• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

कांग्रेस यूपी में गठबंधन की बात क्‍यों छुपा रही है ?

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 26 दिसम्बर, 2016 05:21 PM
  • 26 दिसम्बर, 2016 05:21 PM
offline
नेता जो भी समझाएं, लेकिन न तो कार्यकर्ता नासमझ हैं - और न ही कांग्रेस के बचे खुचे समर्थक. राजनीति की खबरों पर वो ध्यान भी देते हैं और अच्छी तरह समझते भी हैं.

खबर आती है कि कांग्रेस और यूपी में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में गठबंधन लगभग पक्का है, बात बस सीटों पर जाकर अटक गई है. फिर पता चलता है कि डिप्टी सीएम को लेकर भी पेंच फंसा हुआ है. तभी कार्यकर्ताओं को एक मैसेज मिलता है कि ये सब विरोधियों की साजिश है.

कांग्रेस के यूपी अध्यक्ष राज बब्बर इस मैसेज में कार्यकर्ताओं से चुनाव में पूरी तैयारी के साथ जुटने का आह्वान करते हैं. ये भी बताते हैं कि विरोधी दल जानबूझकर अलाएंस की बात को हवा दे रहे हैं. दलील ये कि विरोधी, असल में, राहुल गांधी की यूपी में हो रही कामयाब रैलियों से परेशान हैं.

कार्यकर्ता क्या करें?

जाहिर है कार्यकर्ता खबरों पर गौर नहीं करेंगे, बल्कि अपने नेता की बात मानेंगे. फिर चुनावी तैयारी में जुटते हुए वे लोगों को भी यही बात समझाने की कोशिश करेंगे. लेकिन कितने लोगों को उनकी बात पर पूरी तरह यकीन होगा? क्या सूत्रों के हवाले से आ रही खबरें कहीं पक रही खिचड़ी के लिए जलाई गई आग का धुआं भी नहीं हैं?

इसे भी पढ़ें : मुलायम और कांग्रेस गठबंधन में रोड़ा कौन, 100 सीटें या डिप्टी सीएम की पोस्ट?

वैसे कार्यकर्ताओं का क्या? आखिरी वक्त में उन्हें बता दिया जाएगा कि जिन्हें अब तक वे दुश्मन मानते आ रहे थे उन्हें वे सबसे अच्छे दोस्त समझें. उनके साथ मिल कर चुनाव प्रचार करें. बिहार चुनाव में लालू-नीतीश के गठबंधन में ये सबसे बड़ी चुनौती थी - लेकिन उन्होंने इसे आड़े नहीं आने दिया.

अगर ना-ना करके कांग्रेस भी किसी दिन कार्यकर्ताओं को बता देती है कि गठबंधन हो गया है तो उनके सामने लोगों को समझाने की चुनौती खड़ी हो जाएगी.

डील... नो डील!

नेता जो भी समझाएं, लेकिन न तो कार्यकर्ता नासमझ हैं - और न ही कांग्रेस के बचे खुचे समर्थक....

खबर आती है कि कांग्रेस और यूपी में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में गठबंधन लगभग पक्का है, बात बस सीटों पर जाकर अटक गई है. फिर पता चलता है कि डिप्टी सीएम को लेकर भी पेंच फंसा हुआ है. तभी कार्यकर्ताओं को एक मैसेज मिलता है कि ये सब विरोधियों की साजिश है.

कांग्रेस के यूपी अध्यक्ष राज बब्बर इस मैसेज में कार्यकर्ताओं से चुनाव में पूरी तैयारी के साथ जुटने का आह्वान करते हैं. ये भी बताते हैं कि विरोधी दल जानबूझकर अलाएंस की बात को हवा दे रहे हैं. दलील ये कि विरोधी, असल में, राहुल गांधी की यूपी में हो रही कामयाब रैलियों से परेशान हैं.

कार्यकर्ता क्या करें?

