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महाराष्‍ट्र चुनाव से पहले कांग्रेस-एनसीपी का जहाज डूबने के कगार पर क्यों?

    • साहिल जोशी
    • Updated: 29 जुलाई, 2019 05:53 PM
  • 29 जुलाई, 2019 05:53 PM
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देश में भले ही परिवारवाद का चेहरा गांधी परिवार हो, लेकिन परिवारवाद राजनीति में जड़ों तक जा पहुंचा है. खासकर एनसीपी ने पार्टी में परिवारवाद को खूब पनपने दिया. नेता पुराना हुआ तो उनके बेटे या बेटी को आगे कर पार्षद, विधायक, मंत्री बनाया.

एक जमाना था जब भारत में सिर्फ अमीर लोग मोबाइल फोन खरीद सकते थे. उस वक्त मोबाइल से कॉल करने के लिये पैसे लगते और कॉल आने पर यानी इनकमिंग पर भी पैसे लगते. लेकिन जैसे ही इनकमिंग फ्री हुई, मोबाइल फोन करीब-करीब हर शख्स के हाथ में नजर आने लगा. मोबइल का एक खास स्थान था, वो भी खत्म हुआ. लगता है बीजेपी और शिवसेना में भी महाराष्ट्र में यही हो रहा है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इन पार्टीयों में इनकमिंग फ्री हो गई है. कांग्रेस एनसीपी के किसी भी नेता को, जिसके आने से इन्हें फायदा होगा, उसे ले लिया जा रहा है.

परिवारवाद की इन कमिंग

सुजय विखे पाटिल, रणजित मोहिते पाटिल, कंचन कुल, रणजीत निंबालकर, समीर मेघे, शिवेंद्र भोसले, वैभव पिचड, इंद्रनील और ययाति नाईक, संदीप नाईक- ये सारे नाम महाराष्ट्र की राजनीति में परिचित हैं, खुद के काम से ज्यादा उनके पिता और परिवार के नाम से. ये सारे कांग्रेस और एनसीपी के बड़े परिवार हैं, जिनकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी राजनीति में है. सालों-साल कांग्रेस-एनसीपी सरकार के सत्ता में रहने के बाद अब जब दोनों की स्थिति बदहाल है. इससे कुछ नेताओं ने बीजेपी और शिवसेना में प्रवेश कर लिया तो कुछ लोग प्रवेश करने की दहलीज पर हैं. कांग्रेस और एनसीपी के लिये भी ये बड़ा झटका है. देश में भले ही परिवारवाद का चेहरा गांधी परिवार हो, लेकिन परिवारवाद राजनीति में जड़ों तक जा पहुंचा है. खासकर एनसीपी ने पार्टी में परिवारवाद को खूब पनपने दिया. नेता पुराना हुआ तो उनके बेटे या बेटी को आगे कर पार्षद, विधायक, मंत्री बनाया. इस प्रक्रिया में पार्टी का नेतृत्व ये भूल गया कि शुरुआत में तो पार्टी खूब बढ़ेगी, लेकिन पार्टी का ढांचा कमजोर होगा. सड़क पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को कभी नहीं लगेगा कि मेहनत करने से उसे कभी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा. आज जब पार्टी चुनाव जीतने में असक्षम दिख रही है तो नई पीढ़ी बीजेपी का हाथ थाम कर आउटगोइंग कर रही है. और अब पार्टी के पास उनकी जगह लेने के लिये कोई नेता या कार्यकर्ता भी नहीं है. वहीं परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस एनसीपी को घेरने वाली बीजेपी के पास परिवारवाद से बनी हुई पीढ़ी हाजिर हो गई है.

एक जमाना था जब भारत में सिर्फ अमीर लोग मोबाइल फोन खरीद सकते थे. उस वक्त मोबाइल से कॉल करने के लिये पैसे लगते और कॉल आने पर यानी इनकमिंग पर भी पैसे लगते. लेकिन जैसे ही इनकमिंग फ्री हुई, मोबाइल फोन करीब-करीब हर शख्स के हाथ में नजर आने लगा. मोबइल का एक खास स्थान था, वो भी खत्म हुआ. लगता है बीजेपी और शिवसेना में भी महाराष्ट्र में यही हो रहा है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इन पार्टीयों में इनकमिंग फ्री हो गई है. कांग्रेस एनसीपी के किसी भी नेता को, जिसके आने से इन्हें फायदा होगा, उसे ले लिया जा रहा है.

