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जानिए, आखिर क्‍यों आडवाणी से बेहतर साबित हुए कोविंद

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 22 जून, 2017 01:39 PM
  • 22 जून, 2017 01:39 PM
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राजनीति बड़ी निर्मम होती है. इसमें पुरानी स्थापित मूर्तियों को तोड़ने और नई मूर्तियों को स्थापित करने का काम आवश्यकतानुसार चलता रहता है. आडवाणी और रामनाथ कोविंद के प्रसंग में इस बात को बखूबी समझा जा सकता है.

एक व्यक्ति, जिसका छह दशकों का बेदाग राजनीतिक जीवन रहा. जो भारत की आज की सत्तारूढ़ पार्टी का संस्थापक रहा. जो इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से लड़ने वालों में अहम रहा. जिसने राजीव गांधी की सरकार उखाड़ फेंकने के लिए वीपी सिंह को ताकत दी. जिसने पार्टी में वंशवाद नहीं किया और छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को बड़ा बनने का अवसर दिया. जिसने पार्टी को 2 से 89, फिर 116 और फिर 181 सीटों तक पहुंचाया, फिर भी पांच दशक तक वाजपेयी का नंबर टू ही बना रहा. हवाला मामले में आरोप लगे, तो संसद की सदस्यता छोड़कर बेदाग सिद्ध होने का इंतजार किया.

लेकिन अब देखिए, किस तरह से छह दशकों के अथक परिश्रम से तैयार हुई उसकी विशाल मूर्ति को खंडित करने का खेल खेला जा रहा है. उसपर तीन बड़े दाग भी बताए जा रहे हैं-

1. पहला बड़ा दाग- 1992 में विवादित बाबरी ढांचा ढहाने की साज़िश का. यह अलग बात है कि उसके इसी दाग के सहारे यह पार्टी बढ़ते-बढ़ते आज पूर्ण बहुमत वाली सत्ता भोग रही है और यह सत्ता-सुख भोगने में किसी भी बेदाग व्यक्ति को परहेज नहीं है. विध्वंस की घटना के बाद के 25 वर्षों में 16 साल तक देश में विपक्षी पार्टियों की सरकारें रहीं, लेकिन उस दाग को उन लोगों ने भी नहीं उभारा. जब 2014 में अपनी पार्टी की बेदाग सरकार बनी, तो राष्ट्रपति चुनाव से चंद महीने पहले 2017 में सीबीआई सक्रिय हुई और उसका दाग उभर आया. मज़े की बात यह है कि उसी दाग के रहते उमा भारती केंद्रीय मंत्री बनी हुई हैं और उसी दाग के रहते कल्याण सिंह भी राज्यपाल बने हुए हैं, लेकिन उसी दाग के रहते अगर उस व्यक्ति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया जाता, तो बेदाग सरकार के दामन पर दाग नहीं लग जाता?

2. दूसरा बड़ा दाग- एक दिन उसने मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्युलर क्या कह दिया, हिन्दुत्व का अस्तित्व उसी तरह खतरे...

एक व्यक्ति, जिसका छह दशकों का बेदाग राजनीतिक जीवन रहा. जो भारत की आज की सत्तारूढ़ पार्टी का संस्थापक रहा. जो इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से लड़ने वालों में अहम रहा. जिसने राजीव गांधी की सरकार उखाड़ फेंकने के लिए वीपी सिंह को ताकत दी. जिसने पार्टी में वंशवाद नहीं किया और छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को बड़ा बनने का अवसर दिया. जिसने पार्टी को 2 से 89, फिर 116 और फिर 181 सीटों तक पहुंचाया, फिर भी पांच दशक तक वाजपेयी का नंबर टू ही बना रहा. हवाला मामले में आरोप लगे, तो संसद की सदस्यता छोड़कर बेदाग सिद्ध होने का इंतजार किया.

