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आडवाणी को राष्ट्रपति न बनाना बीजेपी की कृतघ्नता होगी!

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 19 जून, 2017 01:33 PM
  • 19 जून, 2017 01:33 PM
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आडवाणी की भूमिका बीजेपी में एक ऐसे पिता और गुरु की भी है, जिसने अपने हाथों से न जाने कितने बच्चों को गढ़ा और बड़ा बनाया. कौन नहीं जानता कि स्वयं नरेंद्र मोदी भी आडवाणी के ही गढ़े हुए हैं.

हर बार राष्ट्रपति चुनाव से पहले आम सहमति का राग छेड़ा जाता है, जबकि हमें मालूम है कि नीलम संजीव रेड्डी को छोड़कर आज तक कोई भी राष्ट्रपति निर्विरोध नहीं चुने जा सके. और अब तो देश के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि किसी व्यक्ति का निर्विरोध चुना जाना संभव ही नहीं है. खासकर इसे देखते हुए कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच निहायत अलोकतांत्रिक किस्म की तल्खियां बनी हुई हैं.

कांग्रेस ने पहले ही कह दिया था कि विपक्ष राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए लड़ेगा. लेफ्ट और अन्य मोदी-विरोधी दलों के नेताओं के साथ अनेक बैठकें करके उसने यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि उसका इरादा सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करने का ही है. दूसरी तरफ, सत्ता पक्ष की तरफ से भी कथित आम सहमति बनाने की पहल में देरी हुई है, जिससे यह बेमतलब हो गया है. वैसे भी देश के 13 में से 12 राष्ट्रपति अगर चुनाव द्वारा चुने गए, तो न तो कोई प्रलय आया, न लोकतंत्र खतरे में पड़ा.

इसलिए, राष्ट्रपति पद के लिए सबसे पहले सत्ता पक्ष को अपने उम्मीदवार का एलान शीघ्रातिशीघ्र कर देना चाहिए. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक लालकृष्ण आडवाणी के अलावा मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, सुमित्रा महाजन, मोहन भागवत, राम नाइक, द्रोपदी मुर्मू और थावर चंद गहलोत जैसे अनेकों नाम हवा में उछल चुके हैं, फिर भी बीजेपी और सरकार चुप है. अगर आप मुझसे पूछें तो कहूंगा कि ये सारे नाम अपनी-अपनी जगह योग्य हो सकते हैं, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के रहते बीजेपी की तरफ से किसी अन्य की दावेदारी पर विचार करना भी घोर अनैतिक और कृतघ्नता है.

यह ठीक है कि पिछले चार साल में देश और बीजेपी के अंदर आए राजनीतिक बदलाव की वजह से आडवाणी हाशिये पर चले गए, लेकिन आज बीजेपी जो कुछ भी है और जिस भी ऊंचाई पर है, वह सब वाजपेयी और आडवाणी की डाली हुई बुनियाद की वजह से...

हर बार राष्ट्रपति चुनाव से पहले आम सहमति का राग छेड़ा जाता है, जबकि हमें मालूम है कि नीलम संजीव रेड्डी को छोड़कर आज तक कोई भी राष्ट्रपति निर्विरोध नहीं चुने जा सके. और अब तो देश के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि किसी व्यक्ति का निर्विरोध चुना जाना संभव ही नहीं है. खासकर इसे देखते हुए कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच निहायत अलोकतांत्रिक किस्म की तल्खियां बनी हुई हैं.

कांग्रेस ने पहले ही कह दिया था कि विपक्ष राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए लड़ेगा. लेफ्ट और अन्य मोदी-विरोधी दलों के नेताओं के साथ अनेक बैठकें करके उसने यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि उसका इरादा सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करने का ही है. दूसरी तरफ, सत्ता पक्ष की तरफ से भी कथित आम सहमति बनाने की पहल में देरी हुई है, जिससे यह बेमतलब हो गया है. वैसे भी देश के 13 में से 12 राष्ट्रपति अगर चुनाव द्वारा चुने गए, तो न तो कोई प्रलय आया, न लोकतंत्र खतरे में पड़ा.

