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2019 की भावी सरकार के बदले 2014 में बनी सरकार को देखिए, फायदा होगा

    • अरिहंत पनागरिया
    • Updated: 19 मार्च, 2018 08:06 PM
  • 19 मार्च, 2018 08:06 PM
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भारत में चुनावों में जीत या हार अलग अलग कारणों से हो सकती है. उनको आधार बनाकर किसी भी तरह की राजनीतिक परिणामों की भविष्यवाणी करना बुद्धिमानी नहीं है.

हाल ही में खत्म हुए उपचुनावों के नतीजे आने के बाद कई राजनीति के जानकारों ने घोषणा करनी शुरु कर दी कि "2019 चुनाव टक्कर के" होने वाले हैं. ये और बात है कि एक महीने पहले तक यही लोग बीजेपी की राजनीतिक रणनीति, लोगों के साथ जुड़ने के कार्यक्रम और सोशल मीडिया अभियानों के पार नहीं जा पा रहे थे. 14 मार्च के पहले तक भगवा पार्टी 2019 के आमचुनावों के लिए तैयार दिख रही थी. और पूर्वोत्तर में चुनावों से काफी पहले, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में विपक्ष ने अच्छा प्रदर्शन किया था. उस समय भाजपा कमजोर नजर आ रही थी.

भारत के राजनीतिक दलों के लिए पिछले कुछ महीने बहुत ही ज्यादा उतार चढ़ाव वाले रहे हैं. चुनाव विश्लेषण के हर दौर ने धारणाएं और भविष्यवाणियों (चाहे स्थानीय, राज्य या राष्ट्रीय) को बदल कर रख दिया है. हर चीज को 2019 के चश्मे से ही देखा जा रहा है. अब क्या हुआ ये समझने के बजाए चीजें अगले साल कैसी घटित होंगी, नजरें इस पर टिक गई हैं. क्या 2019 में भी 2014 जैसा ही हाल होगा. और क्या विपक्ष ऐसे जाति के समीकरणों को संतुलित करने में सक्षम हो जाएगा. क्या भाजपा फिर से हिंदू मतदाताओं को एकजुट कर पाएगी?

मुद्दा यह नहीं है कि जब कोई जवाब नहीं होता, तब भी आप प्रश्न नहीं पूछ सकते. लेकिन बात तब उलझ जाती है जब आप आज के चुनावों के परिणाम के आधार पर 2019 में क्या होने वाला है इसका अनुमान लगाने लगते हैं. चलिए हम भविष्यवाणी करना या कयास लगाना बंद कर देते हैं बल्कि 2019 का इंतजार करते हैं? ध्यान रहे कि चुनाव अभी भी एक साल दूर है (अगर चुनाव की तारीखें नहीं बदलीं तो).

2019 के चुनाव के लिए एक साल है...

सरकार के तरफ आपके झुकाव के आधार पर एक साल का ये समय आपको कम भी लग सकता है और ज्यादा भी. राजनीति के अनुभवी लोग अक्सर कहते हैं कि चुनाव में एक हफ्ता भी...

हाल ही में खत्म हुए उपचुनावों के नतीजे आने के बाद कई राजनीति के जानकारों ने घोषणा करनी शुरु कर दी कि "2019 चुनाव टक्कर के" होने वाले हैं. ये और बात है कि एक महीने पहले तक यही लोग बीजेपी की राजनीतिक रणनीति, लोगों के साथ जुड़ने के कार्यक्रम और सोशल मीडिया अभियानों के पार नहीं जा पा रहे थे. 14 मार्च के पहले तक भगवा पार्टी 2019 के आमचुनावों के लिए तैयार दिख रही थी. और पूर्वोत्तर में चुनावों से काफी पहले, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में विपक्ष ने अच्छा प्रदर्शन किया था. उस समय भाजपा कमजोर नजर आ रही थी.

