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मनोहर पर्रीकर से दर्द का रिश्‍ता!

    • आईचौक
    • Updated: 19 मार्च, 2019 07:05 PM
  • 19 मार्च, 2019 03:14 PM
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केंद्रीय मंत्री मनोहर पर्रीकर का लिखा एक लेख उनके निधन के बाद सोशल मीडिया पर खूब तेजी से वायरल हो रहा है. लेख पर्रीकर ने अपनी पत्नी को याद करते हुए लिखा था, जिसका एक-एक लफ्ज न सिर्फ भावुक कर देता है, बल्कि संघर्ष की ताकत भी देता है.

गोवा के मुख्यमंत्री और पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर ने अपनी निजी पीड़ा पर एक भावुक लेख एक मराठी पत्रिका में लिखा था, जिसका सुरेश चिपलूनकर ने अनुवाद किया है. एक राजनेता के जीवन में पर्दे के पीछे चलते हुए उसके जीवन के घटनाक्रमों और दुःख-दर्द में भीगी हुई कलम से लिखा हुआ यह लेख अदभुत है.

मनोहर पर्रिकर लिखते हैं -

राजभवन का वह हॉल कार्यकर्ताओं की भीड़ से ठसाठस भरा हुआ था. पहली बार गोवा में भाजपा की सरकार बनने जा रही थी. यह सोचकर सभी का उत्साह मन के बांध तोड़ने को आतुर था. मेरे निकट के मित्र, गोवा के भिन्न-भिन्न भागों से आए हुए असंख्य कार्यकर्ता इस शपथविधि समारोह के कार्यक्रम में दिखाई दे रहे थे. इन सभी की वहां उपस्थिति का कारण एक ही था, मुझे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए देखना. मैंने जिनके साथ राजनीति में प्रवेश किया ऐसे मेरे सहकारी, मेरे हितैषी, पार्टी के कार्यकर्ताओं की इस भारी भीड़ में मुझे मेरे दोनों बेटे, भाई-बहन सभी लोग दिखाई दे रहे थे. परन्तु फिर भी सामने दिखाई देने वाला चित्र अधूरा सा था.

मेरी पत्नी मेधा, और मेरे माता-पिता इन तीनों में से कोई भी उस भीड़ में नहीं था. मुझे तीव्रता से इन तीनों की याद आ रही थी. मैंने जिस बात की कभी कल्पना तक नहीं की थी, वह अब सच होने जा रही थी, अर्थात मैं गोवा का मुख्यमंत्री बनने जा रहा था, परन्तु फिर भी इस आनंद के क्षण में दुखों के पल भी समाए हुए थे. नियति के खेल निराले होते हैं. एक-दो वर्ष के अंतराल में ही मेरे सर्वाधिक पास के ये तीनों ही व्यक्तित्व मुझसे हमेशा के लिए दूर जा चुके थे. जिनके होने भर से मुझे बल मिलता था, प्रेरणा मिलती थी ऐसे मेरे 'आप्त स्वकीय' जनों की कमी कभी कोई नहीं भर सकता था.

एक तरफ भाजपा गोवा में पहली बार सत्ता स्थान पर विराजमान होने का आनंद और दूसरी तरफ इस घनघोर आनंद में मेरे साथ सदैव सहभागी रहने वाले माता-पिता और पत्नी का वहां मौजूद नहीं होना, ऐसी दो विपरीत भावनाएं मेरे मन में थीं. यदि ये तीनों आज होते तो...

गोवा के मुख्यमंत्री और पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर ने अपनी निजी पीड़ा पर एक भावुक लेख एक मराठी पत्रिका में लिखा था, जिसका सुरेश चिपलूनकर ने अनुवाद किया है. एक राजनेता के जीवन में पर्दे के पीछे चलते हुए उसके जीवन के घटनाक्रमों और दुःख-दर्द में भीगी हुई कलम से लिखा हुआ यह लेख अदभुत है.

