजीर को आपने गवर्नर बनाबाबरी मस्जिद के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बहुत लोग सवालिया निशान लगाते चले आ रहे हैं, जस्टिस गोगोई के बनने के बाद, जस्टिस नजीर को गवर्नर बनाना, उन लोगों के शक और शुब्हे को और मजबूत करता है.''

फिलहाल हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व की सरकारों में भी न्यायाधीशों को राज्यपाल नियुक्त किया गया है, 1997 में पूर्व जस्टिस फातिमा बीवी...

सर्वोच्च न्यायालय से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए जस्टिस अब्दुल नजीर को आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है, इसी के साथ एक बार फिर विपछ द्वारा न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं, गौरतलब है कि जस्टिस नजीर ने अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ दिनों पूर्व मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को सही ठहराया था, इसके अलावा ये राम मंदिर के पक्ष में फैसला देने वाले जजों में से एक थे, इसी तरह से पूर्व सीजेआई गोगोई ने भी कश्मीर से धारा 370 को हटाने, राम मंदिर निर्माण, तीन तलाक जैसे अनेकों भारत के बड़े और महत्वपूर्ण विवादित मामलों का निस्तारण किया था और सेवानिवृत्ति के ठीक बाद उन्हें राज्यसभा के लिए नामित किया गया था, जिसके बाद विपक्षी दलों ने जमकर हंगामा खड़ा किया था.

हाल ही में सेवानिवृत्त हुए जस्टिस अब्दुल नजीर को आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है

इस बार भी कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने इसे लेकर सवाल उठाया है, राशिद अल्वी ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा, ''जजों को सरकारी जॉब देना, सरकारी पोस्ट देना, दुर्भाग्यपूर्ण है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के 50 फीसदी रिटायर्ड जजों को सरकार कहीं न कहीं भेज देती है, जिससे लोगों दिया, रामजन्मभूमि- का यकीन ज्यूडिशियरी पर कम होता चला जाता है. जस्टिस गोगोई को अभी तो राज्यसभा दी थी, अब जस्टिस नजीर को आपने गवर्नर बनाबाबरी मस्जिद के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बहुत लोग सवालिया निशान लगाते चले आ रहे हैं, जस्टिस गोगोई के बनने के बाद, जस्टिस नजीर को गवर्नर बनाना, उन लोगों के शक और शुब्हे को और मजबूत करता है.''

फिलहाल हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व की सरकारों में भी न्यायाधीशों को राज्यपाल नियुक्त किया गया है, 1997 में पूर्व जस्टिस फातिमा बीवी तमिलनाडु की राज्यपाल बनाई गई थीं, कुछ इसी प्रकार भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद तत्कालीन सरकारों के द्वारा पुरस्कृत किए जा चुके हैं.

गौरतलब है कि देश के 11वें सीजीआई मोहम्मद हिदायतुल्ला भी कभी कांग्रेस के समर्थन से भारत के उपराष्ट्रपति पद के लिए चुने गए थे, इसके अतिरिक्त देश के 21 वें मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र को कांग्रेस ने अपनी पार्टी के टिकट से राज्यसभा के लिए नामित किया था, लेकिन आज विपक्ष में बैठी वही कांग्रेस अपने अतीत को ना देखकर न्यायपालिका की निष्पक्षता पर उंगली उठा रही है.

वैसे किसी भी न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद किसी राजनीतिक दल से जुड़ने से बचना चाहिए जिससे उनका निष्पक्ष न्याय, निष्पक्ष दिखाई भी पड़े क्योंकि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का किसी राजनीतिक दल से जुड़ना और उस दल की कृपा से संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनना अथवा सेवानिवृत्ति के बाद सरकार द्वारा तत्काल कोई अन्य लाभ के पद पर बैठाने की परंपरा के कारण शीर्ष पद पर रहने के दौरान जो फ़ैसले उन्होंने निष्पक्ष रूप से दिए थे, वो भी संदेह के घेरे में आ जाते हैं साथ ही इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह लगते हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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