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सोशल मीडिया

हिंदू-मुस्लिम नफरत का यह दौर क्‍या सोशल मीडिया की मेहरबानी है ?

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 20 जून, 2018 09:51 PM
  • 20 जून, 2018 09:47 PM
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मौजूदा वक़्त में जो हिन्दुओं का मुसलमानों के प्रति और मुसलमानों का हिन्दुओं के प्रति रवैया है कहना गलत नहीं है कि अब दोनों ही समुदायों की एक दूसरे के प्रति नफरत चरम पर है. और इस नफरत को फैलाने में सोशल मीडिया की भूमिका सबसे अहम है.

कौमी एकता और भाईचारे की घिसी पिटी बातों को एक तरफ रखते हैं और आज ये मान लेते हैं कि भारत में हिन्दू मुसलमानों से और मुसलमान हिन्दुओं से नफरत करते हैं... इस बात ज्यादा आश्चर्य में पड़ने की जरूरत नहीं है. सोशल मीडिया का रुख करिए, रोज दंगा होता है. सुबह होते ही एक धड़ा दूसरे पर हमला बोल देता है. ऐसे में दूसरा भी खामोश नहीं रहता, पलटवार करता है. इसमें से हिंदू कौन है और मुसलमान कौन, ये ज्‍यादा दिमाग लगाने वाली चीज नहीं है. आज के हालात पर ये कहना गलत नहीं है कि सोशल मीडिया के आने के बाद नफरत के उन परिंदों को पंख मिल गए जिनके जीवन का एक ही उद्देश्य है- दूसरे समुदाय को अपशब्द कहना. एक वक़्त था जब लोग दिलों में कुंठा लिए थे, मगर इस बात से डरते थे कि अगर अपने दिल में बसी उस नफरत को वो लोगों के सामने लाएं तो समाज क्या कहेगा. लेकिन सोशल मीडिया ने अब ऐसा लोगों को बेपरवाह बना दिया है. सियासी कहा-सुनी देखते हुए देखते धार्मिक उलाहने पर पहुंचने लगी है.

नफरत फैलाने के मामले में भी आज सोशल मीडिया समाज को बुरी तरह प्रभावित करता दिख रहा है

इस हफ्ते दो ऐसे मामले आए हैं, जिन्‍होंने हमारी सामाजिक संवेदनाओं पर सवाल खड़ा कर दिया है. आखिर कितना जहर भरा है हमारे भीतर? दीगर धर्म वालों के साथ हम क्‍या करना चाहते हैं ? आखिर कौन सा बदला लेने के बाद हमारा गुस्‍सा शांत होगा ?

पहला मामला ट्विटर यूजर @pooja303singh और एयरटेल के बीच का है जबकि दूसरा मामला पत्रकार @AshrafAsad और ओला कैब के कारण लगातार सुर्खियां बटोर रहा है :

आइये सर्वप्रथम पहले मामले को समझा जाए और जाना जाए कि आखिर ऐसा क्या हुआ, जो स्थिति इतनी विकराल हो गई. प्रोडक्ट के खराब होने या फिर कस्टमर सैटिस्फैक्शन के चलते हममें से बहुत से लोग ट्विटर पर अपनी-अपनी...

कौमी एकता और भाईचारे की घिसी पिटी बातों को एक तरफ रखते हैं और आज ये मान लेते हैं कि भारत में हिन्दू मुसलमानों से और मुसलमान हिन्दुओं से नफरत करते हैं... इस बात ज्यादा आश्चर्य में पड़ने की जरूरत नहीं है. सोशल मीडिया का रुख करिए, रोज दंगा होता है. सुबह होते ही एक धड़ा दूसरे पर हमला बोल देता है. ऐसे में दूसरा भी खामोश नहीं रहता, पलटवार करता है. इसमें से हिंदू कौन है और मुसलमान कौन, ये ज्‍यादा दिमाग लगाने वाली चीज नहीं है. आज के हालात पर ये कहना गलत नहीं है कि सोशल मीडिया के आने के बाद नफरत के उन परिंदों को पंख मिल गए जिनके जीवन का एक ही उद्देश्य है- दूसरे समुदाय को अपशब्द कहना. एक वक़्त था जब लोग दिलों में कुंठा लिए थे, मगर इस बात से डरते थे कि अगर अपने दिल में बसी उस नफरत को वो लोगों के सामने लाएं तो समाज क्या कहेगा. लेकिन सोशल मीडिया ने अब ऐसा लोगों को बेपरवाह बना दिया है. सियासी कहा-सुनी देखते हुए देखते धार्मिक उलाहने पर पहुंचने लगी है.

नफरत फैलाने के मामले में भी आज सोशल मीडिया समाज को बुरी तरह प्रभावित करता दिख रहा है

इस हफ्ते दो ऐसे मामले आए हैं, जिन्‍होंने हमारी सामाजिक संवेदनाओं पर सवाल खड़ा कर दिया है. आखिर कितना जहर भरा है हमारे भीतर? दीगर धर्म वालों के साथ हम क्‍या करना चाहते हैं ? आखिर कौन सा बदला लेने के बाद हमारा गुस्‍सा शांत होगा ?

