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येदियुरप्पा ने सुमेरु तो उठा लिया, लेकिन संजीवनी का क्‍या ?

    • आईचौक
    • Updated: 17 मई, 2018 08:19 PM
  • 17 मई, 2018 08:19 PM
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ये ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चलते ही बीजेपी कर्नाटक में 100 पार कर पायी. मगर ये येदियुरप्पा ही रहे जो बीजेपी की गाड़ी वहां तक खींच भी पाये. वो कुर्सी पर काबिज भी हो चुके हैं पर बहुमत की बाधा बाकी है.

बुकनकेरे सिद्धालिंगप्पा येदियुरप्पा ने अपने शपथग्रहण की तारीख खुद ही मुकर्रर कर दी थी. चुनाव नतीजों से बहुत पहले ही येदियुरप्पा ने 17 मई की तारीख चाहे जिस वैदिक सिद्धांत, ज्योतिषीय गणना या राजनीति शास्त्रीय आकलन के आधार पर तय की हो, आगे की बाधाएं यूं ही बरकरार है.

अगर येदियुरप्पा को कर्नाटक में बीजेपी की जीत के लिए हनुमान बताया जा रहा है, तो मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना सुमेरू पर्वत उठा लाने से कम नहीं है. बहुमत से कुछ ही दूर पहले पिछड़ गयी बीजेपी की सरकार के लिए येदियुरप्पा का बहुमत जुटाना भी सुमेरू पर्वत से संजीवनी बूटी की तलाश जैसा ही है. वैसे भी 'बहुमत' येदियुरप्पा की कुर्सी के लिए 'संजीवनी' नहीं तो और क्या है?

बीजेपी के हनुमान येदियुरप्पा

अपनी ओर से घोषित तारीख और गवर्नर द्वारा निर्देशित नियत वक्त पर येदियुरप्पा ने कर्नाटक के 25वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली - और ऐलान किया, "मैं जल्द से जल्द विश्वास मत हासिल करने की कोशिश करूंगा." येदियुरप्पा साफ करना चाहते थे कि 15 दिन की मिली मोहलत के आखिर तक का वक्त नहीं लेंगे.

मोदी के 'हनुमान'!

येदियुरप्पा बीजेपी के पार्टी विद डिफरेंस वाले फॉर्मैट में भले ही फिट न बैठ पाये हों, लेकिन नये मिजाज की भारतीय जनता पार्टी के बिलकुल माकूल हैं. मोदी-शाह की जोड़ी के कांग्रेस मुक्त कर्नाटक के मिशन में वो कदम से कदम मिला कर चलते रहे. इस काम में उनका लिंगायतों का नेता होना और दक्षिण के राज्यों में सबसे पहले संगठन खड़ा करना सबसे ज्यादा मददगार बना. वरना, उम्र तो मार्गदर्शक मंडल के योग्य ही करार रही थी.

बीजेपी की भी ये मुश्किल रही कि कर्नाटक में येदियुरप्पा जैसा कोई और चेहरा नहीं था, इसलिए उनके चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ना पार्टी की मजबूरी भी...

बुकनकेरे सिद्धालिंगप्पा येदियुरप्पा ने अपने शपथग्रहण की तारीख खुद ही मुकर्रर कर दी थी. चुनाव नतीजों से बहुत पहले ही येदियुरप्पा ने 17 मई की तारीख चाहे जिस वैदिक सिद्धांत, ज्योतिषीय गणना या राजनीति शास्त्रीय आकलन के आधार पर तय की हो, आगे की बाधाएं यूं ही बरकरार है.

अगर येदियुरप्पा को कर्नाटक में बीजेपी की जीत के लिए हनुमान बताया जा रहा है, तो मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना सुमेरू पर्वत उठा लाने से कम नहीं है. बहुमत से कुछ ही दूर पहले पिछड़ गयी बीजेपी की सरकार के लिए येदियुरप्पा का बहुमत जुटाना भी सुमेरू पर्वत से संजीवनी बूटी की तलाश जैसा ही है. वैसे भी 'बहुमत' येदियुरप्पा की कुर्सी के लिए 'संजीवनी' नहीं तो और क्या है?