मनोहर पर्रिकर लिखते हैं -

राजभवन का वह हॉल कार्यकर्ताओं की भीड़ से ठसाठस भरा हुआ था. पहली बार गोवा में भाजपा की सरकार बनने जा रही थी. यह सोचकर सभी का उत्साह मन के बांध तोड़ने को आतुर था. मेरे निकट के मित्र, गोवा के भिन्न-भिन्न भागों से आए हुए असंख्य कार्यकर्ता इस शपथविधि समारोह के कार्यक्रम में दिखाई दे रहे थे. इन सभी की वहां उपस्थिति का कारण एक ही था, मुझे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए देखना. मैंने जिनके साथ राजनीति में प्रवेश किया ऐसे मेरे सहकारी, मेरे हितैषी, पार्टी के कार्यकर्ताओं की इस भारी भीड़ में मुझे मेरे दोनों बेटे, भाई-बहन सभी लोग दिखाई दे रहे थे. परन्तु फिर भी सामने दिखाई देने वाला चित्र अधूरा सा था.

मेरी पत्नी मेधा, और मेरे माता-पिता इन तीनों में से कोई भी उस भीड़ में नहीं था. मुझे तीव्रता से इन तीनों की याद आ रही थी. मैंने जिस बात की कभी कल्पना तक नहीं की थी, वह अब सच होने जा रही थी, अर्थात मैं गोवा का मुख्यमंत्री बनने जा रहा था, परन्तु फिर भी इस आनंद के क्षण में दुखों के पल भी समाए हुए थे. नियति के खेल निराले होते हैं. एक-दो वर्ष के अंतराल में ही मेरे सर्वाधिक पास के ये तीनों ही व्यक्तित्व मुझसे हमेशा के लिए दूर जा चुके थे. जिनके होने भर से मुझे बल मिलता था, प्रेरणा मिलती थी ऐसे मेरे 'आप्त स्वकीय' जनों की कमी कभी कोई नहीं भर सकता था.

एक तरफ भाजपा गोवा में पहली बार सत्ता स्थान पर विराजमान होने का आनंद और दूसरी तरफ इस घनघोर आनंद में मेरे साथ सदैव सहभागी रहने वाले माता-पिता और पत्नी का वहां मौजूद नहीं होना, ऐसी दो विपरीत भावनाएं मेरे मन में थीं. यदि ये तीनों आज होते तो उन्हें कितना आनंद हुआ होता. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपनी जिम्मेदारी निभाते समय ये तीनों सतत मेरे पीछे मजबूती से खड़े रहे. राजनीति में मेरा प्रवेश अचानक ही हुआ. इस नई जिम्मेदारी को मैं ठीक से निभा सका, इसका कारण इन तीनों का साथ ही था.

इंटरनेट पर मनोहर पर्रीकर का लिखा एक लेख वायरल हुआ है जिसमें वो अपनी पत्नी के बारे में बात कर रहे हैं

आज मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करते समय उन्हें यहां होना चाहिए था, ऐसा रह-रहकर लगता था. वास्तव में देखा जाए तो अब मेरे राजनैतिक जीवन का एक नया प्रवास शुरू हुआ था, लेकिन मेरे अपने जो लोग साथ होने चाहिए थे वही नहीं थे. अक्सर हम अपने एकदम नजदीक वाले व्यक्ति को गृहीत मानकर चलते हैं, कि ये तो अपना ही व्यक्ति है, ये कभी अपने को छोड़कर जाने वाला नहीं है. यह सदैव अपने साथ ही रहेगा. परन्तु वैसा होता नहीं है. अचानक ऐसी कई बातें और घटनाएं होने लगती हैं कि आपको समझ ही नहीं आता कि क्या करना चाहिए, बल्कि मैं तो कहूंगा कि अक्सर इतनी देर हो जाती है कि अपने हाथ में करने लायक कुछ बचता ही नहीं.

मेरी पत्नी मेधा के बारे में भी ऐसा ही घटित हुआ. अत्यधिक तेजी से उसकी बीमारी बढ़ी. किसी को भी समय दिए बिना उस बीमारी ने हमसे उसे छीन लिया. सब कुछ अच्छा चल रहा था. ऐसा भी कभी हो सकता है, यह विचार तक कभी मन में नहीं आया था. मनुष्य ऐसा ही होता है. मुझे आज भी वे दिन अच्छे से स्मरण हैं. हमारी शादी को पंद्रह वर्ष बीत चुके थे. एक तरफ मेरी फैक्ट्री का काम बढ़ता जा रहा था, और दूसरी तरफ राजनीति में आई नई जिम्मेदारियों के कारण मेरा दिनक्रम अत्यधिक व्यस्त हो गया था. ऐसा लगने लगा था कि शायद कुछ वर्ष में ही भाजपा गोवा में सत्ता में आ सकती है. मेधा को बीच-बीच में कभी-कभी बुखार आता रहता था, उसने अपना कष्ट अपने शरीर को ही भोगने दिया, बताया नहीं.

