• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

मथुरा पर पीछे हट रहे भागवत, क्या आजम-अखिलेश की जुगलबंदी का असर है?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 03 जून, 2022 10:29 PM
  • 03 जून, 2022 10:13 PM
offline
RSS प्रमुख हिंदुओं के ठेकेदार थोड़े हैं. किसी समाज को क्या करना है क्या नहीं करना है इसका फैसला तो वह अपने परिवेश को देखते हुए करेगा. आजम खान अखिलेश यादव की दोस्ती से संघ घबरा सकता है भारत का समाज नहीं.

बिहार और उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव और ज्ञानवापी विवाद तक इस बीच ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके मायने भारतीय राजनीति और उसके भविष्य में दूर-दूर तक निकलकर जाते दिख रहे हैं. सिर्फ यादव मतों के साथ मुस्लिमों के एकतरफा सहयोग से जिस तरह तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव ने अपने-अपने राज्यों में दमदार मौजूदगी दर्ज कराई है- उसके असर भारतीय राजनीति में गहरे दिख रहे हैं. मौजूदा राजनीतिक धाराओं में नई वैचारिकी का सूत्रपात हो सकता है. कुछ लोग हैरान भी हो सकते हैं. हालांकि अच्छी बात यह है कि समाजों के परस्पर प्राकृतिक न्याय, संविधान और क़ानून के हिसाब से चीजें जिस तरफ बढ़नी चाहिए लगभग उसी तरफ हैं. बहु सांस्कृतिक भारत के लिए यही अच्छा भी है. अब संघ प्रमुख मोहन भागवत भी इतिहास को सत्य मानकर मुहर लगाते दिख रहे हैं- "यह ले अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहि नाच नचायो."

नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग, तृतीय वर्ष 2022 के समापन समारोह में संघ प्रमुख जब यह कह रहे हैं- "हर दिन एक नया मुद्दा क्यों ही निकाला जाए. कुछ प्रतीकात्मक स्थानों के बारे में हमारी विशेष श्रद्धा थी. लेकिन हर दिन एक नया मामला निकालना, ये भी नहीं करना चाहिए. हमको झगड़ा क्यों बढ़ाना है." यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि भागवत जिन विशेष स्थानों की बात कर रहे हैं- वह निश्चित ही अयोध्या, काशी और मथुरा है. अयोध्या का मामला हल हो चुका है. काशी का मामला अटल सत्य है जिसे दुनिया की कोई ताकत हिंदुओं से छीन नहीं सकती.

लेकिन भविष्य की बात भागवत आगे संकेतों में कहते नजर आते हैं - "ज्ञानवापी के बारे में हमारी कुछ श्रद्धाएं हैं परंपरा से चलती आई हैं, हम कर रहे हैं ठीक है. परंतु हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?" भागवत यह भी कहते हैं कि आगे संघ किसी भी मंदिर आंदोलन का नेतृत्व नहीं करेगा. संघ के नेतृत्व का मतलब है कि भाजपा के अलावा उसके तमाम संगठन भी भविष्य में इस तरह के आंदोलन का हिस्सा नहीं होंगे. भागवत के समूचे बयान में तीन बातें बहुत ध्यान देने वाली हैं.

1) एक उन्होंने अयोध्या को जायज कहा है....

बिहार और उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव और ज्ञानवापी विवाद तक इस बीच ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके मायने भारतीय राजनीति और उसके भविष्य में दूर-दूर तक निकलकर जाते दिख रहे हैं. सिर्फ यादव मतों के साथ मुस्लिमों के एकतरफा सहयोग से जिस तरह तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव ने अपने-अपने राज्यों में दमदार मौजूदगी दर्ज कराई है- उसके असर भारतीय राजनीति में गहरे दिख रहे हैं. मौजूदा राजनीतिक धाराओं में नई वैचारिकी का सूत्रपात हो सकता है. कुछ लोग हैरान भी हो सकते हैं. हालांकि अच्छी बात यह है कि समाजों के परस्पर प्राकृतिक न्याय, संविधान और क़ानून के हिसाब से चीजें जिस तरफ बढ़नी चाहिए लगभग उसी तरफ हैं. बहु सांस्कृतिक भारत के लिए यही अच्छा भी है. अब संघ प्रमुख मोहन भागवत भी इतिहास को सत्य मानकर मुहर लगाते दिख रहे हैं- "यह ले अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहि नाच नचायो."

नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग, तृतीय वर्ष 2022 के समापन समारोह में संघ प्रमुख जब यह कह रहे हैं- "हर दिन एक नया मुद्दा क्यों ही निकाला जाए. कुछ प्रतीकात्मक स्थानों के बारे में हमारी विशेष श्रद्धा थी. लेकिन हर दिन एक नया मामला निकालना, ये भी नहीं करना चाहिए. हमको झगड़ा क्यों बढ़ाना है." यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि भागवत जिन विशेष स्थानों की बात कर रहे हैं- वह निश्चित ही अयोध्या, काशी और मथुरा है. अयोध्या का मामला हल हो चुका है. काशी का मामला अटल सत्य है जिसे दुनिया की कोई ताकत हिंदुओं से छीन नहीं सकती.

लेकिन भविष्य की बात भागवत आगे संकेतों में कहते नजर आते हैं - "ज्ञानवापी के बारे में हमारी कुछ श्रद्धाएं हैं परंपरा से चलती आई हैं, हम कर रहे हैं ठीक है. परंतु हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?" भागवत यह भी कहते हैं कि आगे संघ किसी भी मंदिर आंदोलन का नेतृत्व नहीं करेगा. संघ के नेतृत्व का मतलब है कि भाजपा के अलावा उसके तमाम संगठन भी भविष्य में इस तरह के आंदोलन का हिस्सा नहीं होंगे. भागवत के समूचे बयान में तीन बातें बहुत ध्यान देने वाली हैं.

1) एक उन्होंने अयोध्या को जायज कहा है. और उसमें संघ के शामिल होने और मंदिर निर्माण को ऐतिहासिक और जरूरी माना है.

2) उन्होंने ज्ञानवापी का नाम लिया और साफ कर दिया कि दुनिया की कोई ताकत उसे हिंदुओं से नहीं छीन सकती. ज्ञानवापी के बिना भारत में सबसे बड़े विवाद का अंत नहीं होगा.

3) उन्होंने अयोध्या और ज्ञानवापी के साथ मथुरा का भी इशारों में जिक्र किया, और संकेतों में ही बता दिया कि अब मथुरा पर संघ या उसके संगठनों का आगे बढ़ने का इरादा नहीं रहा. अन्य करना चाहें तो स्वतंत्र हैं. जबकि मथुरा का मामला भी ज्ञानवापी के साथ अचानक जोर पकड़ता दिख रहा था. अयोध्या-काशी-मथुरा तीनों संघ और उसके संगठनों के सबसे अहम मुद्दे थे.

मथुरा विवाद संघ के एजेंडा में रहा है.

मोहन भागवत ने मथुरा का नाम क्यों नहीं लिया?

संघ प्रमुख के बयान के मायने भी असल में तीसरे बिंदु से ही निकलकर आते हैं. अब सवाल है कि क्यों संघ प्रमुख ने मथुरा का जिक्र नहीं किया और क्यों वो ऐसा कह रहे हैं कि इतिहास बदला नहीं जा सकता है, आखिर क्या जरूरत है कि हम हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाशे. वो साफ कहते हैं कि इतिहास तो जो है वह है और उसे किसी भी सूरत में बदला नहीं जा सकता. जब इतिहास वही है और उसपर होने वाली राजनीति का वर्तमान जो फिलहाल दिख रहा है- फिर संघ ही क्यों अड़ा रहे. इसे उस बुजुर्ग की पीड़ा के रूप में भी देख सकते हैं जो घर के कुछ नौजवानों की मनमानी पर उन्हें उनकी ही तरह सबक सिखाने का मन बना चुका है. लेकिन सवाल है कि उसके बाद क्या? एक और बात यह भी है कि संघ और संघ प्रमुख हिंदुओं के ठेकेदार थोड़े हैं. भला रामजन्म भूमि स्थान और कृष्ण जन्मभूमि स्थान में फर्क कैसे किया जा सकता है? फर्क भागवत, अखिलेश यादव, लालू यादव कर सकते हैं- इस देश का हिंदू सपने में भी अंतर नहीं कर पाता.

