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फेसबुक के कारण खतरे में है अगले लोकसभा चुनाव की निष्‍पक्षता !

    • जावेद अनवर
    • Updated: 21 मार्च, 2018 02:07 PM
  • 21 मार्च, 2018 02:07 PM
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डेटा रिसर्च फर्म कैंब्रिज एनालिटिका पर आरोप है कि उसने फेसबुक के डेटा का उपयोग करके अमेरिकी चुनाव में वोटिंग पैटर्न को प्रभावित किया है. चर्चा यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस इस फर्म के संपर्क में रही है.

अब तक ये बिल्कुल साफ हो चुका है कि पश्चिमी देशों में लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा फेसबुक से है. ताजा घोटाले से तो यही संदेश मिल रहा है, जिसमें डेटा का विश्लेषण करने वाली फर्म कैंब्रिज एनालिटिका के साथ फेसबुक का भी नाम सामने आया है. ये पूरी कहानी अभी भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी दखल से जुड़ी हुई है जिसमें डोनाल्ड ट्रम्प ने हिलेरी क्लिंटन को पछाड़ दिया था. लेकिन इस दखल की बात शुरू होने के करीब 2 साल बाद अब पूरा ऑपरेशन ही फोकस में आ रहा है. और इसी में कैंब्रिज एनालिटिका से हम रु-ब-रु होते हैं.

कैंब्रिज एनालिटिका ने कैसे ट्रंप कैंप के साथ मिलकर यूएस के वोटरों को टारगेट किया और कैसे फेसबुक से मतदाताओं के मनोवैज्ञानिक प्रोफाइल के बारे में डाटा लिया, इन सब पर बहुत बात हो चुकी है. इसलिए मैं सीधा मुद्दे पर आता हूं.

फेसबुक से जो डाटा प्राप्त हुआ है, उससे इस डाटा का उपयोग लोगों के सामाजिक-आर्थिक हालात, उनकी आशंकाएं, इच्छाओं और उनके राजनीतिक झुकाव सहित लोगों के विस्तृत प्रोफाइल के निर्माण के लिए किया जा सकता है. ये जानकारियां फेसबुक या फिर उस जैसी कंपनियां जिनके भी पास ये डाटा मौजूद होते हैं उन्हें एक ताकत मिल जाती है. इससे वो लोग, कंपनियां और संगठन जिनके पासे ये डाटा है वो चुनावों को प्रभावित सीधा सीधा प्रभावित कर सकते हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में फेसबुक की भूमिका सामने आना खतरे की घंटी है

इस घोटाले में फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका का नाम जुड़ने से अमेरिका और यूरोप के सांसदों में गुस्सा है. अमेरिका में तो सीनेटर अब इस बात की नए सिरे से पूछताछ कर रहे हैं कि अपने यूजर्स के बारे में फेसबुक के पास कितनी ज्यादा जानकारी है. शायद यूजर्स को भी अपने बारे में उतनी जानकारी नहीं होगी, जितना फेसबुक उनके बारे में जानता है. और इस...

अब तक ये बिल्कुल साफ हो चुका है कि पश्चिमी देशों में लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा फेसबुक से है. ताजा घोटाले से तो यही संदेश मिल रहा है, जिसमें डेटा का विश्लेषण करने वाली फर्म कैंब्रिज एनालिटिका के साथ फेसबुक का भी नाम सामने आया है. ये पूरी कहानी अभी भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी दखल से जुड़ी हुई है जिसमें डोनाल्ड ट्रम्प ने हिलेरी क्लिंटन को पछाड़ दिया था. लेकिन इस दखल की बात शुरू होने के करीब 2 साल बाद अब पूरा ऑपरेशन ही फोकस में आ रहा है. और इसी में कैंब्रिज एनालिटिका से हम रु-ब-रु होते हैं.

