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Vikas Dubey Encounter: अधर्म के अंत में धर्म की परवाह कैसी ?

    • विवेक चौरसिया
    • Updated: 12 जुलाई, 2020 06:42 PM
  • 12 जुलाई, 2020 06:42 PM
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के चर्चित गैंगस्टर विकास दुबे (Vikas Dubey Encounter) की मौत को लेकर कोई कुछ भी कहें चाहे जितनी भी आलोचना क्यों न हो मगर पाप का अंत पापपूर्ण तरीकों से ही सम्भव है.

कानपुर के कुख्यात गुंडे विकास दुबे (Vikas Dubey Encounter) और उसके साथियों को कुत्ते की मौत मार डालने पर जिन लोगों को मानवाधिकार, न्याय, कानून, धर्म, मर्यादा सब याद आ रहे हैं, क्या वे बताने की कृपा करेंगे कि जब इन बदमाशों ने आठ पुलिस वालों को निर्ममता से मौत की नींद सुला दिया था तब उनकी 'चेतना और स्मृति' भांग छानकर गंगा के कौन से घाट पर औंधे मुंह पड़ी हुई थी? आज के अखबारों में ख़बर है कि एक राजनीतिक विश्लेषक ने कानपुर कांड के आरोपियों के एनकाउंटर की शिकायत मानवाधिकार से की है और मुंबई से लगे ठाणे के एक वकील ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में याचिका दायर कर पूरे कांड की सीबीआई जांच की मांग कर डाली है. मीडिया के भाई लोग चैनलों पर अपनी कयासी अदालतें चला ही रहे हैं. जिसमें कौन-सी गाड़ी में विकास को ले जाया गया था और कौन गाड़ी पलटी और पलटने वाली गाड़ी पर खरोंच तक नहीं थी, वह लंगड़ा था तो भागा कैसे और भागा तो गोलियां उसकी पीठ की जगह सीने में कैसे लगी, टाइप के तमाम उबाऊ और सिर दुखाऊ तर्क-कुतर्कों का पोस्टमार्टम जारी है.

विकास की मौत के बाद कहा जा सकता है कि पाप का अंत पापपूर्ण तरीकों से ही सम्भव है

यक़ीनन अपनी मौत देखकर विकास भी अंतिम क्षणों में गिड़गिड़ाया ही होगा. ठीक वैसे ही जैसे उसके मारे जाने के बाद उसकी करतूतों में बराबर की हिस्सेदार उसकी बीबी आज उन पुलिस वालों का 'हिसाब' होने की बद्दुआ दे रही है, जिन्होंने 'कानूनी प्रक्रिया की अनदेखी' कर विकास को यमलोक पहुंचाया है.

मुझे महाभारत के कर्ण पर्व की याद आती है जब युद्ध के सत्रहवें दिन अपरान्ह काल में अपनी मृत्यु को निकट देख कर्ण को एकाएक धर्म और मर्यादा की याद आ गई थी. यहां कर्ण से विकास की तुलना नहीं है और न ही यह उस कर्ण की बात है जिसे आज...

कानपुर के कुख्यात गुंडे विकास दुबे (Vikas Dubey Encounter) और उसके साथियों को कुत्ते की मौत मार डालने पर जिन लोगों को मानवाधिकार, न्याय, कानून, धर्म, मर्यादा सब याद आ रहे हैं, क्या वे बताने की कृपा करेंगे कि जब इन बदमाशों ने आठ पुलिस वालों को निर्ममता से मौत की नींद सुला दिया था तब उनकी 'चेतना और स्मृति' भांग छानकर गंगा के कौन से घाट पर औंधे मुंह पड़ी हुई थी? आज के अखबारों में ख़बर है कि एक राजनीतिक विश्लेषक ने कानपुर कांड के आरोपियों के एनकाउंटर की शिकायत मानवाधिकार से की है और मुंबई से लगे ठाणे के एक वकील ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में याचिका दायर कर पूरे कांड की सीबीआई जांच की मांग कर डाली है. मीडिया के भाई लोग चैनलों पर अपनी कयासी अदालतें चला ही रहे हैं. जिसमें कौन-सी गाड़ी में विकास को ले जाया गया था और कौन गाड़ी पलटी और पलटने वाली गाड़ी पर खरोंच तक नहीं थी, वह लंगड़ा था तो भागा कैसे और भागा तो गोलियां उसकी पीठ की जगह सीने में कैसे लगी, टाइप के तमाम उबाऊ और सिर दुखाऊ तर्क-कुतर्कों का पोस्टमार्टम जारी है.