भागवत के बयान से उपजे कई सवालों का जवाब पाने के लिए फिर वापस अयोध्या लौटना पड़ेगा. अयोध्या और ज्ञानवापी के विवाद में सिर्फ इतना भर फर्क है कि अयोध्या में कानूनी निर्णय से पहले दोनों तरफ से अंसवैधानिक कोशिशें हुईं. फायरिंग हुई, दंगे हुए और दोनों तरफ से बहुत से लोग मारे गए. उसे कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन फैसला तब आया जब दोनों पक्ष पूरी तरह राजी थे. असदुद्दीन ओवैसी का एक बयान बार-बार आता है. वो कहते रहते हैं कि मुझे मालूम था कि अयोध्या एक अंतहीन शुरुआत भर है.

अयोध्या से पहले संघ नेताओं ने मुस्लिम धर्मगुरुओं से बात की थी?

असल में अदालती प्रक्रिया के साथ-साथ धार्मिक और राजनीतिक स्तर पर भी अयोध्या में श्रीराम मंदिर को लेकर बहुत कुछ चल रहा था. ध्यान ही होगा कि फैसले से पहले खुद मोहन भागवत समेत संघ नेताओं ने मुस्लिम धर्मगुरुओं से कई राउंड बात की थी. दोनों पक्ष राजी थे कि अदालत का जो भी फैसला आएगा, सम्मान होगा. हुआ भी वैसा ही. संघ ने अयोध्या-काशी और मथुरा के तीन मंदिरों को, जो कि हिंदुओं की आस्था के सबसे बड़े केंद्र थे- सिर्फ उन्हीं पर दावा किया. लिस्ट भले ही दर्जनों मंदिरों-मस्जिदों की टहलती रही हो, मगर हकीकत यही है कि वह राजनीतिक स्टंटबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं था. ऐसा लगने के पर्याप्त संकेत भी मिलते हैं कि दोनों पक्षों की तरफ से ज्ञानवापी और मथुरा पर भी लगभग सहमति बन चुकी थी.

यहां तक कि काशी कोरिडोर की योजना भी अखिलेश यादव ने ही मुख्यमंत्री रहते हुए तय किया था. मथुरा को लेकर भी उनकी योजनाएं थीं. पर वे किसी उठापटक से जूझते रहे और उसे अमलीजामा नहीं पहना सके. नरेंद्र मोदी ने काशी के जिस कोरिडोर को व्यापक रूप से मूर्त कर दिया असल में वह अखिलेश की ही योजना थी. आखिर अखिलेश किस मकसद से कोरिडोर बना रहे थे? अखिलेश ने यह योजना सिर्फ इसलिए शुरू की थी कि वह प्रचंड बहुमत से जीती भाजपा और संघ को अगले विधानसभा चुनाव में उसी की भाषा में जवाब दे सकें.

क्या अखिलेश यादव 90 के दौर वाले मुलायम की लाइन पर जा रहे हैं?

