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गांधी-नेहरू का नाम लेकर बुलडोजर नीति पर सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं?

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 14 जून, 2022 05:48 PM
  • 14 जून, 2022 05:48 PM
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खुद को सोशल एक्टिविस्ट बताने वाले प्रयागराज हिंसा (Prophet remark row) के मास्टरमाइंड जावेद अहमद पंप के घर को प्रशासन ने बुलडोजर से ढहा दिया. जिसके बाद जावेद पंप के खिलाफ योगी सरकार की कार्रवाई को गलत साबित करने का माहौल बनाया जाने लगा है. और, इसके लिए उदाहरण गांधी-नेहरू (Gandhi Nehru) का दिया जा रहा है.

खुद को सोशल एक्टिविस्ट बताने वाले प्रयागराज हिंसा के मास्टरमाइंड जावेद अहमद पंप के घर को प्रशासन ने बुलडोजर से ढहा दिया. इसके बाद सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेट तक में दावा किया जा रहा है कि जावेद अहमद का मकान उनकी पत्नी के नाम था. और, उसे बनाने में जावेद पंप का पैसा नहीं लगा था. इतना ही नहीं, जावेद पंप के खिलाफ हुई बुलडोजर की कार्रवाई की आलोचना करने के लिए कुछ बुद्धिजीवी वर्ग के लोग ये भी तर्क देते नजर आ रहे हैं कि 'अंग्रेजों के खिलाफ 'देश छोड़ो आंदोलन' चलाने वाले महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की संपत्तियों पर बुलडोजर नहीं चलवाया था. लेकिन, आज के समय में बुलडोजर की कार्रवाई के आगे कानून भी कुछ नहीं कर पा रहा है.' इन सबके बीच योगी सरकार की 'बुलडोजर नीति' पर जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि गांधी-नेहरू का नाम लेकर बुलडोजर नीति पर सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं?

तुलना करने वाले ये नहीं बता रहे हैं कि क्या उनकी नजरों में हिंसा का आरोपी जावेद पंप और गांधी-नेहरू एक बराबर हैं?

गांधी-नेहरू पर क्यों नहीं हुई बुलडोजर की कार्रवाई?

अभी हाल ही में केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति का एक विज्ञापन काफी वायरल हो रहा है. जिसमें अमिताभ बच्चन सामने बैठे कंटेस्टेंट से जीपीएस चिप से जुड़ा एक सवाल पूछते हैं. और, गलत उत्तर देने पर कहते हैं कि 'ज्ञान जहां से भी मिले बटोर लो. लेकिन, उसे थोड़ा टटोल लो.' अमिताभ बच्चन की कही ये बात वैसे तो विज्ञापन का एक हिस्सा भर है. लेकिन, इस बात के निहितार्थ समझना बहुत जरूरी है. तो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अंग्रेजों ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू समेत तत्कालीन कांग्रेस के तकरीबन सभी बड़े नेताओं के खिलाफ 'बुलडोजर नीति' के तहत कार्रवाई नहीं की थी. लेकिन, ऐसा ना करने का कारण क्या था? चर्चा इस बात पर भी होनी चाहिए. क्योंकि, किसी भी मामले में 'अर्धसत्य' के सहारे किसी को सही और गलत नहीं ठहराया जा सकता है.

खुद को सोशल एक्टिविस्ट बताने वाले प्रयागराज हिंसा के मास्टरमाइंड जावेद अहमद पंप के घर को प्रशासन ने बुलडोजर से ढहा दिया. इसके बाद सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेट तक में दावा किया जा रहा है कि जावेद अहमद का मकान उनकी पत्नी के नाम था. और, उसे बनाने में जावेद पंप का पैसा नहीं लगा था. इतना ही नहीं, जावेद पंप के खिलाफ हुई बुलडोजर की कार्रवाई की आलोचना करने के लिए कुछ बुद्धिजीवी वर्ग के लोग ये भी तर्क देते नजर आ रहे हैं कि 'अंग्रेजों के खिलाफ 'देश छोड़ो आंदोलन' चलाने वाले महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की संपत्तियों पर बुलडोजर नहीं चलवाया था. लेकिन, आज के समय में बुलडोजर की कार्रवाई के आगे कानून भी कुछ नहीं कर पा रहा है.' इन सबके बीच योगी सरकार की 'बुलडोजर नीति' पर जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि गांधी-नेहरू का नाम लेकर बुलडोजर नीति पर सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं?

तुलना करने वाले ये नहीं बता रहे हैं कि क्या उनकी नजरों में हिंसा का आरोपी जावेद पंप और गांधी-नेहरू एक बराबर हैं?

गांधी-नेहरू पर क्यों नहीं हुई बुलडोजर की कार्रवाई?

