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तालिबान की आमद पर सुकून दर्शाने वाले भारतीय मुसलमान तरस के काबिल हैं!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 16 अगस्त, 2021 07:10 PM
  • 16 अगस्त, 2021 07:10 PM
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भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग दिल की गहराइयों से तालिबान के घिनौने कृत्य का समर्थन कर रहा है. भारत में तालिबान समर्थक उम्मीद की किरण लिए हुए उनकी तरफ देख रहे हैं. भारतीय मुसलमानों को लग रहा है कि बस कुछ घंटे और है फिर निजाम-ए-मुहम्मदी अफगानिस्तान पर तारी हो जाएगा और आतंक से जूझते तालिबान के अच्छे दिन आ जाएंगे.

सोशल मीडिया का कमोड काल है. यहां फैंटम हर किसी को बनना है. ऊपर से सहमत दद्दा और वाह दीदी का दौर. यानी एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा. अफगानिस्तान का मामला हमारे सामने हैं. तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा कर चुका है. पूरे मुल्क में अफरा तफरी का माहौल है. लेकिन चंद चुनिंदा भारतीय मुसलमानों को इससे कोई मतलब नहीं है. उन्हें तालिबान की आड़ में अपना नया रहनुमा या ये कहें कि नया गॉड फादर मिल गया है. भारतीय अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग दिल की गहराइयों से तालिबान के इस घिनौने कृत्य का समर्थन कर रहा है. चूंकि मौजूदा वक्त में कुकुरमुत्ते की तरह तालिबान का विस्तार हो रहा है, भारत में तालिबान समर्थक उम्मीद की किरण लिए हुए उनकी तरफ देख रहे हैं. भारतीय मुसलमानों को लग रहा है कि बस कुछ घंटे और है फिर निजाम-ए-मुहम्मदी अफगानिस्तान पर तारी हो जाएगा और आतंक से जूझते तालिबान के अच्छे दिन आने से कोई भी माई का लाल नहीं रोक पाएगा.

सोशल मीडिया पर तमाम लोग हैं जो तालिबान के कृत्य का समर्थन कर रहे हैं

होने को तो किसी भारतीय मुसलमान का तालिबान का समर्थन करना हद दर्जे का ओछा काम है. नीचता की पराकाष्ठा है. मगर जब आदमी आंखों पर नफरत की पट्टी चढ़ा ले. वो देखना चाहे, जिसे देखने का प्रण वो बहुत पहले ही कर चुका है. तो फिर स्थिति कैसी और किस हद तक विकराल होगी इसका अंदाजा मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी बड़ी आसानी के साथ लगा सकता है.

वो भारतीय मुसलमान जिन्होंने कट्टरपंथ का चोला ओढ़ रखा है. और जो आज पूरी बेशर्मी के साथ तालिबान को सपोर्ट कर रहे हैं. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि पूरा देश उन्हें गद्दारों की संज्ञा दे रहा है. इनका एजेंडा एकदम क्लियर है. इन्हें बंदूक के बल पर एक तानाशाह को हुकूमत करते देखना है.

सोशल मीडिया का कमोड काल है. यहां फैंटम हर किसी को बनना है. ऊपर से सहमत दद्दा और वाह दीदी का दौर. यानी एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा. अफगानिस्तान का मामला हमारे सामने हैं. तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा कर चुका है. पूरे मुल्क में अफरा तफरी का माहौल है. लेकिन चंद चुनिंदा भारतीय मुसलमानों को इससे कोई मतलब नहीं है. उन्हें तालिबान की आड़ में अपना नया रहनुमा या ये कहें कि नया गॉड फादर मिल गया है. भारतीय अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग दिल की गहराइयों से तालिबान के इस घिनौने कृत्य का समर्थन कर रहा है. चूंकि मौजूदा वक्त में कुकुरमुत्ते की तरह तालिबान का विस्तार हो रहा है, भारत में तालिबान समर्थक उम्मीद की किरण लिए हुए उनकी तरफ देख रहे हैं. भारतीय मुसलमानों को लग रहा है कि बस कुछ घंटे और है फिर निजाम-ए-मुहम्मदी अफगानिस्तान पर तारी हो जाएगा और आतंक से जूझते तालिबान के अच्छे दिन आने से कोई भी माई का लाल नहीं रोक पाएगा.

सोशल मीडिया पर तमाम लोग हैं जो तालिबान के कृत्य का समर्थन कर रहे हैं

होने को तो किसी भारतीय मुसलमान का तालिबान का समर्थन करना हद दर्जे का ओछा काम है. नीचता की पराकाष्ठा है. मगर जब आदमी आंखों पर नफरत की पट्टी चढ़ा ले. वो देखना चाहे, जिसे देखने का प्रण वो बहुत पहले ही कर चुका है. तो फिर स्थिति कैसी और किस हद तक विकराल होगी इसका अंदाजा मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी बड़ी आसानी के साथ लगा सकता है.