उनका दुर्भाग्य यह रहा कि पर्याप्त सहमति के लिए पर्याप्त बहुमत भी नहीं जुटा पाए. साल 2014 में लोकसभा और फिर साल 2017 में भाजपा के सामने अखिलेश की बुरी हार ने उन्हें निराश कर दिया. बावजूद कि दोनों चुनाव में यादव मतों के साथ मुसलमानों ने उन्हें पूरी ईमानदारी से वोट दिया, मगर वे मुस्लिम-यादव समीकरण से आगे नहीं बढ़ पाए. इस दौरान उन्हें घर में भी शिवपाल यादव के रूप में विद्रोह का सामना करना पड़ा था. 2019 के लोकसभा नतीजों ने अखिलेश को पूरी तरह हताश कर दिया और उन्हें सत्ता का कोई फ़ॉर्मूला नजर नहीं आ रहा था. इस दौरान अखिलेश पूरी तरह उसी नर्म हिंदुत्व की लाइन पर नजर आते दिखते हैं जिस पर राहुल गांधी और कुछ दूसरे क्षेत्रीय दल खड़े हैं. तेलंगाना में चंद्रशेखर राव का मॉडल देख लीजिए.

2022 के चुनाव में अखिलेश ने फिर वापसी का मन बनाया. मुस्लिम प्रतीकों से बचते हुए अति पिछड़ा नारा देकर सत्ता में वापसी के खूब प्रयास किए. उन्हें कामयाबी भी मिली. आज की तारीख में वो एक मजबूत बेस पर खड़े दिख रहे हैं. असल में उनकी दिक्कत भी यहीं शुरू होती है. वह मजबूत होकर भी कमजोर बन गए हैं और चौतरफा घिरे नजर आते हैं. एक तरफ सामान विचारधारा वाले सहयोगी दल समाजवादी पार्टी की ही जमीन पर विस्तार की योजना में हैं, उन्हें लगातार कमजोर कर रहे हैं. दूसरी तरफ शिवपाल यादव निर्णायक प्रहार की कोशिश में हैं और कॉमन सिविल कोड के बहाने "नई यादव राजनीति" उभारना चाहते हैं जो कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में बहुत आसान भी नजर आ रहा है.

भूलना नहीं चाहिए कि हालिया यूपी विधानसभा चुनाव में भी सपा को यादव वोटबैंक वाले गढ़ में शर्मनाक हार झेलनी पड़ी है. तीसरी चुनौती आजम खान की है जो अखिलेश के चेहरे पर मुस्लिम विरोधी पोस्टर चिपकाने में सफल हुए हैं. जेल से बाहर आने के बाद आजम के बयानों ने अखिलेश को मुसलमानों का विलेन ही बना दिया. मजेदार यह है कि कॉमन सिविल कोड, जिसका मुसलमान विरोध करता है- उस मुद्दे को उठाने के बावजूद अचानक शिवपाल, आजम खान के साथ कंधे से कंधा मिलाए नजर आते हैं.

जाहिर तौर पर इन चीजों ने अखिलेश को परेशान किया है और उन्हें पूरी तरह से सरेंडर करना पड़ा. यादव मतों के बिखरने का डर और साथ में मुस्लिमों के जाने के बाद तो उनके पास कुछ बचता नहीं दिख रहा है. ऐसे आधार से वापसी के सपने तो कोई अंधा ही देख सकता है. अखिलेश वापस पुरानी लाइन पर आते दिख रहे हैं. मुलायम सिंह यादव ने अभी कुछ साल पहले तक कहा था कि कारसेवकों पर अगर और ज्यादा गोली चलानी पड़ती तो वे पीछे नहीं हटते. मुलायम के बेटे को भले लग रहा हो कि वो अभी जहां खड़े हैं वहां से सत्ता वापस पा सकते हैं- मगर संघ प्रमुख के बयान के बाद यह अब लगभग असंभव मान लेना चाहिए.

अब खाली हाथ सिर्फ अखिलेश यादव का है, आजम और शिवपाल के दोनों हाथ में लड्डू

एक- अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती यादव मतों को बरकरार रखना है. मथुरा के सवाल पर वह व्यापक रूप से छिटक सकता है. सोशल मीडिया पर मथुरा को लेकर जिस तरह के जोक साझा हो रहे हैं उसके असर को समझने में किसी बच्चे को भी मुश्किल नहीं आने वाली है.

