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क्या मिला इस कश्मीर यात्रा से?

    • स्नेहांशु शेखर
    • Updated: 06 सितम्बर, 2016 02:49 PM
  • 06 सितम्बर, 2016 02:49 PM
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बुरहान वानी की घटना के बाद से जो कुछ भी घाटी में हो रहा है, उसको पाकिस्तान का सीधा समर्थन हासिल है. यह बात भी अब छिपी नहीं कि किस तरह बड़े पैमाने पर लॉजिस्टिक और फंड घाटी में इन अलगाववादियों को मुहैया कराया जा रहा है. आगे पढ़ें...

अब जबकि कश्मीर पर दो दिवसीय सर्वदलीय यात्रा खत्म हो चुकी है, इस यात्रा के परिणामों को लेकर समीक्षा, विश्लेषण और टिप्पणियों का दौर शुरू होगा. चर्चा इस बात को लेकर शुरू हो गई है कि इस यात्रा को सफल माना जाए या असफल. सफल है तो किन तकाजों पर और असफल तो कि किन कारणों से? हालांकि यात्रा शुरू होने के पहले से ही अटकलों और आशंकाओं का दौर जारी है और आशंकाओं का आधार सिर्फ यह था कि इस प्रतिनिधिमंडल को अलगाववादियों से मुलाकात करनी चाहिए या नहीं और अगर मुलाकात हो तो उसका आधार क्या हो? अब चूंकि प्रतिनिधिमंडल दिल्ली वापस आ चुका है, और उसके कई सदस्य आत्ममंथन करने में जुटे होंगे कि वाकई घाटी में शांति के लिए इन अलगाववादियों से बातचीत इतना जरूरी है?

दो दिनों की इस यात्रा से पहले ही दो सोच साफ दिख रही थी, सरकार का धड़ा और उसमें शामिल अन्य दलों की अपनी राय. जब अन्य दलों की बात करते हैं उनमें कांग्रेस, लेफ्ट और जेडी(यू) और ओवैसी प्रमुख थे. दरअसल इस ग्रुप का मानना था कि अलगाववादी नेताओं से बातचीत होनी ही चाहिए.

इसे भी पढ़ें: डिप्लोमेसी और हकीकत में पिसता कश्मीर मुद्दा

दूसरी तरफ, सरकार के पास जो सूचना थी और खासकर 9 जुलाई (बुरहान वानी के एनकाउंटर ) के बाद से घाटी में इन अलगाववादियों की भूमिका को लेकर जानकारी मिल रही थी, वे बेहद चौंकाने वाले थे. ऐसे में इस तबके से बात की जाए तो उसके कुछ परिणाम निकलेंगे भी, इसे लेकर संदेह की स्थिति थी.

 जम्मू-कश्मीर पर वार्ता के लिए एक्शन में ऑल पार्टी...

अब जबकि कश्मीर पर दो दिवसीय सर्वदलीय यात्रा खत्म हो चुकी है, इस यात्रा के परिणामों को लेकर समीक्षा, विश्लेषण और टिप्पणियों का दौर शुरू होगा. चर्चा इस बात को लेकर शुरू हो गई है कि इस यात्रा को सफल माना जाए या असफल. सफल है तो किन तकाजों पर और असफल तो कि किन कारणों से? हालांकि यात्रा शुरू होने के पहले से ही अटकलों और आशंकाओं का दौर जारी है और आशंकाओं का आधार सिर्फ यह था कि इस प्रतिनिधिमंडल को अलगाववादियों से मुलाकात करनी चाहिए या नहीं और अगर मुलाकात हो तो उसका आधार क्या हो? अब चूंकि प्रतिनिधिमंडल दिल्ली वापस आ चुका है, और उसके कई सदस्य आत्ममंथन करने में जुटे होंगे कि वाकई घाटी में शांति के लिए इन अलगाववादियों से बातचीत इतना जरूरी है?

दो दिनों की इस यात्रा से पहले ही दो सोच साफ दिख रही थी, सरकार का धड़ा और उसमें शामिल अन्य दलों की अपनी राय. जब अन्य दलों की बात करते हैं उनमें कांग्रेस, लेफ्ट और जेडी(यू) और ओवैसी प्रमुख थे. दरअसल इस ग्रुप का मानना था कि अलगाववादी नेताओं से बातचीत होनी ही चाहिए.

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दूसरी तरफ, सरकार के पास जो सूचना थी और खासकर 9 जुलाई (बुरहान वानी के एनकाउंटर ) के बाद से घाटी में इन अलगाववादियों की भूमिका को लेकर जानकारी मिल रही थी, वे बेहद चौंकाने वाले थे. ऐसे में इस तबके से बात की जाए तो उसके कुछ परिणाम निकलेंगे भी, इसे लेकर संदेह की स्थिति थी.

 जम्मू-कश्मीर पर वार्ता के लिए एक्शन में ऑल पार्टी मीट

दो बातें प्रमुखता से उभर कर सामने आ रही थी. पहली यह कि बुरहान वानी की घटना के बाद से जो कुछ भी घाटी में हो रहा है, उसको पाकिस्तान का सीधा समर्थन हासिल है. पहली बार ऐसा हुआ कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ मुजफ्फराबाद आते हैं, बुरहान वानी की शहादत की चर्चा करते हैं और इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने का सपना भी दिखा देते हैं.

