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मोदी सरकार नया चुनावी जुमला लेकर आयी है - खास मंदिर समर्थकों के लिए

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 30 जनवरी, 2019 06:11 PM
  • 30 जनवरी, 2019 06:11 PM
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जब अयोध्या केस में फैसले की जगह नयी तारीख आने पर विरोध प्रदर्शन होने लगे और संघ नेता साधु-संतों को सुप्रीम कोर्ट के जजों के यहां हल्ला बोलने के लिए ललकार रहे हों - बीजेपी की बेचैनी समझ में आती है, लेकिन...

यूपी में मायावती और अखिलेश यादव चुनावी गठबंधन कर चुके हैं, प्रयागराज कुंभ में सनातन धर्मसंसद लगने जा रही है और अब कांग्रेस के भाई-बहन की जोड़ी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा कुंभ मेले में डुबकी लगाने जा रही है, ऐसे में बीजेपी की चिंता साफ समझ में आती है.

संघ नेतृत्व पहले से ही कह रहा है अब क्या जवाब देंगे - जब लोग पूछेंगे. संघ को फिक्र तो इसी बात को लेकर है कि अगर विकास, रोजगार, भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर चुनावी वादों को थोड़ी देर के लिए दरकिनार भी कर दें तो कैसे समझाएंगे - अब तक मंदिर क्यों नहीं बना? मामला तो पहले भी सुप्रीम कोर्ट में था, अच्छी बात है, लेकिन मंदिर निर्माण के लिए जो वोट मिले थे उनका क्या?

संघ कह रहा है लोगों पूछ रहे हैं तो जवाब क्या दें - मौका देख कर संघ के प्रिय मंत्री नितिन गडकरी भी समझा रहे हैं कि सपने दिखा कर उसे पूरा नहीं करने वालों का लोग क्या हाल करते हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की फिक्र वाजिब है. सच तो ये है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार भी चौतरफा दबाव में है - लेकिन लोग जब अयोध्या केस में तारीफ नहीं फैसले को आतुर हों - फिर मोदी सरकार कौन सा झुनझना थमाने की कोशिश कर रही है - राम लला से अलग जमीन मिल भी जाये तो क्या होगा - 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का सपना तो अधूरा ही रह जाएगा.

ये चुनावी जुमला नहीं तो क्या है?

29 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर-बाबरी विवाद पर सुनवाई होनी थी. लेकिन नयी बेंच के जस्टिस एसए बोबडे की अनुपलब्धता के चलते पहले ही मालूम हो चुका था कि सुनवाई तो टलेगी ही. लिहाजा केंद्र सरकार को कुछ तो ऐसा करना ही था जिससे से राम मंदिर समर्थकों की मायूसी थोड़ी कम हो सके - लेकिन ऊंट में मुंह में जीरा से भला क्या होने वाला है.

चुनाव जीतने के लिए जुमलों की जरूरत होती ही है, लेकिन जुमले हर चुनाव में कामयाबी दिलायें भी जरूरी नहीं होता. 2014 में काले धन को लेकर 'हर खाते में 15 लाख' आने वाली बात तो बहुत बाद में समझ आई कि वो चुनावी जुमला बता दिया था. पांच...

यूपी में मायावती और अखिलेश यादव चुनावी गठबंधन कर चुके हैं, प्रयागराज कुंभ में सनातन धर्मसंसद लगने जा रही है और अब कांग्रेस के भाई-बहन की जोड़ी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा कुंभ मेले में डुबकी लगाने जा रही है, ऐसे में बीजेपी की चिंता साफ समझ में आती है.

संघ नेतृत्व पहले से ही कह रहा है अब क्या जवाब देंगे - जब लोग पूछेंगे. संघ को फिक्र तो इसी बात को लेकर है कि अगर विकास, रोजगार, भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर चुनावी वादों को थोड़ी देर के लिए दरकिनार भी कर दें तो कैसे समझाएंगे - अब तक मंदिर क्यों नहीं बना? मामला तो पहले भी सुप्रीम कोर्ट में था, अच्छी बात है, लेकिन मंदिर निर्माण के लिए जो वोट मिले थे उनका क्या?