दो- आजम खान की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं शिवपाल जैसी नहीं हैं. शिवपाल और अखिलेश का साथ रहना भी लगभग मुश्किल हैं. बदले माहौल में यादव मतों पर शिवपाल चुनौती पेश कर सकते हैं और उन्हें फायदा मिलेगा.

तीन- मौजूदा स्थितियों में किसी तरह के गठबंधन में भी अखिलेश पर ज्यादा दबाव होगा और नियंत्रण उनके हाथ की बजाए आजम के हाथ में ज्यादा रहेगा. उसकी वजह मुस्लिम मतदाता हैं. मुलायम यादवों के साथ मुसलमानों के भी नेता थे. अखिलेश के साथ ऐसा नहीं है.

कुल मिलाकर यह तीनों स्थितियां भाजपा के लिहाज से तो फायदेमंद हैं. उत्तर प्रदेश में अखिलेश के पास फिलहाल भाजपा को हराने का कोई फ़ॉर्मूला नहीं है बावजूद कि विधानसभा चुनाव के बाद वह बहुत निकट आ चुके थे. संघ अब खुल्लम-खुल्ला चाहता है कि कोई यदुवंशी ही मथुरा का मुद्दा उठाए बाकी अब उसकी कोई रूचि नहीं है. आजम और अखिलेश की सुलह भी हो चुकी है. इस सुलह का मतलब है कि अखिलेश पर आजम का कंट्रोल होगा. भागवत चाहते हैं कि मथुरा का मुद्दा कोई (यादव) तो अब सवाल है कि वह यदुवंशी कौन होगा? भागवत के बयान के बाद इतना तो साफ़ हो गया कि वह यदुवंशी भाजपा से नहीं आने वाला है. आजम-अखिलेश की दोस्ती के बाद वह यदुवंशी शिवपाल यादव ही होंगे या तेजप्रताप यादव यह जरूर दिलचस्पी का विषय हो सकता है?

भागवत का बयान मुस्लिमों को भी एक संदेश की तरह है. वह यह कि "काशी छोड़ दीजिए. बाकी विवादित जगहों को अब तक जैसे आपने डील किया था डील करिए."

संघ अपने को हिंदुओं का ठेकेदार ही क्यों समझ रहा है?

भागवत के बयान से एक और बड़ी ध्वनि निकलकर आ रही है वह यह कि भला संघ हिंदुओं का ठेकेदार कैसे हो गया? जब नाना प्रकार के मुसलमान मक्का को लेकर एकमत हो सकते हैं फिर नाना प्रकार के हिंदू राम, कृष्ण और गौतम में क्यों ही फर्क करें? ये दूसरी बात है कि संघ शायद कांग्रेस की तरह इतिहास दुरुस्त करने से डर रही हो. चौतरफा दबाव है. देश के अंदर और बाहर हर जगह. लेकिन देश डर रहा हो, ऐसा तो कहीं नहीं दिख रहा. बेहद मुश्किल वक्त में भाजपा को जिस तरह का बहुमत देश ने दिया है उसके संदेश तो दूसरे ही हैं.

और आखिर गारंटी क्या है कि जब हजार साल से मंदिरों को ध्वस्त कर मस्जिद बनाए जाने के प्रमाण साफ दिखते रहे बावजूद हर दौर में हिंदुओं का वर्तमान पीड़ा से मुक्त नहीं हुआ. आगे भी तो वही होगा. संघ को आखिर अपने नजरिए को 'लिबरल' करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है उसने बिल्कुल साफ नहीं किया. उसे साफ़ करना चाहिए. सनातन संस्‍कृति के व्यापक इतिहास की खोज करना संघ की जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं है. और ना ही संघ प्रमुख का बयान कोई आकाशवाणी है. अगर संघ को ऐसा लग रहा है तो गलत है. वह कर नहीं पा रहा तो भविष्य पर छोड़ सकता है. भारत का भविष्य रास्ते तलाश लेगा. जैसे अब तक तलाशते आया है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