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यूपी में भाजपा के वे समर्थक, जिन्‍हें समझने में चूक गया विपक्ष

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 11 मार्च, 2022 06:17 PM
  • 11 मार्च, 2022 06:17 PM
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विपक्ष को समझ लेना चाहिए कि भरोसा ठीक चुनाव से पहले नहीं जगाया जा सकता.चुनावी साल में परियोजनाओं का उदघाटन या उन्हें दिखावटी रूप से शुरू करना काम नहीं आता.लोगों को उसकी अहमियत और फर्क का अंदाजा होना चाहिए.

नोएडा की जिस सोसायटी में मैं रहता हूं उसके गेट पर रिंकू चौरसिया पान और सिगरेट की दुकान लगाते हैं. मूलत: पूर्वी यूपी के हैं. सिर्फ रिंकू ही नहीं, उनके कई और रिश्तेदार भी नोएडा के तमाम ठिकानों पर यही काम करते हैं. यह उनका पुश्तैनी काम है. उनके यहां छठवें चरण में मतदान था. चुनाव से एक दिन पहले रिंकू गांव गया. मुझे लगा शहर में रहने वाले गांव जाने का बहाना खोजते हैं, सो वह भी चुनाव के बहाने कुछ दिन वहीं रहेगा. उसकी अनुपस्थिति में दुकान का काम उसका भाई संभाल ही रहा है.

मैं तब हैरान रह गया, जब मतदान के दिन की अगली दोपहर उसे दुकान पर पाया. मैंने पूछा- "तुम तो गांव जाने वाले थे वोट देने." उसने स्याही लगी उंगली दिखाई और कहा- "वोट देकर आ गया." मैंने कहा- "सिर्फ वोट डालने गए थे." उसने कहा- "हां." मजेदार यह है कि रिंकू भाजपा के जिस पार्टी उम्मीदवार को वोट देकर आया उसे बिल्कुल पसंद नहीं करता. भाजपा शासन से भी उसे कोई फेवर नहीं मिला है. नोएडा में सोसायटी गेट पर एक मेज पर दुकान सजाने वाले रिंकू को लगभग दूसरे, तीसरे दिन अथॉरिटी वालों की वजह से बार-बार दुकान खोलना-बंद करना पड़ता है. इसके बावजूद 'योगी राज' से उसे कोई दिक्कत नहीं. युवा रिंकू को योगी और मोदी का ब्लाइंड सपोर्टर कह सकते हैं. गांव से शहर आए तमाम लोग रिंकू की दुकान पर मिलते हैं. कोई माली का काम करता है, कोई प्लम्बिंग का और ऐसे ही छोटे-मोटे दूसरे काम करने वाले. हालांकि यह एक तरह से 'टैक्सी एथनोग्राफी' ही है, पर रिंकू के कहने पर मैंने अलग-अलग पिछड़ी जातियों के लोगों को भाजपा का समर्थक मान लिया. वैसे इनमें सभी गैर-यादव पिछड़े ही हैं. रिंकू खुद पिछड़े वर्ग से है.

पिछले साल बीच दिसंबर का एक और अनुभव साझा करना चाहूंगा. तब यूपी में पार्टियों की चुनावी हलचल तेज तो हो चुकी थी मगर तारीखों का ऐलान नहीं हुआ था. अपने एक कांग्रेसी मित्र के साथ यहीं नोएडा में बुजुर्ग वामपंथी चिंतक का हाल जानने गया था. सहज, सरल और ईमानदार वामपंथी चिंतक ने समूचा जीवन वैचारिकी में खपा दिया. मुलाक़ात में यूपी पर भी कुछ...

नोएडा की जिस सोसायटी में मैं रहता हूं उसके गेट पर रिंकू चौरसिया पान और सिगरेट की दुकान लगाते हैं. मूलत: पूर्वी यूपी के हैं. सिर्फ रिंकू ही नहीं, उनके कई और रिश्तेदार भी नोएडा के तमाम ठिकानों पर यही काम करते हैं. यह उनका पुश्तैनी काम है. उनके यहां छठवें चरण में मतदान था. चुनाव से एक दिन पहले रिंकू गांव गया. मुझे लगा शहर में रहने वाले गांव जाने का बहाना खोजते हैं, सो वह भी चुनाव के बहाने कुछ दिन वहीं रहेगा. उसकी अनुपस्थिति में दुकान का काम उसका भाई संभाल ही रहा है.