विकास की मौत के बाद कहा जा सकता है कि पाप का अंत पापपूर्ण तरीकों से ही सम्भव है

यक़ीनन अपनी मौत देखकर विकास भी अंतिम क्षणों में गिड़गिड़ाया ही होगा. ठीक वैसे ही जैसे उसके मारे जाने के बाद उसकी करतूतों में बराबर की हिस्सेदार उसकी बीबी आज उन पुलिस वालों का 'हिसाब' होने की बद्दुआ दे रही है, जिन्होंने 'कानूनी प्रक्रिया की अनदेखी' कर विकास को यमलोक पहुंचाया है.

मुझे महाभारत के कर्ण पर्व की याद आती है जब युद्ध के सत्रहवें दिन अपरान्ह काल में अपनी मृत्यु को निकट देख कर्ण को एकाएक धर्म और मर्यादा की याद आ गई थी. यहां कर्ण से विकास की तुलना नहीं है और न ही यह उस कर्ण की बात है जिसे आज की पीढ़ी ने शिवाजी सावंत के 'मृत्युंजय' या टीवी सीरियल्स के ज़रिए देखा-जाना है, बल्कि उस कर्ण का हवाला है जो जीवन भर अधर्म करता और अधर्मियों का साथ देकर धर्म और न्याय की धज्जियां उड़ाता रहा.

महाभारत के कर्ण पर्व का 91 वां अध्याय प्रमाण है, जब कर्ण के रथ का पहिया शाप वश ज़मीन में धंस गया और अर्जुन ने गाण्डीव पर महान दिव्यास्त्र से अभिमंत्रित अञ्जलिक नामक बाण साधा तो 'महारथी' कर्ण गिड़गिड़ाने लगा. तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे डांटकर कहा था, 'राधानन्दन! सौभाग्य की बात है कि अब तुम्हें धर्म की याद आ रही है. प्रायः देखने में आता है कि नीच मनुष्य विपत्ति में पड़कर दैव की निंदा करते हैं, अपने कुकर्मों की नहीं.' और तब भगवान ने उसे छल से युधिष्ठिर को जूए में हराने, वनवास के बाद भी पांडवों को राज्य न देने, भीम को भोजन में विष खिलाने, लाक्षागृह में आग लगवाने, रजस्वला द्रौपदी का उपहास करने और घेरकर अभिमन्यु को मार डालने जैसे तमाम पाप याद दिलाए थे.

हैरानी है जिस रात विकास और उसकी गुंडा गैंग ने बिकरू गांव में घात लगाकर पुलिस वालों को मारा तब न तो कोई विश्लेषक की आत्मा जागी थी, न किसी वकील का ईमान चैतन्य हुआ था और न ही मीडिया वालों ने पूरे घटनाक्रम की 'बारीक पड़ताल' का जोखिम भरा कष्ट उठाया था. हमारे देश का यह महान दुर्भाग्य है कि यहां लोकतंत्र, बोलने की आज़ादी, न्याय, कानून जैसी सारी संस्थाएं, बातें और अधिकारों के सवाल केवल अपराधियों, रसूखदारों, राजनेताओं के लिए ही उठते या उठाए जाते हैं. आम आदमी के लिए नहीं.

