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हम मदद करने के लिए किसी के लुटकर भिखारी होने का इंतजार क्‍यों करते हैं?

    • गिरिजेश वशिष्ठ
    • Updated: 24 दिसम्बर, 2018 02:03 PM
  • 24 दिसम्बर, 2018 02:00 PM
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जब भी हम लालबत्ती पर रुकते हैं कोई बूढ़ा और विकलांग भीख मांगता नजर आता है. कभी सरकार गेहूं चावल सस्ते करती है तो कभी किसानों के कर्ज माफ कर देती है लेकिन क्या ये सब समाधान है?

एक जेबकतरे ने रेल्वे स्टेशन पर एक शख्स का सामान छीन लिया. पैसे रुपये सब छीन लिए. लोग तमाशा देखते रहे. जब जेब कतरा चला गया तो लोग उसे कुछ रकम देने लगे ताकि वो अपने घर सुरक्षित पहुंच सके. मुसाफिर ने पूछा- 'भाई जब मैं लुट रहा था तो आप क्यों आगे नहीं आए, अब सहायता दे रहे हो.' ये हमारा देश है. आगे हम इस किस्से को बारीकी से समझेंगे.

हाल में हमारी हाऊसिंग सोसायटी में एक गार्ड की सालों लंबी बीमारी के बाद मौत हो गई. चूंकि लंबे समय से बीमार था तो लोगों को अंदाज़ा नहीं हुआ कि बीमारी बढ़ गई होगी. दो तीन दिन से छुट्टी पर चल रहा था और अचानक ये बुरी खबर मिली. कोई कुछ करने की हालत में ही नहीं था. हालांकि सभी ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार चंदा दिया और उम्मीद है कि एक लाख रुपये के आसपास उसे देने में हम सभी सफल हो जाएंगे. ये हम भारतीयों का जज्बा है मुसीबत में हम साथ होते हैं, जात धर्म ऊंच नीच को छोड़कर. लेकिन क्या ये इस समस्या का स्थायी समाधान है?

जब हम चंदा इकट्ठा करने घर घर जा रहे थे तो एक सज्जन अपने घर से पुरानी रजाइयां लेकर निकल रहे थे. वो चाहते थे किसी को ठंड में मदद कर दें. ये भी हमारी करुणा से निकली सहानुभूति है जिससे हम लोगों के काम आते हैं. लेकिन क्या ये भी समाधान है?

ठंड में लोगों को पुराने कपड़े दान देने से समस्या अस्थाई रूप से हल होती है

आज सुबह एक सज्जन ने फेसबुक पर पोस्ट डाली. वो चाहते हैं कि लोगों को सिर्फ पांच रुपये में इलाज दिया जा सके. इस विचार पर वो काम कर रहे हैं और चाहते हैं कि ऐसी व्यवस्था को मूर्तरूप दे सकें जिसमें सभी को सस्ता इलाज मिल सके. दिल्ली में सरकार भी मोहल्ला क्लीनिक चलाती है. लोगों को मुफ्त इलाज देती है. लेकिन क्या ये स्थायी समाधान है? आगे हम समाधान जानने की कोशिश करेंगे.

इसी तरह जब भी हम लालबत्ती पर...

एक जेबकतरे ने रेल्वे स्टेशन पर एक शख्स का सामान छीन लिया. पैसे रुपये सब छीन लिए. लोग तमाशा देखते रहे. जब जेब कतरा चला गया तो लोग उसे कुछ रकम देने लगे ताकि वो अपने घर सुरक्षित पहुंच सके. मुसाफिर ने पूछा- 'भाई जब मैं लुट रहा था तो आप क्यों आगे नहीं आए, अब सहायता दे रहे हो.' ये हमारा देश है. आगे हम इस किस्से को बारीकी से समझेंगे.

हाल में हमारी हाऊसिंग सोसायटी में एक गार्ड की सालों लंबी बीमारी के बाद मौत हो गई. चूंकि लंबे समय से बीमार था तो लोगों को अंदाज़ा नहीं हुआ कि बीमारी बढ़ गई होगी. दो तीन दिन से छुट्टी पर चल रहा था और अचानक ये बुरी खबर मिली. कोई कुछ करने की हालत में ही नहीं था. हालांकि सभी ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार चंदा दिया और उम्मीद है कि एक लाख रुपये के आसपास उसे देने में हम सभी सफल हो जाएंगे. ये हम भारतीयों का जज्बा है मुसीबत में हम साथ होते हैं, जात धर्म ऊंच नीच को छोड़कर. लेकिन क्या ये इस समस्या का स्थायी समाधान है?

जब हम चंदा इकट्ठा करने घर घर जा रहे थे तो एक सज्जन अपने घर से पुरानी रजाइयां लेकर निकल रहे थे. वो चाहते थे किसी को ठंड में मदद कर दें. ये भी हमारी करुणा से निकली सहानुभूति है जिससे हम लोगों के काम आते हैं. लेकिन क्या ये भी समाधान है?

ठंड में लोगों को पुराने कपड़े दान देने से समस्या अस्थाई रूप से हल होती है

आज सुबह एक सज्जन ने फेसबुक पर पोस्ट डाली. वो चाहते हैं कि लोगों को सिर्फ पांच रुपये में इलाज दिया जा सके. इस विचार पर वो काम कर रहे हैं और चाहते हैं कि ऐसी व्यवस्था को मूर्तरूप दे सकें जिसमें सभी को सस्ता इलाज मिल सके. दिल्ली में सरकार भी मोहल्ला क्लीनिक चलाती है. लोगों को मुफ्त इलाज देती है. लेकिन क्या ये स्थायी समाधान है? आगे हम समाधान जानने की कोशिश करेंगे.