इसलिए, राष्ट्रपति पद के लिए सबसे पहले सत्ता पक्ष को अपने उम्मीदवार का एलान शीघ्रातिशीघ्र कर देना चाहिए. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक लालकृष्ण आडवाणी के अलावा मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, सुमित्रा महाजन, मोहन भागवत, राम नाइक, द्रोपदी मुर्मू और थावर चंद गहलोत जैसे अनेकों नाम हवा में उछल चुके हैं, फिर भी बीजेपी और सरकार चुप है. अगर आप मुझसे पूछें तो कहूंगा कि ये सारे नाम अपनी-अपनी जगह योग्य हो सकते हैं, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के रहते बीजेपी की तरफ से किसी अन्य की दावेदारी पर विचार करना भी घोर अनैतिक और कृतघ्नता है.

यह ठीक है कि पिछले चार साल में देश और बीजेपी के अंदर आए राजनीतिक बदलाव की वजह से आडवाणी हाशिये पर चले गए, लेकिन आज बीजेपी जो कुछ भी है और जिस भी ऊंचाई पर है, वह सब वाजपेयी और आडवाणी की डाली हुई बुनियाद की वजह से ही है. वाजपेयी और आडवाणी ने न सिर्फ बीजेपी का पेड़ बोया, सालों साल इसे अपने ख़ून-पसीने से सींचा, बल्कि इसे इतना फल देने लायक भी बनाया, कि आज यह दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा कर रही है. इतना ही नहीं, इन दोनों नेताओं ने बीजेपी में कांग्रेस वाला यह कु-संस्कार नहीं पड़ने दिया कि किसी वंश विशेष का बच्चा ही राज करेगा. इन्होंने छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को भी बड़ा होने का मौका दिया, जिसकी वजह से बचपन में चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी एक दिन इतने बड़े हो गए कि स्वयं आडवाणी को भी किनारे बैठ जाना पड़ा.

इसलिए, आडवाणी की भूमिका बीजेपी में महज एक वरिष्ठ नेता भर की नहीं है, एक ऐसे पिता और गुरु की भी है, जिसने अपने हाथों से न जाने कितने बच्चों को गढ़ा और बड़ा बनाया. कौन नहीं जानता कि स्वयं नरेंद्र मोदी भी आडवाणी के ही गढ़े हुए हैं. इसलिए पिता अगर कभी किसी बात को लेकर नाराज भी हो जाए, तो भी अच्छी संतानें उसके प्रति कृतज्ञता और आदर का भाव नहीं छोड़तीं. हिन्दू संस्कृति पितृदेवो भव और गुरुर्देवो भव जैसी अवधारणाओं पर ही टिकी है और हिन्दू राजनीति की अगुवा इस पार्टी के अधिकांश नेताओं के करियर में आडवाणी ऩे पिता और गुरू दोनों की भूमिका निभाई है.

आडवाणी एक बेदाग नेता हैं. तुलनात्मक रूप से ईमानदार माने जाते रहे हैं. जब हवाला मामले में उनपर आरोप लगे, तो उन्होंने संसद की सदस्यता से इस्तीफा देकर अपने बेदाग सिद्ध होने का इंतजार किया और राजनीति में शुचिता की एक अमिट मिसाल कायम की. आज आडवाणी पर सिर्फ एक आरोप है विवादास्पद बाबरी ढांचे के विध्वंस से जुड़ा, लेकिन सभी जानते हैं कि यह आरोप भी सिर्फ राजनीतिक है और देश की बड़ी आबादी इस आरोप के साथ नहीं है. इलाहाबाद हाई कोर्ट भी मान चुका है कि विवादास्पद भूमि राम जन्मभूमि की ही है.