लेकिन अब देखिए, किस तरह से छह दशकों के अथक परिश्रम से तैयार हुई उसकी विशाल मूर्ति को खंडित करने का खेल खेला जा रहा है. उसपर तीन बड़े दाग भी बताए जा रहे हैं-

1. पहला बड़ा दाग- 1992 में विवादित बाबरी ढांचा ढहाने की साज़िश का. यह अलग बात है कि उसके इसी दाग के सहारे यह पार्टी बढ़ते-बढ़ते आज पूर्ण बहुमत वाली सत्ता भोग रही है और यह सत्ता-सुख भोगने में किसी भी बेदाग व्यक्ति को परहेज नहीं है. विध्वंस की घटना के बाद के 25 वर्षों में 16 साल तक देश में विपक्षी पार्टियों की सरकारें रहीं, लेकिन उस दाग को उन लोगों ने भी नहीं उभारा. जब 2014 में अपनी पार्टी की बेदाग सरकार बनी, तो राष्ट्रपति चुनाव से चंद महीने पहले 2017 में सीबीआई सक्रिय हुई और उसका दाग उभर आया. मज़े की बात यह है कि उसी दाग के रहते उमा भारती केंद्रीय मंत्री बनी हुई हैं और उसी दाग के रहते कल्याण सिंह भी राज्यपाल बने हुए हैं, लेकिन उसी दाग के रहते अगर उस व्यक्ति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया जाता, तो बेदाग सरकार के दामन पर दाग नहीं लग जाता?

2. दूसरा बड़ा दाग- एक दिन उसने मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्युलर क्या कह दिया, हिन्दुत्व का अस्तित्व उसी तरह खतरे में पड़ गया, जैसे बात-बात पर इस्लाम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है. विडंबना देखिए कि हम सब भले लोकतंत्र की बातें करते नहीं अघाते, लेकिन देश के इस विशालकाय नेता को ही अभिव्यक्ति और विचारों की आज़ादी नहीं है. आप देखेंगे कि उनकी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी छिनने के बाद से सोशल मीडिया पर उनके उस एक बयान को लेकर आज भी उनकी छीछालेदर की जा रही है. क्या हिन्दुत्व इसी कट्टरता, उन्माद और चरित्र-हनन के सहारे आगे बढ़ेगा?

3. तीसरा बड़ा दाग- वह व्यक्ति कुर्सी-प्रेमी है. हालांकि हमने ऊपर कहा कि पार्टी को बढ़ाने में अपने अनमोल योगदानों के बावजूद वह व्यक्ति 50 साल तक वाजपेयी का नंबर टू बनकर रहा, इसके बावजूद यह सही है कि वह व्यक्ति कुर्सी-प्रेमी हो गया. उसे 2009 के लोकसभा चुनाव की हार के बाद ही किसी योग्य व्यक्ति को उत्तराधिकार सौंपकर स्वयं मार्गदर्शक मंडल में चले जाना चाहिए था. ऐसा उसने नहीं किया, यह गलती तो की. लेकिन गलतियां सिर्फ विफल आदमी की ही गिनी जाती हैं. सफल आदमी की गलतियां कोई नहीं देखता. इस देश में कौन है, जो कुर्सी-प्रेमी नहीं है? क्या वाजपेयी कुर्सी-प्रेमी नहीं थे? अगर नहीं थे, तो बिना बहुमत के 1996 में 13 दिन वाली सरकार बनाने की क्या ज़रूरत थी? नैतिकता के किस पैमाने से वह सरकार बनाना सही था?

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि एक आदमी को किसी कथित अपराध के लिए पत्थरों से मारने की सजा सुनाई गई. भीड़ ने चारों तरफ से उसे घेर रखा था और हर शख्स उसे पत्थर मारने के लिए उतावला हो रहा था. तभी उस कथित अपराधी ने विश्वासपूर्वक तेज आवाज में कहा कि मुझपर पहला पत्थर वही चलाए, जिसने जीवन में कभी कोई अपराध न किया हो. इतना सुनना था कि सबके हाथ ठिठक गए.

आज आडवाणी की मूर्ति भंग करनी है, इसलिए उन्हीं की पार्टी के लोग हाथों में पत्थर लेकर खड़े हैं. सोशल मीडिया पर पार्टी के फैसले को सही ठहराने वाले तमाम लोगों के हाथों में ये पत्थर आप देख सकते हैं, लेकिन बीजेपी के तमाम नेता और कार्यकर्ता दिल पर हाथ रखकर स्वयं से ये पूछें कि क्या उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी कोई गलती नहीं की? क्या उन्होंने कभी कोई अनुचित बयान नहीं दिया? क्या उन्होंने कभी कुर्सी से मोह नहीं रखा? क्या उन्होंने राम मंदिर आंदोलन का फायदा उठाने से कभी परहेज किया?