मेरी व्यस्तता के कारण मैं भी गंभीरता से उसे डॉक्टर के यहां नहीं ले गया. मैंने उसे कहा कि घर के ही किसी व्यक्ति के साथ चली जाओ और पूरा चेकअप करवा लो. वह डॉक्टर के पास गई. सिर्फ उसकी रिपोर्ट आना बाकी था. पार्टी की एक महत्त्वपूर्ण बैठक चल रही थी, तभी मुझे डॉक्टर शेखर सालकर का फोन आया. मैंने जल्दबाजी में फोन उठाया और शेखर ने कहा कि मेधा की ब्लड रिपोर्ट अच्छी नहीं है. आगे के समस्त चेकअप के लिए मेधा को तत्काल मुम्बई ले जाना पड़ेगा. मुझे कुछ सूझा ही नहीं. अगले ही दिन हम मेधा को मुम्बई ले गए. अभिजीत (मेरा बेटा) बहुत छोटा था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी मां को लेकर हम कहां जा रहे हैं.

पूर्व रक्षा मंत्री का लिखा ये लेख ऐसा है कि कोई भी इमोशनल हो जाएगा

मुम्बई पहुंचने पर पता चला कि मेधा को ब्लड कैंसर है. पैरों के नीचे से जमीन सरकना किसे कहते हैं, यह उस क्षण जीवन में पहली बार मुझे पता चला. मुझे तो हमेशा यही विश्‍वास था कि मेधा तो मेरे साथ हमेशा रहेगी, उसे कभी कुछ नहीं होगा. सभी लोग ऐसा ही मानकर तो चलते हैं. लेकिन अचानक पता चला कि केवल अगले कुछ ही माह, कुछ ही दिन बाद शायद वह न रहे, इस विचार मात्र ने मुझे भीषण रूप से बेचैन कर दिया. मुम्बई में ही उसका इलाज शुरू हुआ. परन्तु एक माह से पहले ही उसका निधन हो गया. देखते ही देखते वह मुझे छोड़कर चली गयी.

वह थी, इसीलिए मुझे कभी अपने बच्चों की चिंता नहीं थी, परन्तु अब अचानक मुझे बच्चों की भी चिंता होने लगी. उत्पल तो फिर भी थोड़ा समझदार हो गया था, परन्तु अभिजीत को यह सब कैसे बताउं, मुझे समझ नहीं आ रहा था. मेधा के जाने का सबसे बड़ा धक्का अभिजीत को ही लगा. उसने अपनी मां को उपचार के लिए विमान से मुम्बई जाते हुए देखा था, लेकिन विमान से उसकी मां का शव ही वापस आया. अभिजीत के बाल-मन पर इसका इतना गहरा प्रभाव हुआ कि उसने लम्बे समय तक मुझे विमान से यात्रा ही नहीं करने दिया. उसके मन में कहीं गहरे यह धंस गया था कि विमान से जाने वाले व्यक्ति की लाश ही वापस आती है.

उन दिनों अभिजीत को संभालना बहुत कठिन काम था. ऊपर ही ऊपर कठोर निर्णय लेने वाला राजनीतिज्ञ यानी मैं, अन्दर ही अन्दर पूरी तरह से टूट चुका था. राजनैतिक व्यस्तताओं एवं जिम्मेदारियों ने मेरा दुःख कुछ कम किया और मैं स्वयं को अधिक से अधिक काम में झोंकने लगा.

