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UP Elections: ब्राह्मण मतदाताओं और भाजपा के मन में एक-दूसरे को लेकर क्या चल रहा है?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 18 जनवरी, 2022 06:42 PM
  • 18 जनवरी, 2022 06:42 PM
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यूपी विधानसभा चुनाव (UP Elections 2022) में इस बार भाजपा-बसपा के साथ ही समाजवादी पार्टी की भी नजर ब्राह्मणों पर है. ब्राह्मण करीब 11 प्रतिशत हैं. और दलित-मुसलमानों के बाद लगभग सभी विधानसभा सीटों में मौजूदगी है. अब तक ब्राह्मणों का 80 प्रतिशत वोट भाजपा को मिलता रहा है.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (P Elections 2022) में इस बार भाजपा से ब्राह्मणों की नाराजगी के बहुत सारे तर्क गढ़े जा रहे हैं. कहा जा रहा कि योगी आदित्यनाथ की सरकार में भेदभावपूर्ण व्यवहार की वजह से ब्राह्मण बड़े पैमाने पर दूसरे दलों में बंट रहा है. इसे पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उन कोशिशों से भी हवा मिली- जिसके तहत उन्होंने कुछ बड़े ब्राह्मण चेहरों को पार्टी के साथ हाल के दिनों में जोड़ा है. खासकर पश्चिम-मध्य और पूर्वी हिस्से में कुछ ब्राह्मण नेताओं ने साइकिल की सवारी में दिलचस्पी दिखाई. जबकि कुछ पहले से ही पार्टी के साथ बने हुए हैं. इस बार अखिलेश ने परशुराम के प्रतीक को भी उसी तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की है जैसे कभी मायावती ने किया था. इसी कड़ी में सपा पश्चिम से पूरब के आखिर तक जहां ब्राह्मण मतदाता निर्णायक हो सकते हैं- वहां ब्राह्मण चेहरों को उतारकर एक फर्क पैदा करने की कोशिश की है.

सवाल है कि क्या सच में ब्राह्मण भाजपा से नाराज हैं? और अगर नाराज हैं भी तो क्या भाजपा अपने कोर वोट को लेकर फ़िक्रमंद है. और अगर भाजपा बहुत फिक्रमंद नहीं है तो उसके पीछे की वजह क्या है. अगर देखें तो यह कहने में दिक्कत नहीं कि ब्राह्मणों को लेकर भाजपा में किसी बड़ी योजना पर काम तो नहीं दिख रहा है. भाजपा के अब तक जितने भी पोस्टर सामने आए हैं उनमें ब्राह्मण नेताओं की गैरमौजूदगी को साफ़ इशारा संकेत माना जा सकता है कि वे पार्टी की केंद्रीय योजना का हिस्सा नहीं हैं. जब मुकाबले में सीधी चुनौती पेश कर रही सपा ब्राह्मणों को 'स्वाभिमान' के बहाने अपने पाले में जोड़ने की कोशिश कर रही है ठीक उसी वक्त परेशान होने की बजाय भाजपा ओबीसी और दलित मतों के लिए ज्यादा फिक्रमंदी जता रही है.

योगी आदित्यनाथ.

भाजपा के तमाम पोस्टर में कोई बड़ा ब्राह्मण...

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (P Elections 2022) में इस बार भाजपा से ब्राह्मणों की नाराजगी के बहुत सारे तर्क गढ़े जा रहे हैं. कहा जा रहा कि योगी आदित्यनाथ की सरकार में भेदभावपूर्ण व्यवहार की वजह से ब्राह्मण बड़े पैमाने पर दूसरे दलों में बंट रहा है. इसे पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उन कोशिशों से भी हवा मिली- जिसके तहत उन्होंने कुछ बड़े ब्राह्मण चेहरों को पार्टी के साथ हाल के दिनों में जोड़ा है. खासकर पश्चिम-मध्य और पूर्वी हिस्से में कुछ ब्राह्मण नेताओं ने साइकिल की सवारी में दिलचस्पी दिखाई. जबकि कुछ पहले से ही पार्टी के साथ बने हुए हैं. इस बार अखिलेश ने परशुराम के प्रतीक को भी उसी तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की है जैसे कभी मायावती ने किया था. इसी कड़ी में सपा पश्चिम से पूरब के आखिर तक जहां ब्राह्मण मतदाता निर्णायक हो सकते हैं- वहां ब्राह्मण चेहरों को उतारकर एक फर्क पैदा करने की कोशिश की है.

