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31 साल बाद बिट्टा कराटे के सताए लोगों का सिर उठाना, मतलब वक्त बदल गया है

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 30 मार्च, 2022 09:00 PM
  • 30 मार्च, 2022 09:00 PM
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90 के दशक में 'कश्‍मीरी पंडितों का कसाई' कहे जाने वाले आतंकवादी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे (Bitta Karate) के अपराधों की फाइल खुल गई है. कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के करीब 31 साल बाद बिट्टा कराटे के पहले शिकार बने सतीश टिक्कू (Satish Tickoo) के परिवार ने श्रीनगर सेशंस कोर्ट में मामले की फिर से सुनवाई करने की मांग की है.

90 के दशक में 'कश्‍मीरी पंडितों का कसाई' कहे जाने वाले आतंकवादी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे के अपराधों की फाइल खुल गई है. कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के करीब 31 साल बाद बिट्टा कराटे के पहले शिकार बने सतीश टिक्कू के परिवार ने श्रीनगर सेशंस कोर्ट में मामले की फिर से सुनवाई करने की मांग की है. बताना जरूरी है कि खूंखार आतंकी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे ने खुद ही ऑन कैमरा एक इंटरव्यू में इस बात को कबूल किया था कि उसका पहला शिकार सतीश टिक्कू था. वैसे, कोर्ट ने भी सतीश टिक्कू के परिवार को मांग को मान लिया है. और, परिवार को याचिका की हार्ड कॉपी दायर करने के लिए 16 अप्रैल तक का समय दिया है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो 31 साल बाद बिट्टा कराटे के सताए लोगों का सिर उठाना, मतलब वक्त बदल गया है.

आतंकी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे ने खुद ही ऑन कैमरा एक इंटरव्यू में इस बात को कबूल किया था कि उसका पहला शिकार सतीश टिक्कू था.

1990 में ही गिरफ्तार हुआ, तो रिहा कैसे हो गया बिट्टा कराटे?

1990 में ही कश्मीरी पंडितों की हत्या और घाटी में आतंकवाद फैलाने के लिए फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे को जेल भेज दिया गया था. करीब 16 सालों तक बिट्टा कराटे जेल में रहा. लेकिन, 2006 में फारूक अहमद डार को कोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया. हत्या और आतंकवाद जैसे गंभीर मामलों पर इतनी आसानी से जमानत नहीं मिलती है. तो, सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ऐसी क्या वजह थी, जो बिट्टा कराटे को जमानत मिल गई. दरअसल, कोर्ट ने फारूक अहमद डार को जमानत देते हुए कहा था कि 'अदालत इस तथ्य से अवगत है कि आरोपियों के खिलाफ गंभीर आरोप हैं. जिसमें मौत या फिर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है. लेकिन, एक तथ्य ये भी है कि अभियोजन पक्ष ने मामले में सही तरीके से अपना पक्ष नहीं रखा.'

90 के दशक में 'कश्‍मीरी पंडितों का कसाई' कहे जाने वाले आतंकवादी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे के अपराधों की फाइल खुल गई है. कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के करीब 31 साल बाद बिट्टा कराटे के पहले शिकार बने सतीश टिक्कू के परिवार ने श्रीनगर सेशंस कोर्ट में मामले की फिर से सुनवाई करने की मांग की है. बताना जरूरी है कि खूंखार आतंकी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे ने खुद ही ऑन कैमरा एक इंटरव्यू में इस बात को कबूल किया था कि उसका पहला शिकार सतीश टिक्कू था. वैसे, कोर्ट ने भी सतीश टिक्कू के परिवार को मांग को मान लिया है. और, परिवार को याचिका की हार्ड कॉपी दायर करने के लिए 16 अप्रैल तक का समय दिया है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो 31 साल बाद बिट्टा कराटे के सताए लोगों का सिर उठाना, मतलब वक्त बदल गया है.

आतंकी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे ने खुद ही ऑन कैमरा एक इंटरव्यू में इस बात को कबूल किया था कि उसका पहला शिकार सतीश टिक्कू था.

1990 में ही गिरफ्तार हुआ, तो रिहा कैसे हो गया बिट्टा कराटे?

1990 में ही कश्मीरी पंडितों की हत्या और घाटी में आतंकवाद फैलाने के लिए फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे को जेल भेज दिया गया था. करीब 16 सालों तक बिट्टा कराटे जेल में रहा. लेकिन, 2006 में फारूक अहमद डार को कोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया. हत्या और आतंकवाद जैसे गंभीर मामलों पर इतनी आसानी से जमानत नहीं मिलती है. तो, सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ऐसी क्या वजह थी, जो बिट्टा कराटे को जमानत मिल गई. दरअसल, कोर्ट ने फारूक अहमद डार को जमानत देते हुए कहा था कि 'अदालत इस तथ्य से अवगत है कि आरोपियों के खिलाफ गंभीर आरोप हैं. जिसमें मौत या फिर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है. लेकिन, एक तथ्य ये भी है कि अभियोजन पक्ष ने मामले में सही तरीके से अपना पक्ष नहीं रखा.'

