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क्या वाकई एक मुस्लिम भारत में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब नहीं देख सकता?

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 15 फरवरी, 2021 06:24 PM
  • 15 फरवरी, 2021 06:19 PM
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मुस्लिम नेता बड़े-बड़े संवैधानिक पदों तक पहुंचने के दौरान अपनी मुस्लिम पहचान को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते हैं. लेकिन, पद जाने के बाद चाहे-अनचाहे तौर पर उनकी मुस्लिम पहचान उन पर हावी हो जाती है. हामिद अंसारी के बाद राज्‍यसभा से विदा होने वाले गुलाम नबी आजाद ने भी देश में मुसलमानों के लिए समान अवसर न होने का मुद्दा बनाया है.

भारत हमेशा से ही अपने बहुलतावादी समाज की अवधारणा को लेकर जाना जाता रहा है. बीते कुछ सालों में इस अवधारणा में काफी बदलाव आए हैं और निश्चित तौर पर इसके पीछे एक बड़ी वजह राजनीति है. इसे बीते कुछ सालों में भाजपा के सत्ता में बने रहने और इसी दौरान AIMIM जैसी पार्टी के अप्रत्याशित प्रदर्शन से आसानी से समझा जा सकता है. इन राजनीतिक पार्टियों के प्रदर्शनों पर थोड़ा गौर से नजर डालेंगे, तो आपको बहुलतावाद के कमजोर होने का कारण दिख जाएगा. आज के दौर की राजनीति दो धर्मों के बीच एक 'अदृश्य खाई' खोदती जा रही है. भाजपा का चुनावों में साल दर साल लाजवाब प्रदर्शन अल्पसंख्यक वर्ग और AIMIM का अन्य राज्यों में सफल विस्तार बहुसंख्यक वर्ग के अवचेतन मन में धीरे-धीरे इसे और गहरा करता जा रहा है.

ऐसी स्थिति में अगर पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मुस्लिम और मुस्लिम पहचान के प्रति चिंता दिखाते हैं. पूर्व राज्यसभा सांसद गुलाम नबी आजाद ये कहते हैं कि किसी युवा मुस्लिम नेता के लिए पीएम बनने का सपना देखना मुश्किल है. इस पर आश्चर्य जताने की जरूरत किसी को नहीं होनी चाहिए. ये उस सच्चाई का एक ऐसा टुकड़ा है, जो व्यक्ति बड़े पदों पर रहते हुए जाहिर नहीं कर पाता है. इसका एक दूसरा टुकड़ा यह भी है कि ये सभी अपनी धार्मिक पहचान को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं. राजनीति के बड़े पदों पर आसीन ये लोग पद जाते ही सरकार और व्यवस्था के खिलाफ खड़े हो जाते हैं. भारत में मुस्लिम और मुस्लिम पहचान के लिए इन्हें खतरा नजर आने लगता है. ऐसा कहने वाले ये अकेले नहीं हैं. बॉलीवुड से भी ऐसी आवाजें आती रही हैं.

पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मुस्लिम और मुस्लिम पहचान के प्रति चिंता दिखाते हैं.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने देश भर में दलित समाज की राजनीति कर एक नई इबारत लिख दी थी. लेकिन, आज ऐसा कहा...

भारत हमेशा से ही अपने बहुलतावादी समाज की अवधारणा को लेकर जाना जाता रहा है. बीते कुछ सालों में इस अवधारणा में काफी बदलाव आए हैं और निश्चित तौर पर इसके पीछे एक बड़ी वजह राजनीति है. इसे बीते कुछ सालों में भाजपा के सत्ता में बने रहने और इसी दौरान AIMIM जैसी पार्टी के अप्रत्याशित प्रदर्शन से आसानी से समझा जा सकता है. इन राजनीतिक पार्टियों के प्रदर्शनों पर थोड़ा गौर से नजर डालेंगे, तो आपको बहुलतावाद के कमजोर होने का कारण दिख जाएगा. आज के दौर की राजनीति दो धर्मों के बीच एक 'अदृश्य खाई' खोदती जा रही है. भाजपा का चुनावों में साल दर साल लाजवाब प्रदर्शन अल्पसंख्यक वर्ग और AIMIM का अन्य राज्यों में सफल विस्तार बहुसंख्यक वर्ग के अवचेतन मन में धीरे-धीरे इसे और गहरा करता जा रहा है.