पहली बार सैयद सलाउद्दीन और नवाज शरीफ की भाषा एक थी. दोनों बुरहान वानी को लेकर एक जुबान में बोल रहे थे. और जब शरीफ साहब खुद इस बात की तस्दीक कर गए कि उनका नैतिक समर्थन कश्मीर में जारी हिंसा को है, लिहाजा यह बात भी अब छिपी नहीं कि किस तरह बड़े पैमाने पर लॉजिस्टिक और फंड घाटी में इन अलगाववादियों को मुहैया कराया जा रहा है.

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दूसरा, एनआईए की जांच से स्पष्ट है कि किस तरह करोड़ों की रकम घाटी में भेजी जा रही, युवकों को पैसे दिए जा रहे हैं, उनसे पत्थर फिकवाया जा रहा है, उन्हें मौत के मुंह में धकेला जा रहा है. एनआईए सूत्रों की मानें तो करीब 500 करोड़ की रकम हवाला के जरिए घाटी में भेजी जा चुकी है, ताकि माहौल को गरमाया जा सके और प्लान के मुताबिक इसे लगातार गरमाए रखा जा सके ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाफ माहौल तैयार किया जा सके.

 राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में ऑल पार्टी मीट

पाकिस्तान थोड़ा तब सकते में आया, जब पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से बलूचिस्तान, गिलगित और पीओके का मुद्दा उठाया. और इस बार थोड़ी गंभीरता भी दिख रही है. पीओके के बाहर भागे लोगों को पहली बार प्रवासी भारतीय बैठक में बुलाया जा रहा है. बलूचिस्तान से बेदखल हुए नेताओं से संपर्क साधा जा रहा है ताकि पाकिस्तान को अंतराष्ट्रीय स्तर पर बेनकाब किया जा सके. और इसका असर भी दिख रहा है.

कश्मीर को लेकर बात करें तो पहली बार केंद्र के सख्त रवैये से घाटी में अलगाववादियों में बेचैनी दिख रही है. बेचैनी का कारण एक और भी है. सरकारी खर्चे पर और भारत सरकार के पैसे पर जो सहूलियतें भोगी गईं हैं, उन पर नकेल कसा जा रहा है. एक सूचना के मुताबिक, पिछले पांच साल में इन अलगाववादी नेताओं पर सिर्फ जम्मू-कश्मीर सरकार 506 करोड़ खर्च कर चुकी है. इन अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा पर हर साल करीब 100 करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं. एक अन्य सूचना के मुताबिक, करीब 600 अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के करीब 1000 के जवान तैनात होते हैं. और बदले में क्या मिलता है?

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हालात हमने वो भी देखे हैं कि भारतीय खर्चे पर यासीन मलिक पत्नी से मिलने पाकिस्तान जाते हैं और देश में अफजल गुरू को फांसी दी जाती है तो विरोध में पाकिस्तान में ही धरने पर बैठ गए और साथ देने कौन आया तो हाफिज सईद. यह कोई इकलौती घटना नहीं है, अनगिनत ऐसे सच है, तो इनकी देश के संविधान के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर सवाल खड़ा करता है.

ऐसे में जब जांच एजेंसियों की तरफ से जो जांच प्रक्रिया चल रही है और उसमें जिस तरह से हिंसा की गतिविधियों में अलगाववादियों का हाथ स्पष्ट होकर उभरा है, उनसे अलगाववादियों का बेचैन होना कुछ हद तक स्वाभाविक भी है. एजेंसियां गिलानी के बेटे से पूछताछ कर चुकीं है, कुछ और नेता राडार पर हैं और उनके जल्द गिरफ्तारी के संकेत मिल रहे हैं. ऐसे में खुल कर कुछ न बोल पाने की स्थिति में चर्चा को अब पैलेट गन की तरफ हटाने या घुमाने की कोशिश की जा रही है.

संभवत इन अलगाववादी नेताओं की हरकतों का कच्चा-चिट्ठा जिस रूप में सामने आया है, उसे महबूबा मुफ्ती के गुस्से में भी देखा जा सकता था, जो अमूमन पहले देखने को नहीं मिलता था. जिसने भी महबूबा की राजनाथ सिंह के साथ प्रेस वार्ता देखी थी, उनको इस बात का अहसास हुआ भी था. ऐसे में अगर कुछ आशावादी नेता इन अलगाववादी नेताओं के बातचीत कर हल निकालने की जो आशा पाले बैठे थे, उनका क्या हश्र हुआ, सबने देख लिया. औवेसी जब मीर वायज से मिलने पहुंचे तो उन्होंने दरवाजा तक नहीं खोला और शायद यह अंदर की हताशा और निराशा ही थी, कि ओवैसी जब दिल्ली लौटे तो हर बात पर मीडिया से मुखातिब होने वाला शख्स कैमरे से नजरें चुराते नजर आए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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