इसी तरह जब भी हम लालबत्ती पर रुकते हैं कोई बूढ़ा और विकलांग भीख मांगता नजर आता है. कभी सरकार गेहूं चावल सस्ते करती है तो कभी किसानों के कर्ज माफ कर देती है लेकिन क्या ये सब समाधान है?

गरीब आदमी की ज़िंदगी में क्या सिर्फ रोटी, कपड़ा और इलाज की समस्या है. क्या बच्चों की पढ़ाई, अच्छी सेहत, मन का और संतुष्टि का इलाज अच्छे भविष्य के सपने, बच्चों के शादी ब्याह वगैरह मसले नहीं हैं. इसके अलावा भी खेलकूद मनोरंजन वगैरह उसके इंसान होने के नाते ज़रूरी नहीं हैं. लेकिन ये सारी ज़रूरतें क्या खैरात से ही पूरी होनी चाहिए. क्या बच्चों की ज़िंदगी हमारे दिए पुराने खिलौनों से खेलते कटनी चाहिए. क्या बच्चों को अच्छे और पसंद के खिलौने, पसंद के कपड़े और पसंद का खाना खाने का हक नहीं.

अफसोस की बात ये है कि ये उन्हें आसानी से मिल सकता है लेकिन हम सब जो खैरात बांट रहे हैं एनजीओ खोलते हैं उन्हें ये हक मिले इसके लिए काम नहीं करते.

समाधान

हर राज्य में हर काम के लिए मेहनताना तय है. जिला मसिस्ट्रेट और राज्य सरकारें न्यूनतम मज़दूरी तय करती हैं. 100 साल पहले कानून बन चुका है कि किसी से भी 8 घंटे से ज्यादा काम न लिया जाए. इसके बावजूद हम उन्हें ये हक दिलाने के लिए कुछ नहीं करते. किसान समर्थन मूल्य से नीचे पैदावार बेचने को मजबूर है. आढतिए उनका शोषण करते हैं लेकिन हम कुछ नहीं करते.

दिल्ली में हाल में सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी देने वाले मामले पर अभियान चलाया तो पता चला कि सांसद, मंत्रियों के स्कूल तक में लोगों को न्यूनतम मज़दूरी नहीं दी जा रही. दिल्ली के कई जाने माने अस्पतालों में गार्ड और नर्सिंग स्टाफ बारह घंटे की ड्यूटी करते हैं. जब डबल शिफ्ट लग जाती है तो वो 36 घंटे तक घर ही नहीं जा पाते.

अगर हम दस लोग किसी को राहत देने के लिए चंदा करने निकल सकते हैं तो कभी उनकी मांगों के लिए साथ क्यों नहीं हो सकते ताकि उन्हें इस चंदे की ज़रूरत ही न पड़े.

ऐसा क्यों न किया जाए कि वो किसी के मोहताज न रहें

आठ घंटे काम लेने पर रोक है तो हम देश के श्रम कानूनों को लागू न करने वाले लोगों से सवाल क्यों नहीं पूछ सकते? वहां काम करने वाले मज़दूर और कर्मचारियों के लिए ज्यादा घंटों तक काम लेने वालों के खिलाफ शिकायत करना हमें समाजसेवा क्यों नहीं लगती. किसी को नौकरी से बिना आधार के निकाल देने के बाद आपकी भुजाएं क्यों नहीं भड़कतीं?

दुर्भाग्य से करुणा और दया के सारे ज्ञान सभी धर्मों में इसीलिए दिए गए हैं. मार खाकर आए आदमी के इलाज का ज्ञान धर्म देता है लेकिन मारने वाले का हाथ तोड़ देने की शिक्षा किसी धर्म में नहीं है. धर्म ये तो सिखाता है कि धर्म रक्षा के लिए जेहाद करो, ये भी बताता है कि गुरुओं ने कैसे कुर्बानी दी. लेकिन ये नहीं बताता कि अन्याय करने वाले से संघर्ष कैसे करना है.

लेकिन जबतक आप सत्य के साथ खड़े नहीं होंगे, सरकार को उसकी संविधान और कानून में दी गई ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर नहीं करेंगे, तबतक परेशान रहेंगे. मदद करते रहेंगे और इस तरह की मदद की ज़रूरत भी बढ़ती चली जाएगी.

अफसोस इस बात का है कि सरकारें भी लगातार श्रम कानूनों को उद्योगपतियों और काम कराने वालों के पक्ष में नरम करती चली जा रही हैं. हाल ही में श्रम कानूनों में ऐसे संशोधन किए गए जिनसे नौकरी की सुरक्षा ही खत्म हो गई. पिछले पन्द्रह बीस सालों में नौकरी पर किसी का हक ही नहीं बचा था अब वो परी तरह खत्म हो गया है.

दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे काम करना लोग नेतागिरी की शैली में शामिल करते हैं. वो नहीं मानते कि ये सामाजिक कार्य है. यही वजह है कि हमने ये काम कुछ पार्टियों और कुछ संगठनों पर छोड़ दिया है. इसलिए जब किसी गरीब से लगातार इलाज, शिक्षा, भोजन बाकी अधिकार छिने जाते हैं तब चुप रहने के बाद, छिन जाने के बाद राहत देने के क्या फायदा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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