पहला मामला ट्विटर यूजर @pooja303singh और एयरटेल के बीच का है जबकि दूसरा मामला पत्रकार @AshrafAsad और ओला कैब के कारण लगातार सुर्खियां बटोर रहा है :

आइये सर्वप्रथम पहले मामले को समझा जाए और जाना जाए कि आखिर ऐसा क्या हुआ, जो स्थिति इतनी विकराल हो गई. प्रोडक्ट के खराब होने या फिर कस्टमर सैटिस्फैक्शन के चलते हममें से बहुत से लोग ट्विटर पर अपनी-अपनी शिकायतें दर्ज कराते हैं. @pooja303singh ने भी कराई, लेकिन पूजा ये चाहती थी कि जो भी रिप्रेजेन्टेटिव उनकी मदद को आए वो मुसलमान न हो, बल्कि हिन्दू हो. इस मांग के तर्क में पूजा के पास बस इतना जवाब है कि उन्हें मुसलमानों, उनके धर्मग्रन्थ क़ुरान और उनके काम के तौर-तरीकों पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं है. अतः जो भी रिप्रेजेन्टेटिव उनकी मदद को आए, वो गलती से भी मुसलमान न हो.

अब आते हैं दूसरे मामले पर. दूसरा मामला दिल्ली का है, जहां असद अशरफ नाम के एक पत्रकार ने दिल्ली की बी.के. दत्त कॉलोनी से जामिया तक ओला से कैब बुक की. निर्धारित समय पर कैब आई और असद कैब में बैठ गए. लेकिन जैसे ही ड्राइवर को ये बात मालूम पड़ी कि असद जामिया जाना चाहते हैं, जो कि ओला ड्राइवर के हिसाब से एक मुस्लिम कॉलोनी है, उसने असद को बीच रास्ते में ही उतार दिया.

ओला को भी जल्द से जल्द अपने कर्मचारी द्वारा की गयी इस हरकत का गंभीरता से संज्ञान लेना चाहिए

इस घटना के बाद असद ने ट्विटर पर अपने इस अनुभव को साझा किया. असद ने लिखा कि कैब ड्राइवर ने उन्हें यह कहकर डराया, धमकाया कि जामिया नगर कोई जाने की जगह नहीं है. वो एक मुस्लिम कॉलोनी है. जब असद ने ड्राइवर के इस बात का विरोध किया तो उसने अपने आदमियों को बुलाकर पीटने की धमकी दी.

इन दोनों ही घटनाओं के बाद ट्विटर पर वही हो रहा है जो हमेशा से होता चला आ रहा है. एक वर्ग है जो पूजा और असद के साथ है, और दूसरा वर्ग है जो इनके विरोध में है. दोनों ही मामले हैशटैग और ट्रोलिंग की क्रांति की भेंट चढ़ चुके हैं. कुछ ने इन मामलों में चुटकी ली तो कुछ ने अपने-अपने रंग से इसे सांप्रदायिक रंग दे डाला. कहीं लोग पूजा हो सही ठहरा रहे हैं और ये कह रहे हैं कि उसने बिल्कुल सही किया तो कहीं लोगों ने ओला के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार की मुहीम छेड़ दी है.

ट्विटर, फेसबुक, वॉट्सएप... सोशल मीडिया के इन प्‍लेटफॉर्म पर कुंठित दिमाग वाले जहर पका रहे हैं. जहर परोस रहे हैं. और जहर ही खा रहे हैं. और इस जहर के खाने से इस जहरीले समुदाय की तादाद कम होने के बजाए बढ़ ही रही है. हर सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म पर इन्‍हें अपने जैसे लोग मिलते जा रहे हैं, और इनका कारवां हुजूम बनता जा रहा है. ये उन लोगों को फॉलो कर रहे हैं, जो इनसे मिलती-जुलती बात करते हैं. नतीजा ये होता है कि यदि विचारों में कुंठा शामिल है, तो वह कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है. इसका नतीजा है पूजा और उस ओला कैब ड्रायवर जैसे लोग. जो कही-सुनी बातों पर अपनी धार्मिक राय तय कर रहे हैं. और उसे दूसरों पर थोपकर समाज को चौंका रहे हैं. परेशान कर रहे हैं.

एयरटेल का मामला ये बता देता है कि अब भी हम हिन्दू मुस्लिम से ऊपर उठ कर नहीं सोच पा रहे हैं

सोशल मीडिया पर फैलते जहर से उपजते हैं शंभू रैगर जैसे दानव. जो हत्‍या करने के बाद लाश के सामने खड़े होकर विभत्‍स वीडियो बनाते हैं और फिर सोशल मीडिया पर पोस्‍ट करते हैं. उनके इस दुस्‍साहस को आसानी से समझा जा सकता है कि कुछ लोग उस वीडियो में शंभू की दलील पर सहमति जताते हैं.

खैर वर्तमान परिदृश्य में सुचिता इसी में है कि खुले तौर पर मान लिया जाए कि हमें एक दूसरे से बेपनाह नफरत है और इस नफरत के कारण हम सामने वाले की शक्ल तो क्या उसे जीवित तक नहीं देखना चाहते.

अब जाहिर है जब ऐसी चीजें होंगी तो नफरत आना और उसे कहीं न कहीं निकलना स्वाभाविक है. उपरोक्त मामलों में जो भी हुआ उसे देखकर ये कहना गलत नहीं है कि यदि 21 वीं सदी में भी हम हिन्दू-मुस्लिम से ऊपर नहीं उठ पाए हैं तो वाकई स्थिति दयनीय है जो भविष्य में बेहद विकराल रूप धारण कर हमारे सामने आने वाली है. याद रहे जो युद्ध आज ट्विटर और फेसबुक पर छिड़ा है कल सड़कों पर होगा. और तब जो लाशों के ढेर लगेंगे उस पर कफन ओढ़ाने का काम सोशल मीडिया नहीं कर पाएगा. इसलिए इस मध्‍यम को इसकी औकत में रखिए. लोगों से उस औकात का पालन करने का आग्रह कीजिए. 

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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