ऐसी स्थिति में अगर पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मुस्लिम और मुस्लिम पहचान के प्रति चिंता दिखाते हैं. पूर्व राज्यसभा सांसद गुलाम नबी आजाद ये कहते हैं कि किसी युवा मुस्लिम नेता के लिए पीएम बनने का सपना देखना मुश्किल है. इस पर आश्चर्य जताने की जरूरत किसी को नहीं होनी चाहिए. ये उस सच्चाई का एक ऐसा टुकड़ा है, जो व्यक्ति बड़े पदों पर रहते हुए जाहिर नहीं कर पाता है. इसका एक दूसरा टुकड़ा यह भी है कि ये सभी अपनी धार्मिक पहचान को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं. राजनीति के बड़े पदों पर आसीन ये लोग पद जाते ही सरकार और व्यवस्था के खिलाफ खड़े हो जाते हैं. भारत में मुस्लिम और मुस्लिम पहचान के लिए इन्हें खतरा नजर आने लगता है. ऐसा कहने वाले ये अकेले नहीं हैं. बॉलीवुड से भी ऐसी आवाजें आती रही हैं.

पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मुस्लिम और मुस्लिम पहचान के प्रति चिंता दिखाते हैं.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने देश भर में दलित समाज की राजनीति कर एक नई इबारत लिख दी थी. लेकिन, आज ऐसा कहा जा सकता है कि मायावती राजनीति के हाशिये पर हैं. इसके पीछे की वजह साफ है कि बसपा और मायावती का अभ्युदय विशेष तौर पर एक समाज को लेकर हुआ. देश भर में दलित राजनीति का एक बड़ा चेहरा बनकर उभरीं मायावती के लिए समाज के एक खास तबके की राजनीति करना ही आगे चलकर भारी पड़ गया. इसकी कई अलग-अलग वजहें हो सकती हैं. लेकिन, लोगों का उनसे मोहभंग हो गया. हालांकि, उनका काडर वोट अभी भी उनके साथ ही है. कहा जा सकता है कि एक समय के बाद लोग वर्ग विशेष की राजनीति करने वाली मायावती से कट गए.

मायावती, बरगद का वो विशाल वृक्ष हैं, जिसने अपने नीचे किसी अन्य पेड़-पौधे को उगने ही नहीं दिया. ये पौधा कोई भी हो सकता था. ऐसी ही स्थिति मुस्लिम समाज के सामने भी है. जब तक केवल मुस्लिम नेता ही मुसलमानों के नेता बने रहेंगे, तब तक ये मुस्लिम नेता बरगद के पेड़ बने रहेंगे. हमारे सामने पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह जैसा एक बड़ा उदाहरण मौजूद है. वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक सिफारिश लागू करके ओबीसी को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण दिया. सवर्ण समाज से होने के बावजूद उन्होंने ऐसा किया. जो दर्शाता है कि आप जाति या धर्म से ऊपर उठकर भी चीजों को कर सकते हैं. इस स्थिति को फिर से पाया जा सकता है, लेकिन राजनीति के चलते परस्पर भरोसे में आई कमी को पूरा किए बगैर ऐसा कर पाना मुश्किल है.