संघ कह रहा है लोगों पूछ रहे हैं तो जवाब क्या दें - मौका देख कर संघ के प्रिय मंत्री नितिन गडकरी भी समझा रहे हैं कि सपने दिखा कर उसे पूरा नहीं करने वालों का लोग क्या हाल करते हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की फिक्र वाजिब है. सच तो ये है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार भी चौतरफा दबाव में है - लेकिन लोग जब अयोध्या केस में तारीफ नहीं फैसले को आतुर हों - फिर मोदी सरकार कौन सा झुनझना थमाने की कोशिश कर रही है - राम लला से अलग जमीन मिल भी जाये तो क्या होगा - 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का सपना तो अधूरा ही रह जाएगा.

ये चुनावी जुमला नहीं तो क्या है?

29 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर-बाबरी विवाद पर सुनवाई होनी थी. लेकिन नयी बेंच के जस्टिस एसए बोबडे की अनुपलब्धता के चलते पहले ही मालूम हो चुका था कि सुनवाई तो टलेगी ही. लिहाजा केंद्र सरकार को कुछ तो ऐसा करना ही था जिससे से राम मंदिर समर्थकों की मायूसी थोड़ी कम हो सके - लेकिन ऊंट में मुंह में जीरा से भला क्या होने वाला है.

चुनाव जीतने के लिए जुमलों की जरूरत होती ही है, लेकिन जुमले हर चुनाव में कामयाबी दिलायें भी जरूरी नहीं होता. 2014 में काले धन को लेकर 'हर खाते में 15 लाख' आने वाली बात तो बहुत बाद में समझ आई कि वो चुनावी जुमला बता दिया था. पांच साल सरकार चलाने के बाद राम मंदिर को लेकर केंद्र की बीजेपी सरकार ने जो पैंतरा शुरू किया है - वो तो अभी से किसी जुमला से कम नहीं लगता.

सुप्रीम कोर्ट पहुंची सरकार का कहना है कि महज 0.313 एकड़ के क्षेत्र ही विवादास्पद है - बाकी 67.390 एकड़ जमीन का मामला कोर्ट में जरूर है लेकिन वो विवाद का मूल हिस्सा नहीं है. परिसर में 0.313 एकड़ का वो हिस्सा है, जिस पर बनी मस्जिद को 6 दिसंबर, 1992 को ढहा दिया गया था - रामलला फिलहाल उसी 0.313 एकड़ जमीन के एक हिस्से में विराजमान हैं. 1991 से 1993 के बीच केंद्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने विवादित स्थल और उसके आसपास की करीब 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था. 1994 में सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि अगर केंद्र सरकार चाहे तो अधिग्रहण की गई गैर-विवादित जमीन को वापस दिया जा सकता है.

बीजेपी के वोट बैंक का सवाल - आखिर कब तक मंदिर बनेगा?

कानूनी दांवपेचों के बीच से मोदी सरकार ने ये रास्ता निकालने की कोशिश की है. सुप्रीम कोर्ट में केंद्र की अर्जी को लेकर सरकार और बीजेपी की ओर से कहा जा रहा है कि विवादित जमीन को छूए बगैर ही ये रास्ता निकालने की कोशिश हो रही है. केंद्र सरकार ने कोर्ट में मुख्य तौर पर पांच बातों पर जोर दिया है.

1. राम जन्मभूमि न्यास की मांग है कि जिनके पास मालिकाना हक है उनकी जमीने वापस कर दी जायें. न्यास ने अपनी 42 एकड़ जमीन वापस मांगी है.

2. मुस्लिम समाज का दावा सिर्फ उस जमीन पर है जहां 1992 से पहले मस्जिद रही - वही 0.313 एकड़ का विवादित क्षेत्र जहां रामलला स्थापित हैं.

3. विवादित परिसर सहित कुल 67.703 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था और अब सरकार गैर-विवादित जमीन उनके मालिकों को लौटाने की अनुमति चाहती है.

4. 1993 में कानूनी तौर पर अधिग्रहित जमीन पर किसी भी मुस्लिम पक्ष की ओर से मालिकाना हक का दावा नहीं किया गया है.

5. सरकार की दलील है कि गैर-विवादित जमीन को लौटाने के फैसले की न्यायिक समीक्षा या उसकी संवैधानिक वैधता जांचने की जरूरत नहीं है.