वो भारतीय मुसलमान जिन्होंने कट्टरपंथ का चोला ओढ़ रखा है. और जो आज पूरी बेशर्मी के साथ तालिबान को सपोर्ट कर रहे हैं. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि पूरा देश उन्हें गद्दारों की संज्ञा दे रहा है. इनका एजेंडा एकदम क्लियर है. इन्हें बंदूक के बल पर एक तानाशाह को हुकूमत करते देखना है.

तालिबान का समर्थन करते लोगों के पास एक से एक वाहियात तर्क हैं

साफ है कि इन्हें थू- थू और आलोचना की परवाह न तो 1947 में बंटवारे के वक़्त थी न आज 2021 में. इनकी अपनी एक धुन है. इनका अपना एक राग है. भले ही ये राग और ये धुन पूरे देश को भद्दा और कर्कश लग रहा हो लेकिन इनका कहना साफ है कि 'सानू की' जो होगा देख लिया जाएगा.

वाक़ई बड़ा अजीब है ये देखना कि वो शख्स जो लखनऊ के किसी अज्ञात मुहल्ले में बैठा गुटखा चबा रहा है. या वो व्यक्ति जो कर्नाटक के गुलबर्गा में किसी पान की दुकान पर खड़ा सिगरेट पी रहा है. बड़ी ही बेबाकी के साथ अफगानिस्तान में तालिबान की हरकतों को जस्टिफाई कर रहा है. जबकि उसे न तो तालिबान के अस्तित्व के बारे में ही कोई जानकारी है. न ही उसे इस बात का कोई इल्म है कि, यदि आज अफगानिस्तान गर्त के अंधेरों में गया तो उसकी माकूल वजह क्या है?

तालिबान मुद्दे पर लोगों को पॉलिटिकल एक्सपर्ट बनते देखना अपने आप में दिलचस्प है

देखिए साहब हर चीज की अपनी एक सीमा होती है. आदमी को अपनी नफरत में सीमाओं को लांघना नहीं चाहिए. ऐसे में जो वर्तमान में भारतीय मुसलमानों की एक बड़ी आबादी कर रही है उसे सीमाओं को लांघना ही कहते हैं. सवाल ये है कि तालिबान जैसे संगठन को अपना बेशकीमती समर्थन देने वाले भारतीय मुसलमान जरा एक बार इस बात की तस्दीख करें कि इस घिनौने काम के बाद अगर कोई उन्हें रहम की निगाह से देखना भी चाहे तो कैसे देखेगा? कल अगर उन्हें तमाम चीजों मसलन आतंकवाद समर्थक कहा जाएगा तो वो अपने को कैसे असली 'शांतिप्रिय' साबित करेंगे?

तालिबान के मुद्दे पर लोगों की प्रतिक्रियाएं हैरत में डालने वाली हैं

वो भारतीय मुसलमान जो अपनी जड़ता और हठधर्मिता के चलते हर बात में ब्लेम गेम खेलता है. विक्टिम कार्ड दिखाता है. अपने साथ हुई हर दूसरी घटना के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिम्मेदार ठहराता है. ईमानदारी से जवाब दे कि क्या उसकी पस्ताहाली के लिए संघ या कोई हिंदूवादी संगठन जिम्मेदार है? अगर कोई मुसलमान हिम्मत करके बहुत ईमानदारी से इस सवाल का जवाब दे तो कारण होगा कट्टरपंथ और नफरत. यही वो दो चीजें हैं जिनके चलते भारतीय मुसलमान खुशी खुशी ऐसा करता हुआ नजर आ रहा है.

तालिबान जैसे कुख्यात संगठन के सपोर्ट में जो भी भारतीय मुसलमान बढ़ चढ़ कर आगे आ रहे हैं, उन्हें याद रखना होगा कि वो जो कुछ भी आज कर रहे हैं वो न केवल एक धर्म के रूप में इस्लाम पर सवालिया निशान लगा रहा है. बल्कि इस समर्थन के कारण विश्व पटल पर एक देश के रूप में भारत की छवि भी धूमिल हो रही है.

मुस्लिम समुदाय को सोचने की जरूरत है. उन विभीषणों को जो घर के भेदी हैं और देश की एकता अखंडता पर अपने समर्थन के जरिये सीधा प्रहार कर रहे हैं उन्हें बाहर निकालने की जरूरत है. बात स्पष्ट है तालिबान सपोर्ट के मुद्दे पर यदि मुसलमान नहीं जागा और उसने उन मुसलमानों की कड़े शब्दों में निंदा न की जो तालिबान का समर्थन कर रहे हैं तो फिर कल हमारे पास बचाने को कुछ बचेगा नहीं.

कुल मिलाकर आज मुसलमानों का भविष्य और आतंकवाद के प्रति उनकी सोच क्या है? इन सभी प्रश्नों के जवाब का निर्धारण वो फैसला करेगा जो एक देश के रूप में भारत के मुसलमान आज लेंगे. आज लिया गया एक सही फैसला उनका मुस्तकबिल बताएगा. वरना होगा वही कभी ये नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में सड़कों पर आएंगे तो कभी एनआरसी के लिए और मुंह की खाकर वापस अपने अपने घरों को लौट जाएंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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