बीजेपी के हनुमान येदियुरप्पा

अपनी ओर से घोषित तारीख और गवर्नर द्वारा निर्देशित नियत वक्त पर येदियुरप्पा ने कर्नाटक के 25वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली - और ऐलान किया, "मैं जल्द से जल्द विश्वास मत हासिल करने की कोशिश करूंगा." येदियुरप्पा साफ करना चाहते थे कि 15 दिन की मिली मोहलत के आखिर तक का वक्त नहीं लेंगे.

मोदी के 'हनुमान'!

येदियुरप्पा बीजेपी के पार्टी विद डिफरेंस वाले फॉर्मैट में भले ही फिट न बैठ पाये हों, लेकिन नये मिजाज की भारतीय जनता पार्टी के बिलकुल माकूल हैं. मोदी-शाह की जोड़ी के कांग्रेस मुक्त कर्नाटक के मिशन में वो कदम से कदम मिला कर चलते रहे. इस काम में उनका लिंगायतों का नेता होना और दक्षिण के राज्यों में सबसे पहले संगठन खड़ा करना सबसे ज्यादा मददगार बना. वरना, उम्र तो मार्गदर्शक मंडल के योग्य ही करार रही थी.

बीजेपी की भी ये मुश्किल रही कि कर्नाटक में येदियुरप्पा जैसा कोई और चेहरा नहीं था, इसलिए उनके चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ना पार्टी की मजबूरी भी थी.

येदियुरप्पा वीरशैव पंथ से आते हैं जो जगतगुरु बसवन्ना के बताये रास्ते पर चलते हैं - लिंगायत समुदाय. ये भी किस्मत की ही बात रही कि बसवन्ना की जयंती भी चुनाव के बीच ही पड़ी और लंदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कर्नाटक में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह फूल माला लेकर पहुंच गये - और आव न देखा ताव डबल वोट मांग लिया.

लिंगायतों को साधने की कोशिश तो सिद्धारमैया ने भी की लेकिन बदले में उन्हें वोट नहीं मिले. अल्पसंख्यक का दर्जा देने की बात लिंगायतों के समझे से परे साबित हुई. अब तो हालत ये हो गयी है कि लिंगायत समुदाय से आने वाले कांग्रेस विधायक भी नेतृत्व से नाराज हो गये हैं.

लिंगायतों के लीडर येदियुरप्पा

चुनाव बाद भी येदियुरप्पा का करिश्मा कायम है - बल्कि, अब तो बढ़ ही गया है, फिर से मुख्यमंत्री जो बन चुके हैं. बहुमत साबित करने की बात और है.

वोक्कालिगा और लिंगायतों से अलग सिर्फ अहिंदा की राजनीति सिद्धारमैया पर भारी पड़ने लगी है. चुनाव में लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस को वोट तो दिया नहीं, अब लिंगायत विधायकों की नाराजगी कांग्रेस से और भी बढ़ गयी है. ये कांग्रेसी विधायक कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन से ही नाराज हैं. कांग्रेस ने वोक्कालिगा समुदाय के नेता को सीएम की पोस्ट ऑफर कर ये मुसीबत मोल ली है. अब कांग्रेस के लिंगायत नेता ही पार्टी की कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं.

शाह भी नहीं हुए निराश

चर्चा है कि कांग्रेस और जेडीएस के दर्जन भर लिंगायत एमएलए सबसे बड़े लिंगायत नेता येदियुरप्पा के सपोर्ट में खड़े होने का मन बना रहे हैं. येदियुरप्पा के लिए ये नेता किसी भी हद तक जाने को तैयार बताये जा रहे हैं.

अब तक तो यही देखने को मिल रहा है कि येदियुरप्पा ने अपने मतलब की सारी बातें अपने पक्ष में कर ली हैं. येदियुरप्पा को कुर्सी पर बिठाने के लिए बीजेपी भी संविधान की हत्या से लेकर नैतिकता और नाइंसाफी की सारी तोहमत खुले मन से स्वीकार और नजरअंदाज करती जा रही है. वैसे येदियुरप्पा की संजीवनी की तलाश में अब सबसे बड़ा रोड़ा सुप्रीम कोर्ट का इंसाफ ही लग रहा है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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