जाहिर है कार्यकर्ता खबरों पर गौर नहीं करेंगे, बल्कि अपने नेता की बात मानेंगे. फिर चुनावी तैयारी में जुटते हुए वे लोगों को भी यही बात समझाने की कोशिश करेंगे. लेकिन कितने लोगों को उनकी बात पर पूरी तरह यकीन होगा? क्या सूत्रों के हवाले से आ रही खबरें कहीं पक रही खिचड़ी के लिए जलाई गई आग का धुआं भी नहीं हैं?

इसे भी पढ़ें : मुलायम और कांग्रेस गठबंधन में रोड़ा कौन, 100 सीटें या डिप्टी सीएम की पोस्ट?

वैसे कार्यकर्ताओं का क्या? आखिरी वक्त में उन्हें बता दिया जाएगा कि जिन्हें अब तक वे दुश्मन मानते आ रहे थे उन्हें वे सबसे अच्छे दोस्त समझें. उनके साथ मिल कर चुनाव प्रचार करें. बिहार चुनाव में लालू-नीतीश के गठबंधन में ये सबसे बड़ी चुनौती थी - लेकिन उन्होंने इसे आड़े नहीं आने दिया.

अगर ना-ना करके कांग्रेस भी किसी दिन कार्यकर्ताओं को बता देती है कि गठबंधन हो गया है तो उनके सामने लोगों को समझाने की चुनौती खड़ी हो जाएगी.

डील... नो डील!

नेता जो भी समझाएं, लेकिन न तो कार्यकर्ता नासमझ हैं - और न ही कांग्रेस के बचे खुचे समर्थक. राजनीति की खबरों पर वो ध्यान भी देते हैं और अच्छी तरह समझते भी हैं.

एक दिन शिवपाल यादव जेडीयू नेता केसी त्यागी से मिलने उनके घर पहुंचते हैं. खबर आती है कि कांग्रेस के लिए चुनावी रणनीति बना रहे प्रशांत किशोर यानी पीके वहां पहले से मौजूद थे. बाद में जब शिवपाल से इस बारे में पूछा गया तो उनका कहना था - वो तो किसी पीके को पहचानते ही नहीं. ठीक वैसे ही जैसे न तो समाजवादी पार्टी में कोई विवाद हुआ न अखिलेश से हाथापाई - या माइक छीनने जैसी बात.

"अच्छा लड़का है..."

फिर वही पीके मुलायम सिंह के साथ मुलाकात करते हैं, साथ में शिवपाल भी होते हैं. पीके के बारे में अब उनसे पूछने की जरूरत नहीं होती.

अब कांग्रेस के नेता प्रकट होते हैं. समझाते हैं कि पीके के किसी से मिलने पर कोई पाबंदी तो है नहीं. यानी मान लिया जाए कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में गठबंधन जैसी कोई बातचीत नहीं हो रही.

बीच बीच में यूपी के सीएम अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों एक दूसरे को अच्छा लड़का बताते हुए तारीफ करते हैं. राजनीति में किसी की तारीफ में इतने कसीदे यूं ही नहीं पढ़े जाते. वो भी तब जब दोनों के बीच सीधा राजनीतिक टकराव हो.

तभी ऐसा मौका आता है कि अखिलेश यादव से गठबंधन को लेकर सवाल पूछ लिया जाता है. अखिलेश यादव की राय भी पता चल जाती है - "वैसे तो समाजवादी पार्टी अकेले बहुत की सरकार बनाएगी, अगर कांग्रेस से गठबंधन हो जाये तो सीटें 300 पहुंच सकती हैं."

चलते चलते टर्म्स और कंडीशंस वाली स्टाइल में जोड़ भी देते हैं - गठबंधन के बारे में आखिरी फैसला नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव ही लेंगे.

आखिर पेंच क्या है

कहानी में ट्विस्ट ये है कि पीके की ज्यादा व्यस्तता इन दिनों पंजाब में हो गई है. यूपी में काम कर रही उनकी टीम के लोग भी उन्हें ज्वाइन कर चुके हैं.