इसलिए जब कई लोग यह आशंका जताते हैं कि बाबरी विध्वंस के मामले में सीबीआई का इस्तेमाल कर केंद्र सरकार आडवाणी के राष्ट्रपति बनने का रास्ता रोक रही है, तो यह अजीब और अविश्वसनीय लगता है, क्योंकि इसी राम जन्मभूमि आंदोलन का राजनीतिक फायदा उठाकर बीजेपी 1989 की वीपी सिंह सरकार में गठबंधन सहयोगी बनी और फिर 1996, 1998 और 1999 में अपने नेतृत्व में 13 दिन, 13 महीने और 5 साल वाली सरकार बनाई. क्या बीजेपी का कभी इतना पतन हो सकता है कि उसी राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े राजनीतिक मामले को वह उसके नायक आडवाणी के खिलाफ इस्तेमाल करे?

इसलिए मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर आडवाणी गलत हैं, तो फिर बीजेपी की पूरी राजनीति ही गलत है और विपक्षी दलों के वे तमाम आरोप सही हैं, जो वे बीजेपी पर लगाते हैं. लेकिन अगर बीजेपी सही है और उसे जनता का समर्थन प्राप्त है, तो फिर इस पार्टी में सर्वाधिक सही आज भी लालकृष्ण आडवाणी ही हैं, जिनकी दशकों की मेहनत और दूरदर्शिता के बलबूते ही आज यह पार्टी इस ऊंचाई पर पहुंच गई है कि पूरा का पूरा विपक्ष इसके सामने बौना नजर आ रहा है.

इसलिए, यह ठीक है कि अगर 2014 की राजनीतिक परिस्थितियों में बीजेपी को प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम अधिक उपयुक्त लगा, तो उसने उन्हें पीएम बनाया, लेकिन राष्ट्रपति का चुनाव उसे आडवाणी के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने का मौका दे रहा है. अगर यह मौका वह चूक गई, तो भारत के राजनीतिक इतिहास में इसे कृतघ्ना और पितृघात के बड़े उदाहरणों में गिना जाएगा और देश की राजनीति में एक गलत नज़ीर पड़ेगी. भारतीय संस्कृति की बात करने वाली पार्टी से हम कतई यह उम्मीद नहीं करते कि वह अपने पितातुल्य व्यक्तित्व को कूड़ेदान में डाल दे.

अगर बीजेपी आडवाणी को राष्ट्रपति पद के लिए आगे करती है, तो हमें मिल रही जानकारियों के मुताबिक शिवसेना तो उनका समर्थन करने को बाध्य होगी ही, बल्कि जनता दल यूनाइटेड और उसके नेता नीतीश कुमार भी विपक्षी उम्मीदवार का समर्थन न करके आडवाणी का समर्थन करेंगे. साथ ही, समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह भी थोड़ा मनाने पर मान सकते हैं. तमिलनाडु की पार्टियां भी साथ आ सकती हैं. तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन उसे पहले ही प्राप्त हो चुका है. कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां ज़रूर मज़बूत प्रतिरोध दर्ज कराने की कोशिश करेंगी, लेकिन उसका सिर्फ़ प्रतीकात्मक महत्व ही रह जाएगा.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अगर आडवाणी देश के राष्ट्रपति बनते हैं, तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद वह दूसरे नेता होंगे, जिनका इतना बड़ा राजनीतिक कद है. जहां तक विपक्ष के उम्मीदवारों का सवाल है, तो आडवाणी के सामने चाहे वे गोपालकृष्ण गांधी को उतारें या शरद पवार या शरद यादव को... सभी बौने ही नजर आएंगे. जो लोग अमिताभ बच्चन इत्यादि के नाम उछालते रहते हैं, वे लोग सियासत के मसखरे हैं. हम उम्मीद करते हैं कि देश में सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ के लोग राष्ट्रपति पद की गरिमा को बचाए रखेंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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