मैंने कई वामपंथियों को 'धर्म, जनता की अफीम है' कहते हुए सुना और देखा है. उनमें से कई जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते ही वापस अपने-अपने धर्म की ओर मुड़ गए. जबकि, जीवन भर उन्होंने धर्म को पीछे छोड़े रखा और उसका विरोध किया. दरअसल, जब आप जिंदगी में सबकुछ पा चुके हों और उम्र की आखिरी सीढियां उतर रहे हों, तो आप स्वत: ही 'घर वापसी' कर लेते हैं. ऐसा ही कुछ मुस्लिम नेताओं के साथ भी होता है. मुस्लिम नेता बड़े-बड़े संवैधानिक पदों तक पहुंचने के दौरान अपनी मुस्लिम पहचान को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते हैं. लेकिन, पद जाने के बाद चाहे-अनचाहे तौर पर उनकी मुस्लिम पहचान उन पर हावी हो जाती है. साथ ही सरकार और व्यवस्था से उनका भरोसा उठने लगता है. ये एक बहुत साधारण सी वजह है.

भारत के बहुलतावादी समाज में कई धर्म हैं. वहीं, अल्पसंख्यक वर्ग के अंदर भी कई धर्म हैं, जो सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम धर्म से भी अल्पसंख्यक हैं. बावजूद इसके देश में उनका प्रतिनिधित्व तकरीबन हर क्षेत्र में मुस्लिम धर्म से कहीं ज्यादा है. मनमोहन सिंह यूपीए सरकार के दौरान दस सालों तक देश के प्रधानमंत्री रहे. वह सिख धर्म से थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने में उनका सिख होना आड़े नहीं आया. जबकि, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में हिंदू-सिख धर्मों के बीच काफी वैमन्स्यता फैल गई थी. इन सबके बावजूद मनमोहन सिंह अपने ज्ञान और योग्यता की वजह से देश के प्रधानमंत्री बने. मनमोहन सिंह ने राजनीति में कभी अपनी धार्मिक पहचान का इस्तेमाल नहीं किया. पद से हटने के बाद भी वह निजी तौर पर सिख रहे, लेकिन देश के लिए मनमोहन सिंह ही रहे.

व्यक्तिगत तौर पर हमें धार्मिक पहचान को अपनाने उसे दर्शाने की संविधान से छूट मिली हुई है.

हामिद अंसारी हों या गुलाम नबी आजाद, ये लोग जब तक खुद पद पर रहे तब तक इन्हें अपनी धार्मिक पहचान याद नहीं आई. लेकिन, पद से हटते ही ये लोग एक तरह से अपनी धार्मिक पहचान के साथ मुस्लिम समाज को आगे बढ़ाने की वकालत करते नजर आते हैं. व्यक्तिगत तौर पर हमें धार्मिक पहचान को अपनाने उसे दर्शाने की संविधान से छूट मिली हुई है. लेकिन, अपनी धार्मिक पहचान को साथ लेकर आगे बढ़ने में आप का हाल मायावती जैसा ही होगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को मानने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के चलते ही प्रधानमंत्री बन सके. एक देश के तौर पर लोग आपको धर्मनिरपेक्ष रूप में ही पसंद करते हैं. लोकतांत्रिक देश की राजनीति में धार्मिक पहचान बनाए रखते हुए आगे बढ़ना संभव नहीं है.

गुलाम नबी आजाद का मानना है कि आने वाले कई दशकों तक किसी युवा मुस्लिम नेता का पीएम बनना मुश्किल है. लेकिन, वे यह नहीं बताते कि इसकी वजह क्या है? दरअसल, बहुलतावादी समाज को टुकड़ों में बांटकर उसकी राजनीति करते हुए आगे बढ़ने वाले नेताओं के लिए ये सपना मुश्किल ही रहेगा. स्वार्थपरक नेताओं की राजनीति के चलते मुस्लिम युवाओं के सपने उनसे छीन लिए जाते हैं. ऐसे मुस्लिम युवा जो अपनी धार्मिक पहचान को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना और कुछ करना चाहते हैं. वे इन नेताओं की वजह से ही आगे नहीं बढ़ पाते हैं. समावेशी राजनीति अपनाते हुए आगे बढ़ेंगे, तो न मुस्लिम खतरे में होंगे और न मुस्लिम पहचान.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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