भारत के राजनीतिक दलों के लिए पिछले कुछ महीने बहुत ही ज्यादा उतार चढ़ाव वाले रहे हैं. चुनाव विश्लेषण के हर दौर ने धारणाएं और भविष्यवाणियों (चाहे स्थानीय, राज्य या राष्ट्रीय) को बदल कर रख दिया है. हर चीज को 2019 के चश्मे से ही देखा जा रहा है. अब क्या हुआ ये समझने के बजाए चीजें अगले साल कैसी घटित होंगी, नजरें इस पर टिक गई हैं. क्या 2019 में भी 2014 जैसा ही हाल होगा. और क्या विपक्ष ऐसे जाति के समीकरणों को संतुलित करने में सक्षम हो जाएगा. क्या भाजपा फिर से हिंदू मतदाताओं को एकजुट कर पाएगी?

मुद्दा यह नहीं है कि जब कोई जवाब नहीं होता, तब भी आप प्रश्न नहीं पूछ सकते. लेकिन बात तब उलझ जाती है जब आप आज के चुनावों के परिणाम के आधार पर 2019 में क्या होने वाला है इसका अनुमान लगाने लगते हैं. चलिए हम भविष्यवाणी करना या कयास लगाना बंद कर देते हैं बल्कि 2019 का इंतजार करते हैं? ध्यान रहे कि चुनाव अभी भी एक साल दूर है (अगर चुनाव की तारीखें नहीं बदलीं तो).

2019 के चुनाव के लिए एक साल है...

सरकार के तरफ आपके झुकाव के आधार पर एक साल का ये समय आपको कम भी लग सकता है और ज्यादा भी. राजनीति के अनुभवी लोग अक्सर कहते हैं कि चुनाव में एक हफ्ता भी बहुत लंबा वक्त होता है. एक साल? तो इस एक साल में तो कुछ भी हो सकता है. उद्योग फिर से पटरी पर आ रहे हैं इसके संकेत मिलने लगे हैं. ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी सुधार हो रहा है. जितनी भी नीतिगत दुर्घटनाएं या भ्रष्टाचार होने थे अब तक हो चुके होंगे. बीजेपी का बुरा समय शायद अब खत्म हो चुका है और अगले साल तक उनके लिए लोगों का कुछ और ही सोचना होगा. हालांकि कई राजनीतिक पंडित अभी भी शायद यही मानकर बैठे हैं कि भाजपा का बुरा वक्त अभी और आना बाकी है. हो सकता है ये सच हो. लेकिन सोचिए अगर इसका ठीक उल्टा हुआ तो?

पिछले चुनाव हमें बहुत कुछ नहीं बताते हैं. हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और बिहार में राजद की जीत सिर्फ एक बढ़िया कैलकुलेशन का परिणाम हो. राजस्थान में बीजेपी की हार सत्ता विरोधी लहर (या कुछ विश्लेषकों के अनुसार पद्मावत पर राजपूतों का गुस्सा) के कारण हुई. मध्य प्रदेश में दो विधानसभा सीटों - कोलारस और मुंगावली में कांग्रेस की जीत का कारण उनके नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के कारण हुई. पूर्वोत्तर में तीनों राज्यों को अपनी झोली में डालने के पीछे भाजपा की चतुर रणनीति थी.

आखिर राजनीतिक विश्लेषक इन परिणामों से कैसे किसी भी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं? ये सब शुद्ध अटकलें हैं. ऐसा नहीं है कि यह किसी तरह का सांख्यिकीय विश्लेषण है, बल्कि ये हवा में चलाए गए तीर हैं. भारत में चुनावों में जीत या हार अलग अलग कारणों से हो सकती है. उनको आधार बनाकर किसी भी तरह की राजनीतिक परिणामों की भविष्यवाणी करना बुद्धिमानी नहीं है.

2019 की सरकार कैसी होगी इस पर चर्चा करना आनंददायक हो सकता है, लेकिन हमें 2014 की सरकार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. अभी भी ऐसे कई वास्तविक मुद्दे हैं जिनपर काम होना बाकी है. कई नीतियों और उनके समाधान पर बहस हो सकती है. इसलिए सलाह दी जाती है, कि भविष्य के बारे कयास लगाने के बजाय अपने दिमाग को शांत रखें और आज पर ध्यान दें.

(dailyO से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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