सवाल है कि क्या सच में ब्राह्मण भाजपा से नाराज हैं? और अगर नाराज हैं भी तो क्या भाजपा अपने कोर वोट को लेकर फ़िक्रमंद है. और अगर भाजपा बहुत फिक्रमंद नहीं है तो उसके पीछे की वजह क्या है. अगर देखें तो यह कहने में दिक्कत नहीं कि ब्राह्मणों को लेकर भाजपा में किसी बड़ी योजना पर काम तो नहीं दिख रहा है. भाजपा के अब तक जितने भी पोस्टर सामने आए हैं उनमें ब्राह्मण नेताओं की गैरमौजूदगी को साफ़ इशारा संकेत माना जा सकता है कि वे पार्टी की केंद्रीय योजना का हिस्सा नहीं हैं. जब मुकाबले में सीधी चुनौती पेश कर रही सपा ब्राह्मणों को 'स्वाभिमान' के बहाने अपने पाले में जोड़ने की कोशिश कर रही है ठीक उसी वक्त परेशान होने की बजाय भाजपा ओबीसी और दलित मतों के लिए ज्यादा फिक्रमंदी जता रही है.

योगी आदित्यनाथ.

भाजपा के तमाम पोस्टर में कोई बड़ा ब्राह्मण चेहरा नजर नहीं आता. ज्यादातर पोस्टर्स से अटल बिहारी वाजपेयी तक गायब नजर आ रहे हैं. पोस्टर पर नजर आने वाले प्रमुख नेताओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य, प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ही दिख रहे. जबकि दिनेश शर्मा भी उप मुख्यमंत्री हैं बावजूद उनके चेहरे को बड़ी तवज्जो नहीं दी गई है. वे वैसे ही नजर आ रहे हैं जैसे योगी कैबिनेट में भाजपा के दूसरे मंत्री हैं. पार्टी के अंदर बाहर ब्राह्मणों को लेकर वैसी चर्चा भी नहीं जिस तरह का मंथन नॉन डोमिनेंट ओबीसी नेताओं को लेकर है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक बड़े हिंदी दैनिक के संवाददाता वीरेंद्र दुबे दो बाते कहते हैं. एक- या तो भाजपा को अपने कोर वोट पर बहुत भरोसा है या फिर ब्राह्मणों को बड़ी कीमत देने से बचा जा रहा है.

क्यों ब्राह्मणों को ज्यादा बढ़ाना भाजपा की मजबूरी है

यह पूछने पर कि ऐसा क्यों है? वीरेंद्र दुबे कहते हैं- असल में भाजपा ने पहले ही सवर्ण समुदाय से मुख्यमंत्री के रूप में योगी को सबसे आगे किया हुआ है. उनके नेतृत्व में चुनाव भी हो रहा है. विपक्षी दल उनकी जाति को मुद्दा बना रहे हैं. खासकर अखिलेश. केशव-योगी के बहाने भाजपा में सवर्ण राजनीति के हावी होने के आरोप विपक्ष पहले से लगाता रहा है. स्वामी प्रसाद मौर्या प्रकरण के बाद यह भाजपा के आफत की तरह भी दिखा. ऐसे में एक योगी के साथ ब्राह्मण के रूप में एक और सवर्ण चेहरा यूपी में भाजपा की योजनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है. भाजपा की राजनीति पर नजर रखने वाले दूसरे लोग भी मान रहे कि ब्राह्मणों की पर्याप्त हिस्सेदारी है. टिकटों में अनुपात के मुकाबले उनकी बेहतर हिस्सेदारी होगी. योगी कैबिनेट में भी ब्राह्मणों को ठीक ठाक जगह मिली थी. भाजपा की केंद्रीय योजना में ब्राह्मण महत्वपूर्ण हैं लेकिन इस वक्त उनेह ज्यादा कुछ देना पार्टी के वश से बाहर है.

