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भारत क्यों भूला 1965 की जंग की फतह को

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 16 सितम्बर, 2018 11:59 AM
  • 16 सितम्बर, 2018 11:59 AM
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विगत 6 सितंबर को पाकिस्तान में 1965 की जंग को याद किया गया. उस विजय को भुलाकर हम रणभूमि में तैनात रहे सैकड़ों शूरवीरों के साथ घोर अन्याय करते हैं, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी

भारत 1965 में पाकिस्तान के विरूद्ध लड़ी गई जंग में अपनी भारी विजय को क्यों भूल गया? ये सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उस जंग को हारने के बाद भी पाकिस्तान तो अपनी करारी हार को भूला नहीं. पर हम शत्रु के दांत खट्टे करने के बाद भी 1965 के युद्ध को याद करने के लिए तैयार नहीं है. आखिर क्यों?

विगत 6 सितंबर को पाकिस्तान में उस जंग को याद किया गया. वो युद्ध 6 सितंबर 1965 से ही शुरू होकर 23 सितंबर, 1965 को अमरीकी हस्तक्षेप के बाद खत्म हुआ था. उस विजय को भुलाकर हम रणभूमि में तैनात रहे सैकड़ों शूरवीरों के साथ घोर अन्याय करते हैं, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी. यही नहीं, हम देश के उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कुशल नेतृत्व और हौसले को भी भुलाने का प्रयास करते हैं.

पाकिस्तान में पिछले दिनों भारत के साथ हुई उसकी 1965 की जंग में पराजय पर बहस होती रही थी. पाकिस्तानी मीडिया पर विशेषज्ञों से लेकर जनता उन कारणों को तलाश रहे थे, जिनके चलते उस जंग में उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी. सोशल मीडिया पर पाकिस्तान एयर फोर्स के पूर्व एयरचीफ मार्शल असगर खान का एक इंटरव्यू भी चलता रहा जिसमें वे कह रहे हैं कि युद्ध तो पाकिस्तान ने खुद ही शुरू किया था. वो तो यहां तक कहते हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच हुए सभी युद्ध उनके देश ने ही शुरू भी किए और हारे भी.

भारत-पाक युद्ध 6 सितंबर 1965 से ही शुरू होकर 23 सितंबर, 1965 तक चला

हमें इतिहास के पन्ने खोलने होंगे

दरअसल हमें 1965 की जंग पर बात करते हुए इतिहास के पन्नों को खंगालना होगा. भारत 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध में हारा था. तब देश में घोर निराशा और हताशा का माहौल था. नेहरु जी से देश का आमजन सख्त नाराज चल रहा था. पाकिस्तान को भी लग रहा था कि यही सही मौका है कि कश्मीर पर...

भारत 1965 में पाकिस्तान के विरूद्ध लड़ी गई जंग में अपनी भारी विजय को क्यों भूल गया? ये सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उस जंग को हारने के बाद भी पाकिस्तान तो अपनी करारी हार को भूला नहीं. पर हम शत्रु के दांत खट्टे करने के बाद भी 1965 के युद्ध को याद करने के लिए तैयार नहीं है. आखिर क्यों?

विगत 6 सितंबर को पाकिस्तान में उस जंग को याद किया गया. वो युद्ध 6 सितंबर 1965 से ही शुरू होकर 23 सितंबर, 1965 को अमरीकी हस्तक्षेप के बाद खत्म हुआ था. उस विजय को भुलाकर हम रणभूमि में तैनात रहे सैकड़ों शूरवीरों के साथ घोर अन्याय करते हैं, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी थी. यही नहीं, हम देश के उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कुशल नेतृत्व और हौसले को भी भुलाने का प्रयास करते हैं.

पाकिस्तान में पिछले दिनों भारत के साथ हुई उसकी 1965 की जंग में पराजय पर बहस होती रही थी. पाकिस्तानी मीडिया पर विशेषज्ञों से लेकर जनता उन कारणों को तलाश रहे थे, जिनके चलते उस जंग में उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी. सोशल मीडिया पर पाकिस्तान एयर फोर्स के पूर्व एयरचीफ मार्शल असगर खान का एक इंटरव्यू भी चलता रहा जिसमें वे कह रहे हैं कि युद्ध तो पाकिस्तान ने खुद ही शुरू किया था. वो तो यहां तक कहते हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच हुए सभी युद्ध उनके देश ने ही शुरू भी किए और हारे भी.