परिवारवाद की इन कमिंग

सुजय विखे पाटिल, रणजित मोहिते पाटिल, कंचन कुल, रणजीत निंबालकर, समीर मेघे, शिवेंद्र भोसले, वैभव पिचड, इंद्रनील और ययाति नाईक, संदीप नाईक- ये सारे नाम महाराष्ट्र की राजनीति में परिचित हैं, खुद के काम से ज्यादा उनके पिता और परिवार के नाम से. ये सारे कांग्रेस और एनसीपी के बड़े परिवार हैं, जिनकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी राजनीति में है. सालों-साल कांग्रेस-एनसीपी सरकार के सत्ता में रहने के बाद अब जब दोनों की स्थिति बदहाल है. इससे कुछ नेताओं ने बीजेपी और शिवसेना में प्रवेश कर लिया तो कुछ लोग प्रवेश करने की दहलीज पर हैं. कांग्रेस और एनसीपी के लिये भी ये बड़ा झटका है. देश में भले ही परिवारवाद का चेहरा गांधी परिवार हो, लेकिन परिवारवाद राजनीति में जड़ों तक जा पहुंचा है. खासकर एनसीपी ने पार्टी में परिवारवाद को खूब पनपने दिया. नेता पुराना हुआ तो उनके बेटे या बेटी को आगे कर पार्षद, विधायक, मंत्री बनाया. इस प्रक्रिया में पार्टी का नेतृत्व ये भूल गया कि शुरुआत में तो पार्टी खूब बढ़ेगी, लेकिन पार्टी का ढांचा कमजोर होगा. सड़क पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को कभी नहीं लगेगा कि मेहनत करने से उसे कभी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा. आज जब पार्टी चुनाव जीतने में असक्षम दिख रही है तो नई पीढ़ी बीजेपी का हाथ थाम कर आउटगोइंग कर रही है. और अब पार्टी के पास उनकी जगह लेने के लिये कोई नेता या कार्यकर्ता भी नहीं है. वहीं परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस एनसीपी को घेरने वाली बीजेपी के पास परिवारवाद से बनी हुई पीढ़ी हाजिर हो गई है.

देश में भले ही परिवारवाद का चेहरा गांधी परिवार हो, लेकिन परिवारवाद राजनीति में जड़ों तक जा पहुंचा है.

जब मिल रहा है इतना समर्थन तो इनकी क्या जरूरत ?

मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कह रहे हैं कि बीजेपी को मिल रहा जनसमर्थन देखकर ये लोग बीजेपी मे प्रवेश कर रहे हैं. फिर सवाल ये उठता है कि अगर इतना समर्थन मिल ही रहा है तो गैरों की जगह पार्टी के ही पुराने कार्यकर्ताओं को टिकट क्यों नहीं दे रहे? इस पर बीजेपी की सोच साफ है, चुनाव जीतने की क्षमता रखने वाले को ही चुनाव मैदान में उतारना चाहिये. लेकिन इससे भी ज्यादा बीजेपी को इस बात का अहसास है कि कांग्रेस या एनसीपी को खत्म करने के लिए तो उनकी जड़ें उखाड़नी होंगी. खासकर महाराष्ट्र जैसे राज्य में, जिसने मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी कांग्रेस को कभी उखड़ने नहीं दिया. सालों-साल पार्टी के साथ जुडे रहे कांग्रेसी परिवारों को ले आओ तो कांग्रेस और एनसीपी अपने आप कमजोर हो जाएगी.

बीजेपी से छुआछूत खत्म

एक वक्त था कि बीजेपी या जनसंघ से बहुजन समाज के लोग दूर ही रहते थे. सेठजी भटजी की पार्टी कही जाने वाली पार्टी को गोपीनाथ मुंडे ने अपना ओबीसी चेहरा दिया लेकिन, फिर भी मराठा ( मराठी नहीं ) समाज के लिये कांग्रेसी, समाजवादी विचारधारा को छोड़ बीजेपी में जाना मुश्किल था, बीजेपी उनके लिये अछूत पार्टी थी. लेकिन अब-जब राजनीति मे विचारधारा की दीवारें टूट चुकी हैं, अब मराठा राजनीतिक परिवार से नेताओं का बीजेपी में आना मतलब अब बीजेपी में आना कोई निषेध नहीं रहा. ये बीजेपी की राजनीति के लिये सर्वसमावेषक चेहरा बनने का अच्छा मौका है .

शिवसेना बीजेपी का बंटवारा

वैसे पार्टी बदलने वालों की पहली ख्वाहिश या च्वाइस बीजेपी ही है, लेकिन जब उम्मीद से ज्यादा या कहें कि छप्पर फाड़कर नेता पार्टी में आने लगते हैं तो उनको समाना भी मुश्किल होता है, वो भी तब जब पार्टी गठबंधन मे चुनाव लड़ रही हो. जो ऐलान किया है उसके मुताबिक शिवसेना बीजेपी समसमान सीटों पर चुनाव लडने वाली है. मुश्किल बीजेपी की है, क्योंकि बीजेपी के 123 विधायक हैं और समान सीटों का बटंवारा होने पर उन्हें 10 से 12 ही ज्यादा सीटें मिल सकती हैं. ऐसे में जिन सीटों पर उनके लड़ने की संभावना कम हो वहां पर आने वाले नेताओं को शिवसेना मे भी भेजा जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद बीजेपी ये भी देख रही है कि अगर ये मुश्किल सा बंटवारा सफल नहीं हुआ और 2014 की तरह अलग लड़ने की नौबत आई तो इतने लोग हों कि खुद के बल बूते चुनाव जीत सकें.

लेकिन इसके साथ-साथ ये शरद पवार और कांग्रेस के लिये बुरी खबर है, क्योंकि महाराष्ट्र की राजनीति में उनका दबदबा घटने का अहसास सबको हो रहा है. विपक्ष की राजनीति जो बीजेपी और शिवसेना ने सालोंसाल की, लेकिन उसके बावजूद वो टिके रहे. वहीं दूसरी तरफ सालोंसाल सत्ता में रहने वाले इन कांग्रेसी परिवारों को और पांच साल विपक्ष में ना बैठना पड़े, इसके लिये विरोधी विचारधारा का दामन पकड़ने से भी परहेज नहीं है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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