भाजपा के लिए चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है.

ब्राह्मणों की खींचतान से बन रहा वैक्यूम भाजपा के लिए ही ज्यादा फायदेमंद

इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिवक्ता अभिनव ओझा भाजपा कहते हैं- चुनाव में सपा और बसपा की नजर भी तो ब्राह्मण मतदाताओं पर है. सतीश मिश्रा 90 प्रतिशत समर्थन का दावा कर रहे हैं. दोनों पार्टियों के रुख से साफ़ है कि उनके टिकट पर अवध और पूर्वांचल में ब्राह्मण उम्मीदवारों की अच्छी खासी हिस्सेदारी होगी. यानी अलग-अलग पार्टियों से ब्राह्मण उम्मीदवारों के आने की वजह से कम से कम संबंधित विधानसभा सीटों पर खींचतान बढ़ेगी. ऐसे हालात में बन रहे जातीय समीकरण में विपरीत के विकल्प साधना भाजपा के लिए ज्यादा कारगर है. अभिनव कहते हैं- खींचतान से बन रहे वैक्यूम में संबंधित सीटों पर नए जातीय समीकरण तैयार होंगे. भरपाई के लिए एक नया वर्ग भाजपा जोड़ सकती है जो मौजूदा हालात में उसके लिए ज्यादा मुफीद और फायदे का सौदा है. वैसे भी हरिशंकर तिवारी जैसे नेताओं का इतिहास भाजपा से अलग ही रहा है और ऐसा कभी नहीं दिखा उन्होंने एक क्षेत्र से बाहर कभी बड़ा नुकसान भी पहुंचाया हो.

शक्तिशाली धुरी छोड़कर जाने के लिए कोई वजह नहीं दिखती

अभिनव यह भी जोड़ते हैं कि बसपा के साथ 2007 में ब्राह्मण वहीं गए जहां उन्हें जातीय उम्मीदवार मिला. वो भी एक सीमित संख्या में. बाकी जगहों पर तो भाजपा के साथ ही बने रहे. इस बार भी वैसा ही होगा. ऐसे में अगर भाजपा ब्राह्मणों को संभालने की कोशिश करेगी तो उसके विकल्प ज्यादा सीमित हो जाएंगे और नुकसान उठाना पड़ेगा. अभिनव यह भी जोड़ते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व पहले के मुकाबले कमजोर होगा. भाजपा उन्हें कहीं ना कहीं एडजस्ट करेगी पर बड़ा मौका तो नहीं देने जा रही. वीरेंद्र दुबे का मानना है कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का मुद्दा इस समुदाय को आकर्षित करता है. भाजपा भले ही बड़े स्तर पर ब्राह्मणों को ज्यादा कुछ देती नजर नहीं आ रही लेकिन टिकटों में उनका अनुपात और पार्टी की हिंदुत्व की लाइन उन्हें अपने साथ जोड़े रखेगी.