मैं तब हैरान रह गया, जब मतदान के दिन की अगली दोपहर उसे दुकान पर पाया. मैंने पूछा- "तुम तो गांव जाने वाले थे वोट देने." उसने स्याही लगी उंगली दिखाई और कहा- "वोट देकर आ गया." मैंने कहा- "सिर्फ वोट डालने गए थे." उसने कहा- "हां." मजेदार यह है कि रिंकू भाजपा के जिस पार्टी उम्मीदवार को वोट देकर आया उसे बिल्कुल पसंद नहीं करता. भाजपा शासन से भी उसे कोई फेवर नहीं मिला है. नोएडा में सोसायटी गेट पर एक मेज पर दुकान सजाने वाले रिंकू को लगभग दूसरे, तीसरे दिन अथॉरिटी वालों की वजह से बार-बार दुकान खोलना-बंद करना पड़ता है. इसके बावजूद 'योगी राज' से उसे कोई दिक्कत नहीं. युवा रिंकू को योगी और मोदी का ब्लाइंड सपोर्टर कह सकते हैं. गांव से शहर आए तमाम लोग रिंकू की दुकान पर मिलते हैं. कोई माली का काम करता है, कोई प्लम्बिंग का और ऐसे ही छोटे-मोटे दूसरे काम करने वाले. हालांकि यह एक तरह से 'टैक्सी एथनोग्राफी' ही है, पर रिंकू के कहने पर मैंने अलग-अलग पिछड़ी जातियों के लोगों को भाजपा का समर्थक मान लिया. वैसे इनमें सभी गैर-यादव पिछड़े ही हैं. रिंकू खुद पिछड़े वर्ग से है.

पिछले साल बीच दिसंबर का एक और अनुभव साझा करना चाहूंगा. तब यूपी में पार्टियों की चुनावी हलचल तेज तो हो चुकी थी मगर तारीखों का ऐलान नहीं हुआ था. अपने एक कांग्रेसी मित्र के साथ यहीं नोएडा में बुजुर्ग वामपंथी चिंतक का हाल जानने गया था. सहज, सरल और ईमानदार वामपंथी चिंतक ने समूचा जीवन वैचारिकी में खपा दिया. मुलाक़ात में यूपी पर भी कुछ बातें हुईं. स्वाभाविक रूप से चुनाव को लेकर भी. इसी दौरान वयोवृद्ध चिंतक ने साल 2017 के चुनावों का जिक्र किया. उन्होंने बताया कि पिछली बार बसपा को वोट दिया था और वजह थी कि उन्होंने सपा राज में गुंडागर्दी, पुलिस का बेजा राजनीतिक इस्तेमाल महसूस किया. उनकी तरह तमाम लोग जो भाजपा को पसंद नहीं करते उन्होंने सपा की बजाय बसपा को वोट देना पसंद किया.

योगी आदित्यनाथ.

मौजूदा चुनाव में विकल्प की अपनी चिंताओं को उकेरते हुए उन्होंने भविष्य के मतदान पर तो कुछ नहीं बोला मगर यह संकेत दिया कि वे भाजपा को रोकना तो चाहते हैं. पर इस चीज भर के लिए सपा के साथ तो नहीं जाने वाले. हो सकता है कि वो फिर बसपा या कांग्रेस के साथ गए हों. इस चीज का जिक्र यहां उन लोगों की समझ के लिए कर रहा हूं जो यह पता लगाने में लगे हैं कि आखिर कैसे बसपा का कोर वोट भाजपा को भी ट्रांसफर हो सकता है.

जिस तरह मुसलमानों को लगा कि भाजपा को सपा ही रोक सकती है, कुछ वैसा ही यूपी में भी बड़ी संख्या में गैरयादव और गैर-मुस्लिम जातियों को भाजपा में उम्मीद दिखी. अपनी सुविधा के लिए इन्हें 'हिंदू' भाजपा का 'नया हिंदू' जो भी उपमा गढ़ना चाहे, गढ़ सकते हैं. लेकिन सपा को रोकने के लिए भाजपा के साथ जाने की इकलौती वजह 'हिंदुत्व' भर नहीं है. हालांकि इस चीज ने उन्हें भाजपा के साथ जाने में सहजता प्रदान की. भाजपा को जीत दिलाई समाज कल्याण योजनाओं ने जिसका विश्लेषण टीवी चैनलों के पैनलिस्ट और सोशल मीडिया 'वीर' कर ही रहे हैं.