नहीं मारते तो क्या करते? जेल ले जाते, कोर्ट-कचहरी करते? गवाह, सबूत, जाँच, फॉरेंसिक रिपोर्ट्स और फ़ाइलों में अपना समय और ऊर्जा नष्ट कर अदालत-दर-अदालत मारे-मारे फिरते? कौन नहीं जानता कि हमारे देश की अदालतों में 'कानून' किस तरह रसूखदारों के लिए ट्रेन के सफ़र में इस्तेमाल किया जाने वाला हवाई तकिया है. जब ज़रूरत पड़ी फुलाया और जब काम निकला हवा निकाल कर बैग में भर लिया. निर्भया कांड के आरोपियों ने जिस तरह कानून को फुटबाल बनाकर खेला, क्या उसे देश ने देखा-भोगा नहीं है?

जब चार सड़कछाप आवारा लड़के एक जघन्य अपराध करके कानून की गलियों से सालों तक बचते रहे तब विकास जैसा शातिर अपराधी अपने बचाव के लिए क्या-क्या नहीं कर गुज़रता. इन्हीं हथकंडों, क़ानूनी कमजोरियों और न्यायिक बिचौलियों की बदौलत तो वह तीस साल से अपराध पर अपराध कर बचता आ रहा था! तब 'न्याय' की नियति क्या होती?

इन तर्को से पुलिस को हर किसी का एनकाउंटर करने का हक़ नहीं मिल जाता और न ही न्यायालय और कानून का महत्व और गरिमा कम होती है. यदि पुलिस किसी मासूम को यूं कहानी गढ़कर मार देती है तब वह अपराध ही है. ऐसे मामलों में आरोपी पुलिस वालों को सजा मिलनी ही चाहिए और इतिहास गवाह है, बीसियों मामलों में पुलिस वाले भी मनमानी पूर्वक एनकाउंटर करके जेल भी पहुंचाए गए हैं. लेकिन विकास जैसे अपराधी 'मानवाधिकार की हर मर्यादा' से परे हैं.

वे मनुष्य देह अवश्य रखते हैं मगर मनुष्यता नहीं. वे मनुष्यों के भेष में पशु ही होते हैं और उनके अंत के लिए इसी तरह का छल-कपट, नीयत-तेवर अवश्यम्भावी होता है, जैसा कि विकास के मामले पुलिस ने अपनाया है. अपराधी जब तक ख़ुद अपराध करता है, तब तक उसे कानून याद नहीं आता किन्तु जब अंत के लिए उसके सीने पर 'न्याय की बंदूक' तानी जाती है तब उसे सारा धर्म स्मरण हो आता है.

 

विकास जैसे पापी की मौत का मातम मनाने और कानून की दुहाई देकर अदालतों में याचिका लगाने वालों! ज़रा सुनो, तब भगवान ने क्या कहा था. श्रीकृष्ण बोले, 'यद्येष धर्मस्तत्र न विद्यते हि किं सर्वथा तालुविशोषणेन अद्येह धम्र्याणि विधत्स्व सूत तथापि जीवन्न विमोक्ष्यसे हि.' अर्थात यदि उन अवसरों पर यह धर्म नहीं था तो आज भी यहां सर्वथा धर्म की दुहाई देकर तालु सुखाने से क्या लाभ? सूत! अब यहां धर्म के कितने भी कार्य क्यों न कर डालो, तथापि जीते-जी तुम्हारा छुटकारा नहीं हो सकता.

और तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से अर्जुन ने बाण मारकर कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया था. इसलिए कि धर्म, न्याय, अधिकार, मानवता, कानून, न्यायालय आदि विधान उन लोगों के लिए हैं जो जीवन भर इनकी मर्यादा का स्वयं भी जिम्मेदारी से पालन करते हों, विकास जैसे पापियों के लिए नहीं.

पाप का अंत पापपूर्ण तरीकों से ही सम्भव है. ऐसा करना पाप नहीं, पुण्य ही है. इसलिए कि जानवर को मारने के लिए जानवर बनना ही पड़ता है. बेहतर होगा देशभर की पुलिस इसका अनुसरण कर शेष जानवरों को भी मारकर इस देश को आम मनुष्यों के रहने लायक निष्कंटक करने का अनुष्ठान करें. और मानवाधिकार के रुदाले, श्रीकृष्ण का वचन स्मरण कर रोना बंद करें. पैसे लेकर रोने वालों के प्रलाप से अकारण शोर जो होता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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