भाजपा के एक ब्राह्मण नेता ने नाम ना छापने की शर्त पर कहा- यह सच है कि ब्राह्मण नाराज हैं. लेकिन जिस तरह से चुनाव हिंदू बनाम मुस्लिम हो चुका है उसमें उनके पार्टी से दूर जाने की गुंजाइश नहीं है. चुनाव की घोषणा और पश्चिम में मुसलमानों की एकजुटता से समूचे यूपी में ना सिर्फ ब्राह्मणों बल्कि अन्य हिंदू जातियों में भी एक ध्रुवीकरण दिख रहा है. बसपा के साथ ब्राह्मण तब गया था जब पार्टी के एक कोर वोट बैंक ठाकुरों का बड़ा हिस्सा सपा के साथ जा चुका था. पार्टी तीसरे नंबर पर आ गई थी. प्रदेश की राजनीति में भाजपा की निर्णायक भूमिका नहीं थी. लेकिन इस वक्त तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी शक्तिशाली है और एक धुरी पर अकेले नजर आ रही है. उसका भविष्य पार्टी में ज्यादा बेहतर है. तमाम सर्वे में सामने आ चुका है कि 2007 को छोड़कर अब तक 80 प्रतिशत से ज्यादा ब्राह्मण मतदाता भाजपा के साथ बना रहा. इतना वोट किसी और जाति से भाजपा को नहीं मिला है.

काशी में नरेंद्र मोदी.

परशुराम सम्माननीय, पर ब्राह्मणों के प्रतीक पुरुष नहीं

भाजपा नेता यह भी जोड़ते हैं कि ब्राह्मणों में जो नाराजगी दिख रही है, अलग-अलग पार्टियों में उनके अलग-अलग कोर वोटर्स में ऐसी नाराजगी होती ही है. यह उस तरह तो बिल्कुल नहीं जैसा विपक्ष की ओर से प्रचारित किया जा रहा है. विपक्ष ठाकुरों के वर्चस्व का मुद्दा बनाकर ब्राह्मणों और ओबीसी को तोड़ना चाहता है. परशुराम का इस्तेमाल इसी वजह से किया जा रहा है. भाजपा नेता जोड़ते है- ब्राह्मणों के लिए पौराणिक पुरुष के रूप में परशुराम सम्माननीय रहे हैं. पर हकीकत में आम ब्राह्मण उन्हें प्रतीक पुरुष के रूप में स्वीकार करने से बचता रहा है. बसपा ने सोच समझकर ठाकुर वर्चस्व के खिलाफ पहली बार परशुराम के प्रतीक का इस्तेमाल किया था.

बाहुबली ब्राह्मणों का उत्पीडन क्यों मुद्दा नहीं है?

उन्होंने कहा- ब्राह्मणों ने कभी भी आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता को समाज के नेता के रूप में मान्यता नहीं दी. अमरमणि त्रिपाठी से लेकर हरिशंकर तिवारी तक इसके उदाहरण हैं. इनके पीछे जो ब्राह्मण खड़ा नजर आता है वह अपनी स्थानीय जरूरतों की वजह है राजनीतिक नहीं. वह विकास दुबे एनकाउंटर को लेकर या विजय मिश्रा के घर पर बुलडोजर चलाए जाने को लेकर उस तरह भावुक नहीं दिख रहा जिस तरह मुसलमान मुख्तार अंसारी या फिर अतीक अहमद के लिए भावुक नजर आते हैं. उनका दावा है कि ब्राह्मण भाजपा के साथ ही रहने वाला है. हालांकि वो यह जरूर जोड़ते हैं कि दूसरी पार्टियों के ब्राह्मण उम्मीदवार निश्चित ही कुछ ना कुछ वोट काट रहे हैं.

बातचीत में लोगों ने कहा कि विपक्ष जिस तरह से ब्राह्मणों को पुचकार रहा है उससे मोदी के नेतृत्व में भाजपा को फायदा ही मिलने जा रहा है. विपक्ष एक तरफ योगी की सरकार पर सवर्णवादी होने का आरोप लगा रहा है और दूसरी तरफ ब्राह्मणों को अपने साथ लाना चाहता है. ब्राह्मणों की नाराजगी का जितना ज्यादा प्रचार होगा, ब्राह्मण विरोधी अन्य हिंदू जातियां भाजपा पर ही भरोसा करेंगी ना कि विपक्ष, खासकर सपा. अखिलेश राज में यादवों की राजनीतिक हैसियत नॉन डोमिनेंट ओबीसी को भी बहुत परेशान करती है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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