अपने बेटे अभिजीत पर्रिकर और उनकी पत्नी साई के साथ मनोहर पर्रिकर की तस्वीर

मेरा और मेधा का प्रेमविवाह हुआ था. मेधा मेरी बहन की ननद थी, इसलिए मैं अपनी बहन के विवाह के समय से ही उसे पहचानता था. मैं आईआईटी मुम्बई पढ़ने गया. पढ़ाई के अगले कुछ वर्ष मेरा ठिकाना IIT मुम्बई ही रहा. बहन मुम्बई में ही थी. पढाई के दौरान IIT में पूरा सप्ताह तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे निकल गया, परन्तु रविवार को घर के खाने की याद तीव्रता से सताती थी. स्वाभाविक रूप से बहन के यहां साप्ताहिक फेरे लगने लगे. इन्हीं दिनों वहां एक लम्बे बालों वाली, उन बालों में गजरा-वेणी लगाने वाली एक घरेलू सी लड़की ने मेरा ध्यान आकर्षित किया.

धीरे-धीरे हमारी मित्रता हो गयी. चूंकि उसे पढने का बहुत शौक था, इसलिए हमारी चर्चाएं अक्सर अध्ययन अथवा सामाजिक-देश संबंधी विषयों पर होती थीं. मुझे भी पता नहीं चला कि कब मैं उसके प्रेम में पड़ गया. चूंकि लड़की रिश्तेदारी में ही थी, परिजनों ने देखी हुई थी, इसलिए इस प्रेमविवाह का विरोध होने का सवाल ही नहीं उठा. मुम्बई IIT से निकलने के बाद मैंने कुछ दिन वहीं नौकरी की. लेकिन मुझे नौकरी में रूचि नहीं थी, मुझे अपनी फैक्ट्री शुरू करनी थी. नौकरी छोड़ते समय ही मैंने मेधा से विवाह करने का निर्णय लिया. सभी को घोर आश्चर्य हुआ, क्योंकि सामान्यतः मध्यमवर्गीय मराठी परिवारों में ऐसा ही होता है कि नौकरी मिले, जीवन में थोड़ी स्थिरता आए, तभी शादी का विचार किया जाता है.

ऐसे समय नौकरी हाथ में न हो और मैं विवाह करूं, यह सभी के लिए कुछ अटपटा सा था. लेकिन मेरी मां मेरे निर्णय से सहमत थी. उसने कहा, “..मनु अगर तूने यह निर्णय लिया है तो सोच-समझकर ही लिया होगा...”

एक बेहद सादे समारोह में हमारा विवाह हुआ. मैंने गोवा जाकर अपनी फैक्ट्री शुरू करने का निर्णय लिया था और मेधा इस निर्णय में मेरे साथ थी. उसी के कारण मैं इतना बड़ा कदम उठाने की हिम्मत जुटा सका था. मुम्बई के गतिमान और व्यस्त जीवनशैली से निकलकर मेधा हमारे गोवा के म्हापसा स्थित घर में रम गई. धीरे-धीरे वह म्हापसा के सामाजिक उपक्रमों में भी सहभागी होने लगी. मैंने म्हापसा के पास ही एक फैक्ट्री शुरू की थी, उसका बिजनेस भी जमने लगा था.

अपनी पत्नी के साथ मनोहर पर्रिकर के दूसरे बेटे उत्पल

संघ के संचालक के रूप में भी मेरी जिम्मेदारी थी. इसके बाद अधिक समय बचता ही नहीं था, लेकिन मेधा उत्पल और अभिजात की जिम्मेदारी बखूबी संभाल रही थी. यानी एक तरह से जीवन एक स्थिर स्वरूप में आने लगा था. गोवा में आने के बाद कुछ ही दिनों में मुझे संघचालक की जिम्मेदारी दी गई. घर के सभी लोग संघ के कार्य में लगे ही थे, परन्तु मैं राजनीति की तरफ जाऊंगा ऐसा मुझे या उन्हें कभी नहीं लगा. 1994 के चुनावों में भाजपा की तरफ से उम्मीदवार की खोजबीन जारी थी.

संघ ने मुझे उम्मीदवार चुनने का कार्य दिया था. अनेक लोगों से इंटरव्यू और भेंट करने के बाद मैंने कुछ नाम समिति के पास भेजे. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. मैंने जिनके नाम चुनाव समिति को भेजे थे, उन सभी ने आपस में एकमत होकर मेरा ही नाम उम्मीदवार के रूप में पेश कर दिया. मेरे लिए और मेधा के लिए भी यह एक झटके के समान ही था. 1994 में मेरी राजनैतिक पारी शुरू हुई. मेरे लिए पणजी विधानसभा क्षेत्र चुना गया. भाजपा का गठबंधन महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी से था, लेकिन मुकाबला कड़ा था, इसलिए चुनाव प्रचार में मेधा के साथ मेरे माता-पिता भी जुट गए थे. यह मेरे लिए उनका पहला और अंतिम चुनाव प्रचार था.