ऐसे किसी भी मामले में अभियोजन पक्ष राज्य सरकार ही होती है. आसान शब्दों में कहें, तो राज्य सरकार की ओर से कोर्ट में पेश हुए सरकारी वकील ने हत्या और आतंकवाद जैसे गंभीर आरोपों के बावजूद फारूक अहमद डार के खिलाफ 16 सालों में कोई पुख्ता सबूत इकट्ठा नहीं कर सकी. जबकि, बिट्टा कराटे ने खुद ही हत्याओं से लेकर पाकिस्तान से आतंकी ट्रेनिंग लेने की बात कबूल की थी. वैसे, इन 16 सालों के दौरान जम्मू-कश्मीर में किन सियासी दलों की सरकारें थीं, ये सच किसी से छिपा नहीं है. कुछ दिनों पहले ही जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने दावा किया था कि जब आतंकवादियों को छोड़ा गया, तो उनकी सरकार नहीं थी. लेकिन, अबदुल्ला ने अपनी सरकार के दौरान आतंकियों के खिलाफ सबूत जुटाने के लिए क्या किया, ये बताना भूल गए.

गौरतलब है कि बिट्टा को जमानत मिलने के दौरान राज्य में गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी. और, कांग्रेस सरकार ने भी आरोपों की गंभीरता को नकारते हुए फारूक अहमद डार की जमानत का विरोध नहीं किया था. आतंकी बिट्टा कराटे ने इंडिया टुडे की एक स्पेशल खोजी पत्रकारिता रिपोर्ट 'ऑपरेशन विलेन ऑफ द वैली' में पाकिस्तान से पैसे मिलने की बात स्वीकार की थी. इंडिया टुडे की इस रिपोर्ट के बाद ही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने कश्मीर में अलगाववादी नेताओं पर जांच का शिकंजा कसा था. 

अलगाववादियों और आतंकियों पर कड़ी कार्रवाई

2006 में यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ पीएम आवास में मुलाकात करने वाला जेकेएलएफ चीफ यासीन मलिक टेरर फंडिंग के मामले में 2017 के बाद से ही जेल में है. इतना ही नहीं जिस फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे पर 20 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की हत्या का आरोप है. उसे भी 2019 में पुलवामा हमले के बाद टेरर फंडिंग के आरोपों में एनआई ने गिरफ्तार कर लिया था. पुलवामा हमले के बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी संगठन जेकेएलएफ पर बैन लगा दिया था.

2019 के बाद कई अलगाववादी नेताओं को टेरर फंडिंग जैसे आरोपों के चलते जेल में बंद कर दिया गया है. कहना गलत नहीं होगा कि 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना को आतंकवादियों के खिलाफ 'फ्री हैंड' दिया. सुरक्षा बलों ने आतंकियों के खिलाफ 'ऑपरेशन क्लीन' चलाते हुए जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के टॉप कमांडर से लेकर ओवर ग्राउंड वर्कर्स के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ा. घाटी में सक्रिय आतंकी संगठनों के कमांडरों को नॉकआउट कर भारतीय सेना ने आतंकवाद पर काफी हद तक लगाम लगा ली है.

केंद्र सरकार ने फरवरी, 2019 में पाकिस्तान का समर्थन करने वाले अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी और जेकेएलएफ प्रमुख और पूर्व आतंकी यासीन मलिक जैसे कई अलगावादियों की पुलिस सुरक्षा भी हटा दी थी. इतना ही नहीं, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही अलगाववादियों के खिलाफ पाकिस्तान से पैसे लेकर जम्मू-कश्मीर को पत्थरबाजी और आतंकवाद में ढकेलने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था. इतना ही नहीं, आतंकियों की मदद करने वाले सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ भी केंद्र सरकार की ओर से नौकरी से हटाए जाने से लेकर गंभीर मामलों में जेल तक भेज जाने की कड़ी कार्रवाई की गई है. 

5 अगस्त 2019 को रखा गया 'नींव का पत्थर'

जम्मू-कश्मीर का जिक्र छिड़ने पर बातचीत घाटी की खूबसूरत डल झील, मनोहरी प्राकृतिक दृश्यों से होते हुए आमतौर पर 'एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान' तक पहुंच ही जाती थी. जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के जरिये विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने से इतर कई छूट दी गई थीं. राज्य की सत्ता पर काबिज रहे राजनीतिक दलों ने धारा 370 को आम लोगों की भावनाओं से जुड़ा बताने के साथ ऐसे ही कई भ्रमों का जाल दशकों से फैला रखा था. इन सियासी परिवारों की ओर से यहां तक दावा किया जाता था कि अगर धारा 370 के साथ छेड़छाड़ की गई, तो जम्मू-कश्मीर में खून की नदियां बह जाएंगी.

लेकिन, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने इन तमाम भ्रमों को किनारे रखते हुए 5 अगस्त 2019 को केवल जम्मू-कश्मीर से धारा 370 ही नहीं हटाया. बल्कि, वहां कई दशकों से अपनी जड़ें जमा चुके आतंकवाद की भी कमर तोड़ने की भरपूर कोशिश की. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटने के एक साल बाद कराए गए डीडीसी चुनावों में स्थानीय लोगों ने खुलकर हिस्सा लिया. इतना ही नहीं, आतंकियों की ओर से जारी की गई चेतावनियों को भी पूरी तरह से नकार दिया.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि 'द कश्मीर फाइल्स' में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन को 'एक नंगे सच' के तौर पर दिखाए जाने से सतीश टिक्कू के परिवार को ताकत मिली होगी. लेकिन, जिस फिल्म का विरोध राजनेताओं से लेकर कथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग कर रहा हो. उसे बनाए जाने में भी 32 साल लग गए. आखिर हमारे देश के सियासी दल और राजनेता ऐसा माहौल क्यों नहीं बना सके कि कश्मीरी पंडितों के असीमित दर्द को दिखाती एक फिल्म बनाई जा सके. खैर, कहना गलत नहीं होगा कि 31 साल बाद बिट्टा कराटे के सताए लोगों का सिर उठाना, मतलब वक्त बदल गया है.



इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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