क्या इसके पीछे कोई खास वजह है? क्या पंजाब में स्थिति ऐसी हो गई है कि पीके की मौजूदगी जरूरी है या फिर यूपी में उनका टास्क पूरा हो गया है. सीधा सा जवाब किसी के पास नहीं है. जो कोई भी मीडिया पर्सन इस बारे में पूछ रहा है उसे हां या ना के अलावा तीसरा शब्द जवाब में सुनने को नहीं मिलता. कुछ सवाल ऐसे भी होते हैं जिनका जवाब खामोशी होती है. अब ये अलग रहस्य है कि कांग्रेस से पूछे जाने वाले सवालों के ज्यादातर जवाब खामोशी में ही क्यों मिलते हैं.

फिर शब्दों पर न जाकर भावों को पढ़ने की कोशिश होती है. बातचीत में थोड़ी बहुत बात खुलती भी है. मालूम होता है कि कांग्रेस में वो धड़ा नेतृत्व को ये समझाने में कुछ हद तक कामयाब हो चला है कि पार्टी को पीके जिस दिशा में ले जाना चाहते हैं वो मुमकिन नहीं है. हर तर्क अपने ऑब्जेक्टिव के हिसाब से गढ़ा जाता है, इस मामले में भी ऐसा हो सकता है.

इसे भी पढ़ें : यूपी में मुलायम-कांग्रेस गठबंधन बिहार जैसे नतीजे की गारंटी नहीं

तो क्या पीके के पंजाब में एक्टिव होने से मान लिया जाये कि यूपी में गठबंधन की कवायद खत्म हो चुकी है? इसका मतलब कांग्रेस नेता के मैसेज पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेना चाहिए.

नहीं. तो फिर? राजनीति को भी जब तब तारक मेहता के उल्टे चश्मे से देखना चाहिये. तब तो जेठालाल चंपकलाल गड़ा के जीवन की घटनाओं को सियासी सौदेबाजी का मजमून मान कर चलना चाहिये.

वक्त की नजाकत देखिये. जो अमर सिंह हाशिये पर होने की बात करते हैं मालूम होता है कि गठबंधन फाइनल कराने की डील में धमाकेदार एंट्री कर चुके हैं. अमर सिंह कांग्रेस नेताओं से मुलाकात करते हैं. दिल्ली में लखनऊ में तमाम निगोशिएशन होते हैं - ये वही अमर सिंह हैं जिन्होंने न्यूक्लियर डील पर लेफ्ट के समर्थन वापस लेने की स्थिति में यूपीए की सरकार बचाई थी - समाजवादी पार्टी से सपोर्ट दिला कर.

लेकिन कांग्रेस की ओर से लगातार खंडन अभियान क्यों चलाया जा रहा है? कहते हैं जब तक कोई काम पूरा न हो उस पर चर्चा नहीं करते - नजर लग जाती है. शायद ये भी एक वजह हो!

वैसे अमर सिंह के लिए भी राह बहुत आसान नहीं है. डिप्टी सीएम पर डील अभी अधर में ही है कि अमेठी सीट को लेकर भी पेंच फंसा हुआ है. अमेठी से अमिता सिंह टिकट की दावेदार हैं. ऐसा मुमकिन तभी हो पाएगा जब समाजवादी पार्टी ये सीट छोड़ दे. दिलचस्प बात ये है कि गायत्री प्रसाद प्रजापति वहां से मौजूदा विधायक हैं - मुलायम सिंह यादव के कितने करीबी हैं बताने की जरूरत नहीं है. सबसे मजेदार बात ये है कि कांग्रेस गायत्री को कोई और सीट दे देने की सलाह दे रही है. फैसला अखिलेश को करना होता तो कुछ गुंजाइश भी होती, लेकिन अंतिम फैसला तो मुलायम सिंह ही लेते हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