कैंब्रिज एनालिटिका ने कैसे ट्रंप कैंप के साथ मिलकर यूएस के वोटरों को टारगेट किया और कैसे फेसबुक से मतदाताओं के मनोवैज्ञानिक प्रोफाइल के बारे में डाटा लिया, इन सब पर बहुत बात हो चुकी है. इसलिए मैं सीधा मुद्दे पर आता हूं.

फेसबुक से जो डाटा प्राप्त हुआ है, उससे इस डाटा का उपयोग लोगों के सामाजिक-आर्थिक हालात, उनकी आशंकाएं, इच्छाओं और उनके राजनीतिक झुकाव सहित लोगों के विस्तृत प्रोफाइल के निर्माण के लिए किया जा सकता है. ये जानकारियां फेसबुक या फिर उस जैसी कंपनियां जिनके भी पास ये डाटा मौजूद होते हैं उन्हें एक ताकत मिल जाती है. इससे वो लोग, कंपनियां और संगठन जिनके पासे ये डाटा है वो चुनावों को प्रभावित सीधा सीधा प्रभावित कर सकते हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में फेसबुक की भूमिका सामने आना खतरे की घंटी है

इस घोटाले में फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका का नाम जुड़ने से अमेरिका और यूरोप के सांसदों में गुस्सा है. अमेरिका में तो सीनेटर अब इस बात की नए सिरे से पूछताछ कर रहे हैं कि अपने यूजर्स के बारे में फेसबुक के पास कितनी ज्यादा जानकारी है. शायद यूजर्स को भी अपने बारे में उतनी जानकारी नहीं होगी, जितना फेसबुक उनके बारे में जानता है. और इस जानकारी की अमेरिकी के राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में क्या भूमिका थी. यूके में नेता कैंब्रिज एनालिटिका की जांच कर रहे हैं कि Brexit वोट में उनकी क्‍या भूमिका है. ब्रेक्सिट वोटिंग में सभी उम्मीदों के विपरीत जनता ने यूरोपियन यूनियन के 'साथ रहने' के बजाए 'बाहर निकलने' का विकल्प चुना था. यूरोपीय नेता इस बात की भी खोज कर रहे हैं कि क्या फेसबुक ने अपने डाटा को कैंब्रिज एनालिटिका को उपयोग करने की अनुमति देकर यूरोपीय संघ की गोपनीयता का उल्लंघन किया है.

फेसबुक की गोपनीयता नियमों में बदलाव की भी मांग की जा रही है. इस बात की भी मांग की जा रही है कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक मार्क जकरबर्ग ये बताएं कि लगभग 2 बिलियन लोगों के कितने संवेदनशील डाटा और उन पर कितना अधिकार उनकी कंपनी के पास है. इस जानकारी को अमेरिकी सीनेट की सुनवाई में पेश करने की मांग भी जोरशोर से हो रही है.

लेकिन एक तरफ जहां दुनियाभर में फेसबुक द्वारा लोकतंत्र पर कुठाराघात करने की बातों पर लगातार बहसें हो रही हैं, वहीं भारत में इस मुद्दे पर किसी तरह की चर्चा नहीं हो रही. विश्व के सबसे गणतंत्र का चुनाव आयोग या तो इस बात से अनजान है कि फेसबुक द्वारा दूसरे देश हमारे यहां के चुनावों को किस तरह प्रभावित कर सकते हैं या फिर उन्होंने जानबूझकर आंखे मूंद ली हैं. कथित तौर पर रुस के लोगों ने अमेरिकी चुनावों को प्रभावित करने के लिए फेसबुक का सहारा लिया था. इस बात के भी संकेत हैं कि ब्रिटेन में हुए Brexit वोटिंग को भी सोशल मीडिया कैंपेन द्वारा प्रभावित किया गया था.

दरअसल कैंब्रिज एनालिटिका ने तो मीडिया रिपोर्टों में इस बात को भी स्वीकार किया है कि भारत में राजनीतिक दलों के साथ उन्होंने काम किया है. कथित तौर पर इसने अपने भारतीय सहायक ओवलिन बिजनेस इंटेलीजेंस के साथ मिलकर 2010 में जेडीयू के साथ काम किया था और जिन सीटों पर इसने अपनी जानकारी दी थी उसमें से 90 प्रतिशत पर ये सफल रहे.