अभी हाल ही में केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति का एक विज्ञापन काफी वायरल हो रहा है. जिसमें अमिताभ बच्चन सामने बैठे कंटेस्टेंट से जीपीएस चिप से जुड़ा एक सवाल पूछते हैं. और, गलत उत्तर देने पर कहते हैं कि 'ज्ञान जहां से भी मिले बटोर लो. लेकिन, उसे थोड़ा टटोल लो.' अमिताभ बच्चन की कही ये बात वैसे तो विज्ञापन का एक हिस्सा भर है. लेकिन, इस बात के निहितार्थ समझना बहुत जरूरी है. तो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अंग्रेजों ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू समेत तत्कालीन कांग्रेस के तकरीबन सभी बड़े नेताओं के खिलाफ 'बुलडोजर नीति' के तहत कार्रवाई नहीं की थी. लेकिन, ऐसा ना करने का कारण क्या था? चर्चा इस बात पर भी होनी चाहिए. क्योंकि, किसी भी मामले में 'अर्धसत्य' के सहारे किसी को सही और गलत नहीं ठहराया जा सकता है.

आखिर वो क्या वजह थी कि अंग्रेज अपने सबसे बड़े दुश्मनों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते थे? जबकि, भारत को आजाद कराने में अपने बलिदान के जरिये अमूल्य योगदान देने वाले क्रांतिकारियों को अंग्रेजी हुकूमत सीधे फांसी पर चढ़ा देती थी. दरअसल, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भारत की इन दोनों ही महान हस्तियों को अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जेलों में एक राजनीतिक कैदी की तरह रखा जाता था. आसान शब्दों में कहा जाए, तो जेल में रहने के दौरान महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को अखबार से लेकर बिस्तर तक सारी चीजें मुहैया कराई जाती थीं. वैसे, इसे 'जेल पर्यटन' नहीं कहा जा सकता है. वरना बहुतों की भावनाएं इस पर भी आहत हो जाएंगी. खैर, इतना जान लीजिए कि बेड़ियों में जकड़े हुए भगत सिंह तस्वीरें भारत के इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं.

बुलडोजर रोकने से बेहतर हिंसक प्रदर्शन रोकते!

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सूबे में हिंसक प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ कोई कोताही बरतने के मूड में नजर नहीं आ रहे हैं. ताबड़तोड़ गिरफ्तारियों से लेकर जावेद अहमद पंप के घर को जमींदोज करने की कार्रवाई पर शासन-प्रशासन के बीच बेहतरीन तालमेल नजर आ रहा है. लेकिन, इसी कार्रवाई पर AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी कहते हैं कि 'यूपी के मुख्यमंत्री अब उत्तर प्रदेश के चीफ जस्टिस बन चुके हैं. वो अब फैसला करेंगे कि किसका घर तोड़ना है.' वहीं, योगी सरकार की 'बुलडोजर नीति' के खिलाफ अब जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट का रुख कर लिया है. लेकिन, यहां अहम सवाल ये है कि जुमे की नमाज के बाद पत्थरबाजी और हिंसक प्रदर्शन करने वाले मुस्लिम समुदाय को रोकने के लिए इन्होंने क्या किया?

मुस्लिम समुदाय को पत्थरबाजी और हिंसक प्रदर्शन करने से रोकने के लिए असदुद्दीन ओवैसी और जमीयत उलेमा-ए-हिंद को किसी सुप्रीम कोर्ट का रुख करने की जरूरत नहीं थी. योगी आदित्यनाथ की बुलडोजर नीति पर हल्ला मचा रहे ये तमाम लोग इस बात पर चुप्पी साध जाते हैं. लेकिन, उपद्रवियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने पर इन्हें उम्मत-ए-मोहम्मदी की फिक्र सताने लगती है. सीधी सी बात है कि अगर देश के संविधान और कानून पर भरोसा रखते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते, तो किसी के खिलाफ बुलडोजर की कार्रवाई की क्या ही जरूरत पड़ती? लेकिन, सीएए विरोधी दंगे करने वालों की 'भीड़' से इस बात की उम्मीद रखना शायद बेमानी ही होगा. इस्लामिक देशों ने नूपुर शर्मा के बयान पर ऐतराज क्या जताया? हिंसक प्रदर्शन करने वाले मुस्लिमों को लगने लगा कि उनका उत्पात जायज करार दे दिया जाएगा.

प्रयागराज हिंसा के आरोपी जावेद अहमद पंप के खिलाफ हुई बुलडोजर की कार्रवाई को कानून का पालन करने के लिए बाध्य करने के संदेश के तौर पर क्यों नहीं देखा जाता है? एक ऐसा लोकतांत्रिक देश जो संविधान और कानून से चलता हो, वहां ऐसे हिंसक प्रदर्शनों के लिए जगह नहीं हो सकती है. लोगों के बीच संदेश जाना जरूरी है कि भारत एक देश के तौर पर संविधान और कानून के पालन को ही सर्वोपरि मानता है. वरना कल को अगर इसे ही आधार मानकर ऐसे ही बहुसंख्यक हिंदू अपनी सुप्रीमेसी को स्थापित करने के लिए हिंसक प्रदर्शन करने लगेंगे, तो क्या होगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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