भारत-पाक युद्ध 6 सितंबर 1965 से ही शुरू होकर 23 सितंबर, 1965 तक चला

हमें इतिहास के पन्ने खोलने होंगे

दरअसल हमें 1965 की जंग पर बात करते हुए इतिहास के पन्नों को खंगालना होगा. भारत 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध में हारा था. तब देश में घोर निराशा और हताशा का माहौल था. नेहरु जी से देश का आमजन सख्त नाराज चल रहा था. पाकिस्तान को भी लग रहा था कि यही सही मौका है कि कश्मीर पर कब्जा जमा लिया जाए क्योंकि अभी भारत का मनोबल टूटा हुआ है. इस सोच के पीछे राष्ट्रपति अयूब खान और उनके विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की भारी गलतफहमी थी.

बहरहाल पाकिस्तान ने जनवरी 1965 से ही कच्छ में अपनी नापाक हरकतें चालू कर दीं थीं. पाकिस्तान के अदूरदर्शी सेना प्रमुख मूसा खान ने कच्छ के बाद अधिकृत कश्मीर की ओर से भारतीय सीमा में घुसपैठ चालू कर दी. वह भारत को कच्छ और कश्मीर में एक साथ उलझा देना चाहता था. लेकिन, लाल बहादुर शास्त्री की ललकार पर भारतीय सेना ने दुश्मन की कमर ही तोड़ दी. लाहौर भारतीय सेना के कब्जे से बहुत दूर नहीं रह गया था. भारतीय सेना ने लाहौर के एक पुलिस थाने पर कब्ज़ा कर लिया था और लाहौर इंटरनेशनल एयरपोर्ट को भी घेर लिया था. यानी कश्मीर पर कब्जा जमाने की चाहत रखने वाला पाकिस्तान लाहौर को खोने ही वाला था. भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) से करीब आठ किलोमीटर दूरी पर स्थित हाजी पीर पास पर अपना कब्जा जमा लिया था. 6 सितंबर को भारत की ओर से इस युद्ध की शुरुआत की आधिकारिक घोषणा की गई.

कश्मीर पर कब्जा जमाने की चाहत रखने वाला पाकिस्तान लाहौर को खोने ही वाला था

दरअसल 1965 की जंग भारतीय सेना के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का शानदार उदाहरण भी था. उस जंग में भारतीय वायुसेना के प्रमुख एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह थे. वे सिख थे. उन्हें भारत सरकार ने वायुसेना में सर्वोच्च मार्शल का पद दिया था. उनका 2017 में निधन हुआ. जब पकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के इरादे से पाकिस्तान ने अखनूर पर हमला किया. तब रक्षामंत्री वाईबी चव्हाण ने एयर मार्शल अर्जन सिंह से पूछा कि पाकिस्तान पर हवाई हमला करने के लिए उन्हें कितना वक्त चाहिए. अर्जन ने वाईबी चव्हाण से कहा, ‘60 मिनट’. लेकिन 26 मिनट के बाद ही भारतीय वायुसेना जहाज ने पाकिस्तान पर हवाई हमला करने के लिए निकल गए.

मैं एयर मार्शल अर्जन सिंह से कई बार उनके वसंत विहार दिल्ली के आवास पर मिला. वे जनरल जगजीत सिंह अरोरा के साढू भाई थे जिन्होंने 1971 के युद्ध में एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों का एतिहासिक आत्म समर्पण करवाया था. मुझे 1971 में उस युद्ध के दौरान जनरल अरोरा के साथ काम करने का सौभाग्य मिला था. निजी बातचीत में अर्जन सिंह कहते थे कि उन्हें पाकिस्तान के साथ जंग के जल्दी खत्म होने का सदा मलाल रहेगा. एक बार उन्होंने कहा भी था ‘हम जब पाकिस्तान को पूरी तरह तबाह करने की स्थिति में थे, तभी युद्ध विराम हो गया. उस समय हम पाकिस्तान के किसी भी हिस्से को नष्ट कर सकते थे. पाकिस्तान के विमान एक-एक करके खत्म हो रहे थे. पाकिस्तान तुरंत युद्ध-विराम चाहता था.’

लखनऊ से संबंध रखने वाले एयरफोर्स के फाइटर पायलट शहीद ट्रेवर किलर और एयर मार्शल डेंजिल किलर ईसाई थे. 1965 की जंग में इन दोनों की शौर्य गाथा सदैव याद रखी जानी चाहिए.

