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आधार : समस्या प्राइवेसी की नहीं, पहचान की है...

    • प्रवीण झा
    • Updated: 05 अगस्त, 2017 05:18 PM
  • 05 अगस्त, 2017 05:18 PM
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आप भाजपा-समर्थक हैं तब तो चुपचाप मान ही रहे होंगें. और गर कांग्रेसी हैं तो मानिए कि मनमोहन जी का सपना साकार हो रहा है. और गर किसी से कुछ लेना-देना नहीं, तो बेकारे न दिमाग लगा रहे हैं.

आधार से समस्या क्या है? मुझे साफ-साफ कोई समझाएगा? आज हर छोटे-बड़े देश में है. पाकिस्तान तक में है. भारत का केस अलग क्यों?

एक कारण हो सकता है कि भाजपा-विरोधी आधार का विरोध कर रहे हों. पर आईडिया और शुरूआत तो मनमोहन जी ने की थी. तो ये तर्क भी ठीक नहीं.

दूसरा तर्क लोग दे रहे हैं कि प्राईवेसी चली जाएगी. प्राईवेसी? किसकी प्राईवेसी? आप किस समाज की बात कर रहे हैं? भारत की कितनी प्रतिशत जनता बंद कमरों में प्राइवेट लाइफ जीती है? क्या सचमुच यह समस्या कि लोगों को पता लग जाएगा कि मैं ही हूं प्रवीण झा? प्राइवेसी समस्या है ही नहीं, आइडेंटीटी समस्या है.

आधार अपकी पहचान का आधार है

इसका प्रूफ क्या है कि मैं ही हूं असल प्रवीण झा. मेरे पास पासपोर्ट है. मेरे पास पासपोर्ट इसलिए है क्योंकि मेरे पास मैट्रिक का सर्टिफिकेट था, ऐड्रेस प्रूफ था. मेरे पास ऐड्रेस प्रूफ इसलिए था क्योंकि मेरा बैंक में खाता था. जिसके पास ये सब नहीं है, उसको कैसे पहचानिएगा? और ऐसे कितने लोग होंगें?

ये तो साधारण तर्क है कि मैं उसका नाम पूछूंगा, फोटो लूंगा, ऊंगली का निशान लूंगा, पता लिखूंगा, और पक्का हो जाएगा कि वो वही है. तो आधार और क्या है? अब आप अड़ जाएंगें कि, ये न लिंक हो, वो न लिंक हो. क्यों न लिंक हो? आपकी पहचान ही तो लिंक हो रही है, जो प्रूफ करती है कि आप वही हैं, और कोई नहीं. आप जिए तो प्रवीण झा, मरे तो प्रवीण झा, और वही यूनीक प्रवीण झा. कोई और नहीं.

देखिए, आप भाजपा-समर्थक हैं तब तो चुपचाप मान ही रहे होंगें. और गर कांग्रेसी हैं तो मानिए कि मनमोहन जी का सपना साकार हो रहा है. और गर किसी से कुछ लेना-देना नहीं, तो बेकारे न दिमाग लगा रहे हैं. पूरे दुनिया में यही सिस्टम है, और मस्त चल रहा है. अमरीका में भी एक ही नंबर था, नॉर्वे में भी एक ही नंबर है, भारत...

आधार से समस्या क्या है? मुझे साफ-साफ कोई समझाएगा? आज हर छोटे-बड़े देश में है. पाकिस्तान तक में है. भारत का केस अलग क्यों?

एक कारण हो सकता है कि भाजपा-विरोधी आधार का विरोध कर रहे हों. पर आईडिया और शुरूआत तो मनमोहन जी ने की थी. तो ये तर्क भी ठीक नहीं.

दूसरा तर्क लोग दे रहे हैं कि प्राईवेसी चली जाएगी. प्राईवेसी? किसकी प्राईवेसी? आप किस समाज की बात कर रहे हैं? भारत की कितनी प्रतिशत जनता बंद कमरों में प्राइवेट लाइफ जीती है? क्या सचमुच यह समस्या कि लोगों को पता लग जाएगा कि मैं ही हूं प्रवीण झा? प्राइवेसी समस्या है ही नहीं, आइडेंटीटी समस्या है.

आधार अपकी पहचान का आधार है

इसका प्रूफ क्या है कि मैं ही हूं असल प्रवीण झा. मेरे पास पासपोर्ट है. मेरे पास पासपोर्ट इसलिए है क्योंकि मेरे पास मैट्रिक का सर्टिफिकेट था, ऐड्रेस प्रूफ था. मेरे पास ऐड्रेस प्रूफ इसलिए था क्योंकि मेरा बैंक में खाता था. जिसके पास ये सब नहीं है, उसको कैसे पहचानिएगा? और ऐसे कितने लोग होंगें?

ये तो साधारण तर्क है कि मैं उसका नाम पूछूंगा, फोटो लूंगा, ऊंगली का निशान लूंगा, पता लिखूंगा, और पक्का हो जाएगा कि वो वही है. तो आधार और क्या है? अब आप अड़ जाएंगें कि, ये न लिंक हो, वो न लिंक हो. क्यों न लिंक हो? आपकी पहचान ही तो लिंक हो रही है, जो प्रूफ करती है कि आप वही हैं, और कोई नहीं. आप जिए तो प्रवीण झा, मरे तो प्रवीण झा, और वही यूनीक प्रवीण झा. कोई और नहीं.

देखिए, आप भाजपा-समर्थक हैं तब तो चुपचाप मान ही रहे होंगें. और गर कांग्रेसी हैं तो मानिए कि मनमोहन जी का सपना साकार हो रहा है. और गर किसी से कुछ लेना-देना नहीं, तो बेकारे न दिमाग लगा रहे हैं. पूरे दुनिया में यही सिस्टम है, और मस्त चल रहा है. अमरीका में भी एक ही नंबर था, नॉर्वे में भी एक ही नंबर है, भारत में भी एक ही होगा. पचास नंबर लेके क्या करिएगा?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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