राज्य की राजधानी का मैं प्रतिनिधि चुना गया और इस प्रकार मेरे जीवन का अलग चरण आरम्भ हुआ. राजनीति के कामों ने मुझे और भी अत्यधिक व्यस्त बना दिया. सब कुछ इतना अचानक घटित होता चला गया कि विचार करने का समय ही नहीं मिला. मेधा उन दिनों कुछ बेचैन रहती थी. फैक्ट्री चलाने और उसकी व्यावसायिक गतिविधियों के नुक्सान को लेकर उसने चिंता जताई. मुझे भी पूर्णकालिक राजनीति पसंद नहीं थी. मैंने मेधा से वादा किया कि केवल दस वर्ष ही मैं राजनीति में रहूंगा और उसके बाद अपनी फैक्ट्री और बिजनेस पर ध्यान केंद्रित करूंगा. लेकिन समस्याएं बताकर थोड़े ही आती हैं.

राजनीतिक जीवन में प्रवेश करते ही कुछ दिनों में हृदयाघात से पिताजी का निधन हो गया. मानो घर का मजबूत आधार स्तंभ ही ढह गया. इस दुःख से बाहर भी नहीं निकल पाया था कि माताजी का भी स्वर्गवास हो गया. ईश्वर ने मानो मेरी परीक्षा लेने की ठान रखी थी. माताजी के दुःख से उबरने के प्रयास में ही मेधा की बीमारी सिर उठाने लगी थी, यानी संकट एक के बाद एक चले ही आ रहे थे. उधर राजनैतिक जीवन में यश और सफलता की सीढ़ीयां बिना किसी विशेष प्रयास के चढ़ता जा रहा था, लेकिन इधर एक-एक करके “मेरे अपने” मुझसे जुदा होते जा रहे थे.

यदि मेधा जीवित रहती तो शायद उसे राजनीति छोड़ने वाला दिया हुआ वचन निभाया होता, लेकिन उसके न रहने के बाद मैंने खुद को राजनीति में पूरा ही झोंक दिया. अनेक लोग मुझसे पूछते हैं कि आप 24 घंटे काम क्यों करते हैं? लेकिन मैं भी क्या करूं, जिसके कारण मैं राजनीति छोड़ने वाला था अब वही नहीं रही. परन्तु मेधा को दिए हुए वचन का आंशिक भाग मैंने पूरा किया, अपनी फैक्ट्री की तरफ अनदेखी नहीं की. आज भी मैं चाहे जितना व्यस्त रहूं, दिन में एक बार फैक्ट्री का चक्कर जरूर लगाता हूं और खुद भी वहां कुछ घंटे काम करता हूं.

हाल ही में रक्षामंत्री बनने के बाद मेरी षष्ठीपूर्ति के अवसर पर कार्यकर्ताओं ने मेरे लिए एक सम्मान समारोह रखा था. इस कार्यक्रम में केन्द्रीय स्तर के सभी नेता और मित्र मौजूद थे. अपने शुभकामना भाषण में एक कार्यकर्ता ने (जिसे मालूम नहीं था कि मेधा अब इस दुनिया में नहीं है) कहा कि, “सर, आपने भी कभी ये गाना गाया होगा. हम जब होंगे साठ साल के, और तुम होगी पचपन की...”, यह सुनते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए, लेकिन उसमें उस बेचारे कार्यकर्ता की कोई गलती नहीं थी.

अगले ही क्षण मेधा का मुस्कुराता हुआ चेहरा मेरे सामने आ गया. मैं तो साठ साल का हो चुका था, लेकिन जो पचपन की होने वाली थी वह मेरा साथ छोड़ चुकी थी. आज मेरे पास लगभग सब कुछ है, लेकिन जिसका साथ हमेशा के लिए चाहिए था, अब वही नहीं रही..."

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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