लेकिन फिर भी भारत में चुनाव आयोग इस पर कोई विचार नहीं कर रहा है कि फेसबुक या सोशल मीडिया और व्हाट्सएप जैसे ऐप का प्रयोग बाहरी लोगों या संदिग्ध लोगों द्वारा चुनावों को प्रभावित करने के लिए किया जा सकता है. हो सकता है कि ये सब पहले से ही होता आ रहा हो. अगर अमेरिका में चुनाव बाहरी लोगों द्वारा प्रभावित हुए हैं, तो क्या गारंटी है कि कुछ देश ने फेसबुक या व्हाट्सएप के जरिए भारत में चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं की होगी? फेसबुक द्वारा इकट्ठा किए गए डाटा के जरिए चुनावों में मतदाताओं को प्रभावित करने का काम बहुत आसानी से किया जा सकता है. और अभी तक डाटा को दूसरों के साथ बांटने के मामले में कंपनी काफी लापरवाह रही है. अगर आप एक विज्ञापनदाता हैं, तो फेसबुक अपने उपयोगकर्ताओं के बहुत निजी जानकारियों को आपके साथ आसानी से साझा कर देगा.

जरुरत अब चुनाव आयोग के सख्त होने की है

भारत में चुनाव आयोग का काम फेसबुक जैसी बाहरी ताकतों से चुनाव प्रक्रिया काे बचाना है. एक्जिट पोल, वोटिंग खत्म होने के बाद दिखाने के फैसले हो, चुनाव प्रचार के दौरान आदर्श आचार संहिता लगाने की बात हो, चुनाव के प्रचार के दौरान नेता द्वारा भाषणों के नियम कायदे हों या फिर वोटिंग के दिन राजनीतिक पार्टियों द्वारा मतदताओं को पैसे देकर ललचाने के प्रति रोक लगाने की बात हो, ये सारे नियम कायदे ऐसे ही नहीं बनाए गए हैं. सभी के पीछे कोई न कोई कारण तो है ही.

लेकिन बहुत मुमकिन है कि फेसबुक और व्हाट्सएप का प्रयोग कर सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं बल्कि विदेश में रहने वाले कलाकार भी आदर्श आचार संहिता का आसानी से उल्लंघन कर सकते हैं. एक तरह से फेसबुक डाटा राजनीतिक पार्टियों द्वारा मतदाताओं के डर को भुनाने का मौका देती है. ये पार्टियों को मतदताओं के दिमाग में अंदर तक घुसने का मौका देते हैं. टेक की भाषा में अगर कहें तो ये मतदाताओं के दिमाग को हैक करने का माध्यम उपलब्ध कराते हैं. और कैंब्रिज एनालिटिका घोटाला इस बात की तस्दीक करता है कि केवल फेसबुक पर लोगों द्वारा वीडियो शेयर करने और किसी कंटेट को लाइक करने की जानकारी को साझा करके ये काम आसानी से किया जा सकता है.

किसी भी लोकतंत्र के लिए कैंब्रिज एनालिटिका घोटाला खतरे की घंटी है. पिछले अमेरिकी चुनावों के समय जो सिग्नल आए थे वो भयानक थे, लेकिन ताजा घोटाले में फेसबुक का नाम आने के बाद ये साफ पता चलता है कि सोशल मीडिया किस हद तक लोकतंत्र को खत्म कर रहा है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत के लिए अब समय आ गया है कि वो इन आंकड़ों के बारे में बात करे, ये आंकड़े चुनावों को कैसे प्रभावित करते हैं इसके बारे में बात करे, मतदाताओं को टारगेट करने में और लोगों के जीवन पर फेसबुक का कितना नियंत्रण है इसपर बात करे. और हमें इसकी अब बहुत जरुरत है क्योंकि 2019 में हमारे यहां आम चुनाव होने वाले हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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