भाजपा के प्रति निष्ठा की वजहें अलग-अलग हैं

इसमें कोई शक नहीं कि योगी की जीत में समाज कल्याण योजनाओं और उन्हें जमीन पर मूर्त करने के कौशल की रही. रिंकू समेत तमाम गैरयादव पिछड़ों की भाजपा के प्रति निष्ठा में कहीं ना कहीं इसका बड़ा हाथ है. दूसरा वामपंथी चिंतक ने जिन चीजों को महसूस किया उसने भी जमीन पर सपा को गैरभरोसेमंद बनाए रखा. वैसे ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह पहली सरकार है जिसने इस तरह सामाज कल्याण योजनाएं शुरू की हैं. उन पत्रकारों को भी यह तथ्य दुरुस्त कर लेना चाहिए कि 'लाभार्थी योजनाएं' केजरीवाल का मॉडल नहीं हैं. अरविंद केजरीवाल से बहुत पहले तमिलनाडु में जे जयललिता और एम करुणानिधि लाभार्थी योजनाओं के सहारे वोट बटोर चुके हैं.

फर्क बस यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने लाभार्थी योजनाओं को व्यापक रूप से पहुंचाने और उसके स्वरूप को थोड़ा बेहतर करने का काम किया है. इनका बहुत हद तक पारदर्शी होना भी इनके प्रभाव को व्यापक बना देता है. उदाहरण के लिए शौचालय स्कीम मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार और उससे पहले ही दिखने लगी थी. मगर वह व्यवस्थित नहीं थी. जैसे- सीमेंट से ढाली गई बड़ी सी जुगाडू कमोडप्लेट शौचालय के नाम पर लोगों को थमा दिए गए. गढ्ढे खोदने के पैसे दे दिए गए. वह भी गिने-चुने लोगों को. लोगों ने कपड़े का पर्दा, झाड़ का ओट लगाकर इस्तेमाल की कोशिश की मगर कमोड प्लेटफॉर्म की बनावट इस कदर जुगाडू थी कि इनका इस्तेमाल कम से कम उस मकसद से तो नहीं हुआ जिसके लिए इन्हें बनाया गया था.

काशी में नरेंद्र मोदी.

मोदी सरकार ने इसी चीज को व्यापक अभियान की शक्ल दी. कुछ लोगों ने मजाक उड़ाया कि शौचालय तो दे दिया मगर पानी कहां से आएगा. तब दिल्ली के कुछ बड़े पत्रकारों की 'ग्राउंड रिपोर्ट्स' मेरे जेहन में हैं जिनमें शौचालय को लेकर चुनौतियों की वजह से इसे फेल बता दिया गया. यह भी दावा किया कि शौचालय का इस्तेमाल ही नहीं किया जा रहा और उसकी तमाम वजहें हैं. मगर आज की तारीख में यूपी समेत करोड़ों परिवारों की जरूरत वही शौचालय पूरा कर रहे हैं. मैंने ऐसा सुना है कि अब शौचालयों के रख रखाव के लिए भी अलग से बजट दिया जा रहा है.

जहां कुआं संपन्नता और दबंग होने का प्रतीक है वहां हर घर नल स्कीम का असर भापने से चूका विपक्ष

पानी का साधन होना, उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के तमाम ग्रामीण इलाकों में हजारों साल से आर्थिक समृद्धि का प्रतीक है. 30 साल पहले तक गांवों में जिनके घर कुआं होता था उन्हें पहली नजर में संपन्न मान लिया जाता था. यह सच भी है कि सबके पास होता भी नहीं था. कुआं मालिकों का अपना स्वैग था और इसके आसपास जाति का एक तंत्र भी काम करता था. अब वो दौर तो नहीं. सरकारी हैंडपंप आए. मोदी और भाजपा से पहले. लेकिन हैंडपंप भी पैसे देने के बदले मिले और गिने-चुने लोगों को ही. आज की तारीख में उत्तर प्रदेश के ज्यादातर ग्राम पंचायतों में पेयजल के लिए सरकारी नलकूप काम कर रहे हैं या उनका निर्माण बहुत तेजी से हो रहा है. हर घर नल का पानी पहुंच रहा है. पानी की गगरी फूटने के बदले पति की मौत तक की कामना करने वाली (लोक में इस तरह के गीत हैं) ग्रामीण महिलाओं की तकलीफ हर घर नल योजना ने कितनी कम की होगी इसे समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए. जिस शौचालय का मजाक उड़ाया गया था गांवों में अब उसके लिए 24 घंटे पानी है.