अब दूसरी तस्वीर देखिए. चूंकि एक मूर्ति स्थापित भी करनी है, इसलिए एक पत्थर को सड़क से उठाकर पीपल के एक पेड़ के नीचे रखना होगा. फिर उस पत्थर पर सिंदूर की पांच लकीरें खींचकर नीचे पांच फूल चढ़ाकर, एक लोटा पानी ढारकर पेड़ के तने पर कुछ धागे लपेट देने होंगे. बस हो गई मूर्ति स्थापित. अब उस रास्ते से आने जाने वाले तमाम मुसाफिर उस मूर्ति को खुदा मानेंगे और उसके सामने सिर झुकाते हुए ही आगे बढ़ेंगे. कुछ मुसाफ़िर रुककर पैसा-फूल इत्यादि भी चढ़ाएंगे. फिर एक दिन सुहागिनें वहां अपने सुहाग के लिए और बेऔलाद वहां औलाद के लिए प्रार्थनाएं भी करेंगी.

रामनाथ कोविंद की मूर्ति इसी तरह गढ़ी गई है. कल दिनांक 19 जून 2017 को लोगों ने उनके बारे में गूगल सर्च और विकीपीडिया के सहारे जानकारी प्राप्त की है. टीवी चैनलों ने भी उनके बारे में बताया है. अखबारों में भी उनकी प्रोफाइल छप चुकी है. अभी उनकी महानता और बड़प्पन के किस्से गढ़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़माने में इसमें अधिक वक्त नहीं लगेगा. दो-चार दिन में हर व्यक्ति जान जाएगा कि वे राष्ट्रपति पद के लिए कितने योग्य हैं और देश के लिए उनका योगदान कितना अहम रहा है. आडवाणी, जोशी, सुषमा स्वराज, मोहन भागवत सब उनके सामने बौने हो जाएंगे.

बताते हैं कि कोविंद शुरू-शुरू में कांग्रेसी रहे. फिर आरएसएस से जुड़े. फिर भाजपा से 1990 में जुड़े, जब आडवाणी पार्टी को खड़ा कर चुके थे, दो लोकसभा सीटों से 89 सीटों तक पहुंचा चुके थे. बहरहाल, रामनाथ जी ने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी लड़े, लेकिन जीत नहीं सके. हां, 12 साल तक वे राज्यसभा के सांसद ज़रूर रहे, लेकिन उस दौरान कोई विशेष छाप नहीं छोड़ पाए. बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी रहे, लेकिन कम ही लोग उन्हें जान पाए. वर्षों वकालत की, बताते हैं कि गरीबों के केस मुफ्त में लड़ते रहे, लेकिन देश के बड़े वकीलों में उनका नाम कभी नहीं सुना. 2002 में यूएन में भारत को रिप्रेजेंट करते हुए कोई भाषण भी दिया, लेकिन वह एक भाषण, जिसकी कोई क्लिप सामने आए, तो हम सुनें, सैकड़ों-हज़ारों माइल-स्टोन भाषण देने वाले नेताओं पर भारी है. और जब बिहार के राज्यपाल बन गए, तो सामान्य ज्ञान की किताबों में Who’s Who में तो उनका नाम आ ही गया.

बहरहाल, यह सब कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं कि हम उनकी काबिलियत पर सवाल खड़े करना चाहते हैं. हम तो अपने घर में काम करने वाले एक कारपेन्टर, एक प्लम्बर और एक इलेक्ट्रीशियन की काबिलियत पर भी सवाल नहीं खड़े करते, क्योंकि मुझे मालूम है कि उनमें जो काबिलियत है, वह मुझमें नहीं है. मैं तो अपने बिहार के उस दलित भाई गणेश राम की काबिलियत पर भी सवाल खड़े नहीं करता, जिसने 40 साल की उम्र में उम्र घटवाकर इंटर का इम्तिहान दिया और पकड़े जाने पर जेल चला गया, क्योंकि मुझे मालूम है कि उसने गलत भले किया, पर हालात से जूझने का जो धैर्य और साहस उसके भीतर है, वह मेरे भीतर नहीं है.

इसलिए कोई भी मेरे इस लेख से यह आशय निकालने की भूल न करे कि मैं रामनाथ जी की काबिलियत पर सवाल खड़े कर रहा हूं. वे मुझसे बड़े हैं. मुझसे योग्य हैं. मेरे लिए आदरणीय हैं. देश के राष्ट्रपति बनने वाले हैं. देश का एक जिम्मेदार लोकतांत्रिक होने के नाते मैं भी उन्हें महामहिम ही कहूंगा और लिखूंगा. मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूं कि राजनीति में किस तरह मूर्तियां तोड़ी और गढ़ी जाती हैं!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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