ऐसी सूरत में भी कम लोचा नहीं है. सरकार ये सब तभी कर सकती है जब सुप्रीम कोर्ट इस बात की अनुमति दे. ये तो हो नहीं सकता कि जो बेंच अयोध्या केस की सुनवाई कर रही है, उससे इतर किसी और बेंच में इसकी अलग से सुनवाई हो और सरकार को इजाजत मिल जाये. ये सब हो तो तब पाएगा जब केस की सुनवाई शुरू हो - जो अब तक नहीं हो सकी है. वजह जो भी हो क्या फर्क पड़ता है.

कानूनी जानकारों के मुताबिक अदालत में लंबित मुकदमों को लेकर सरकार किसी एक के पक्ष में कानून नहीं बना सकती. ऐसा तभी संभव हो सकेगा जब सुप्रीम कोर्ट फैसला सुना दे या कम से कम सरकार की इस अर्जी पर ही कोई आदेश दे दे.

कहां लोग अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर हद से ज्यादा व्यग्र हैं और कहां मोदी सरकार उन्हें वो जमीन देकर बहलाना चाह रही है जिसका कोई मतलब नहीं - जब स्लोगन 'मंदिर वहीं बनाएंगे' हो, फिर इधर-उधर की जमीन देने का क्या मतलब है.

ऐसे तो पूरी अयोध्या पड़ी है. पूरे यूपी में जमीन भरी पड़ी है. पूरा देश मंदिर के लिए जगह लिए पड़ा है. अगर रामलला जन्मभूमि पर मंदिर नहीं बन सकता फिर तो कहीं भी बने किसी को क्या मतलब. दरअसल, ये उन सभी रामभक्तों के 'मन की बात' है जो 2014 में केंद्र और 2017 में यूपी में बीजेपी को सत्ता सौंपे थे. अब वो हिसाब मांग रहे हैं - और उन्हें गुमराह करने की कोशिश हो रही है.

फरवरी, 2017 में यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को यूपी का गोद लिया हुआ बेटा बताया था. कहा था, 'यूपी ने मुझे गोद लिया और मैं ऐसा बेटा नहीं जो अपने माई-बाप को यूं ही छोड़ दूं... यूपी मेरा माई-बाप है मैं गोद लिया बेटा होने के बावजूद इसकी सेवा करूंगा.' यूपी के लोगों को मोदी की हर बात याद और जल्द ही वे लोग हिसाब किताब मांगने वाले हैं.

सरकार के पास भी विकल्प बचे-खुचे ही हैं

जिस जनता को सुप्रीम कोर्ट के अवमानना तक की परवाह न हो. अयोध्या केस में सुप्रीम कोर्ट का रूख पता चलते ही - देश की सबसे बड़ी अदालत के बाहर विरोध प्रदर्शन होने लगा हो. जब इंद्रेश कुमार जैसे संघ के वरिष्ठ नेता कह रहे हों कि राम मंदिर निर्माण में देर लगाने वाले जजों के यहां साधु संतों को हल्ला बोल देना चाहिये - ऐसे में मोदी सरकार का पड़ोस की जमीनें वापस दिलाने का कदम भला कितना असरदार हो सकता है.

आखिर कब तक कांग्रेस पर अड़ंगा लगाने के नाम पर पब्लिक को बहलाते रहेंगे? संघ और बीजेपी कार्यकर्ता कैसे लोगों को समझाएंगे कि अयोध्या में मोदी सरकार के इस कदम को लोग अध्यादेश या कानून की तरह मान लें? कुछ देर के लिए मान भी लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट जमीन लौटाने की अनुमति दे देता है, जो फिलहाल संभव नहीं लगता - फिर भी तो 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का सपना तो अधूरा ही रहेगा. मंदिर के लिए राम जन्मभूमि तो तभी उपलब्ध होगी जब सुप्रीम कोर्ट का आखिरी फैसला आएगा.

कयास एक ये भी लगाया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की अनुमति नहीं मिलने की सूरत में मोदी सरकार न्यास को जमीन सौंपने के लिए बजट सत्र में बिल लाने के बारे में सोचे - लेकिन नतीजा क्या निकलेगा? कोई मंदिर कहीं और तो बनाएगा नहीं?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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