फ्री राशन और फ्री इलाज के सामजिक असर को लोग समझ नहीं पाएंगे. अभी कुछ साल पहले तक भोजन और इलाज की मजबूरी में हाशिए के समाज को बंधुआ की तरह दूसरों के रहमो-करम पर रहना पड़ता था. मनरेगा ने उसे कुछ हद तक रोजगार की गारंटी तो दी लेकिन उसकी कमाई का पूरा हिस्सा सिर्फ खाने का अनाज खरीदने में ख़त्म हो जाता था. अब वह वर्ग भोजन के लिए किसी के रहमोकरम पर नहीं हैं. उनके लिए इसके बहुत मायने हैं. पहले भोजन पर खर्च हो रही कमाई की बचत ने उसके लिए छोटी ही सही पर खुशियों के कई दरवाजे खोले हैं. सामान्य इलाज के लिए वह भारी ब्याज पर कर्ज नहीं लेता. राशन भाजपा से पहले भी था लेकिन अब सेंडर और रिसीवर के बीच कई लेयर ख़त्म हो चुकी हैं. कोटेदारों की मनमानी अभी भी है लेकिन पारदर्शी व्यवस्था ने लाभार्थी वर्ग जो बहुत राहत प्रदान किया है.

नाराज होने वालों से ज्यादा संख्या खुश होने वालों की है

कई लोगों ने चुनाव के दौरान यह तो देखा कि सरकारी कर्मचारी नाराज हैं पर उन्हें यह नहीं दिखाई पड़ा कि सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी के बदले खुश होने वाली तादाद कौन थी? स्कूल में कक्षाएं नहीं लगना, भ्रष्टाचार से बचत के लिए तमाम योजनाओं के पैसे सीधे लाभार्थी खाते में ना आना, गांव के अस्पताल में सरकारी डॉक्टर का हमेशा अनुपस्थित रहना और मुफ्त की दवाइयों के नहीं मिलने से संपन्न तबके को परेशानी नहीं थी. वह तबका पहले भी इन चीजों के लिए अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर  शहर पहुंच जाता था. अभी भी जाता है. मगर सहकारी संस्थानों का पारदर्शी होना, पशु अस्पताल में सरकारी कर्मचारियों का मौजूद होना, अस्पतालों में डॉक्टरों का होना, योजनाओं का पैसा सीधे मिलने ने असंतुष्ट लोगों की तुलना में संतुष्ट लोगों की भारी जमात भाजपा के साथ जोड़ दिया.

श्रम मंत्रालय में लाखों मजदूरों का पंजीकरण है. यहां तक कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुद इसे अपनी उपलब्धि बताई. कोरोना के दौरान पंजीकृत मजदूरों को पेंशन दी गई. श्रम मंत्रालय के तहत दुर्घटना में जान गंवाने वालों को मुआवजा मिल रहा. इलाज के लिए, बेटियों की पढ़ाई के लिए पैसे मिल रहे हैं. शादी के लिए भी. जो भी किसान हैं उन्हें पेंशन मिल रही है. नियमित और बिना किसी भेदभाव के. प्रधानमंत्री योजना के तहत बिना किसी हुज्जत के लाभ मिल रहा है. बिजली का ट्रांसफार्मर खराब हो जाने पर हजारों खर्च के बावजूद महीनों लग जाते थे बदलने में. अब यह कम तीन दिन में हो जाता है. साल में 10 या 12 हजार रुपये का ये लाभ हो सकता है कि 25-50 हजार या इससे ऊपर सैलरी वालों के लिए वोट देने की वजह ना बने, पर रिंकू चौरसिया के परिवार, गांव में रह रहे तमाम लोगों के लिए इसके मायने हैं. उन्हें पता है कि अपने जीवन में इसकी अहमियत पता है. ऐसी दर्जनों स्कीम्स हैं जिनका यहां जिक्र नहीं किया जा रहा है.

आप महज राजनीतिक आरोप लगाकर लोगों का मन नहीं बदल सकते. उसके लिए भरोसा जगाना होता है. और भरोसा ठीक चुनाव से पहले आकर नहीं जगा सकते. चुनावी साल में परियोजनाओं का उदघाटन करके भी नहीं जगा सकते. या उन्हें दिखावटी रूप से शुरू करके भी विश्वास नहीं जीत सकते. लोगों को उसकी अहमियत और फर्क का अंदाजा होना चाहिए. नतीजों का विश्लेषण और हर वर्ग में भाजपा की मौजूदगी उस फर्क को तर्क प्रदान करती है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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