युद्ध में भारत की जीत को याद रखना चाहिए

शहीद अब्दुल हमीद की बहादुरी का उल्लेख किए बगैर 1965 युद्ध की चर्चा अधूरी ही रहेगी. उनका जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में हुआ था. वे 27 दिसम्बर 1954 को सेना में शामिल हुए. उन्हें 1965 की जंग में असाधारण बहादुरी के लिए महावीर चक्र और परमवीर चक्र प्राप्त हुआ. 8 सितम्बर 1965 की रात में, पाकिस्तान द्वारा पंजाब के तरनतारन जिले के खेमकरण सेक्टर में हमला बोला गया था. उस हमले का जवाब देने के लिए भारतीय सेना के जवान खड़े हो गए. अब्दुल हमीद की टुकड़ी पर उस समय के अपराजेय माने जाने वाले "अमेरिकन पैटन टैंकों" के साथ, खेमकरण सेक्टर में पाकिस्तानी फौजों ने हमला कर दिया.

अब्दुल हमीद ने अपनी जीप में बैठ कर अपनी गन से पैटन टैंकों के कमजोर अंगों पर एकदम सटीक निशाना लगाकर एक-एक कर उन्हें ध्वस्त करना प्रारम्भ कर दिया. उनको ऐसा करते देख अन्य सैनिकों का भी हौसला बढ़ गया और देखते ही देखते पाकिस्तान फ़ौज में भगदड़ मच गई. अब्दुल हमीद ने अपनी एक "गन माउनटेड जीप" से सात "पाकिस्तानी पैटर्न टैंकों" को नष्ट किया था. देखते ही देखते खेमकरण क्षेत्र पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह बन गया. पर भागते हुए पाकिस्तानियों का पीछा करते वीर अब्दुल हमीद की जीप पर एक गोला गिर जाने से वे बुरी तरह से घायल हो गए और 9 जुलाई को उनका स्वर्गवास हो गया. लेकिन, वे शहीद होने से पहले वे देश को युद्ध में निर्णायक बढ़त तो दिलवा ही चुके थे.

1965 युद्ध के वक्त लाल बहादुर शात्री

निस्संदेह 1965 के युद्ध ने लाल बहदुर शास्त्री को महानायक का दर्जा दिलवा दिया था. शास्त्री जी के जज्बे के चलते अयूब खान की धारणा गलत सिद्ध हुई कि एक मुस्लिम सैनिक 'दस हिंदू सैनिकों' के बराबर है. लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय सेनाओं को लड़ाई का क्षेत्र सिर्फ जम्मू-कश्मीर तक सीमित न रखकर पाकिस्तान से जुड़ी पूरी अंतर्राष्ट्रीय सीमा तक फैलाने को कहा था और सेना लाहौर और सियालकोट को निशाना बनाने की तैयारी में थी. शास्त्री जी के अदम्य साहसिक फैसलों के चलते पाकिस्तान युद्ध में चारों खाने चित हो गया था. पर दुर्भाग्य से शास्त्री जी को भी 1965 के युद्ध के बहाने से भी कोई याद नहीं कर रहा. उनके कुशल नेतृत्व के चलते ही 1962 की जंग में चीन से हारा भारत पाकिस्तान सेनाओं पर टूट पड़ा और विजय श्री पाई थी.

यूं तो राजधानी में इंडिया गेट के पास युद्ध समारक बन रहा है. आजादी के बाद देश की सेनाओं ने चीन के खिलाफ 1962 में और पाकिस्तान के खिलाफ 1948, 1965, 1971 और 1999 में भयंकर युद्ध लड़े. 1987 से 1990 तक श्रीलंका में ऑपरेशन पवन के दौरान भारतीय शांति सेना के शौर्य को भी नहीं भुलाया जा सकता है. 1948 में 1,110 जवान, 1962 में 3,250 जवान, 1965 में 364 जवान, श्रीलंका में 1,157 जवान और कारगिल में 1999 में हुई जंग में 522 जवान शहीद हुए. ऐसे अर्धसैनिक बलों के जवानों की संख्या भी कम नहीं है जो अलगाववादियों के हौसलों को पस्त करते हुए शहीद हुए. पर बदले में देश इन वीरों का स्मरण तो कर ही सकता है. हमें अपने कर्म से यह तो साबित करने का वक्त आ ही गया है कि-

“शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का, यहीं बाकी निशां होगा”

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ये भारतीय सेना ही है जो दुश्‍मन सैनिक की बहादुरी को भी सम्‍मान दिलवाती है

तो इसलिए हमें, 'न' कहकर युद्ध या युद्ध की बातों से दूर रहना चाहिए


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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