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वीर सावरकर के 7 सिद्धांत हिंदुत्व की मजबूती के लिए सबसे बड़ी जरूरत हैं

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 16 अक्टूबर, 2021 03:02 PM
  • 16 अक्टूबर, 2021 03:02 PM
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हिंदुत्व (Hindutva) की परिकल्पना के सहारे भारतीय समाज को राजनीतिक, सार्वजनिक और सामाजिक सुधारों के जरिये एकसूत्र में पिरोने के प्रयास किये जा रहे हैं. लेकिन, हिंदुत्व के नाम पर लोगों को एक करना इतना आसान नहीं है. क्योंकि, भारत में जाति व्यवस्था (Caste System) ने गहरी जड़ें जमा रखी हैं.

आरएसएस (RSS) के स्थापना दिवस और विजयादशमी के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि हिंदुओं का संगठित होना देश के लिए जरूरी है. साथ ही मोहन भागवत ये बताना नहीं भूले कि एकता में सबसे बड़ी समस्या जातिगत विषमता ही है. दरअसल, देश में लंबे समय से हिंदुत्व की परिकल्पना के सहारे भारतीय समाज को राजनीतिक, सार्वजनिक और सामाजिक सुधारों के जरिये एकसूत्र में पिरोने के प्रयास किये जा रहे हैं. लेकिन, हिंदुत्व के नाम पर लोगों को एक करना इतना आसान नहीं है. क्योंकि, भारत में जाति व्यवस्था ने गहरी जड़ें जमा रखी हैं. कहना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक तौर पर की जाने वाली कोशिशें भी जाति व्यवस्था के आगे कहीं न कहीं घुटने टेक ही देती है. कुछ समय पहले केंद्र की मोदी सरकार से लेकर उत्तर प्रदेश में हुए कैबिनेट विस्तार में भी जातिगत समीकरणों को साधा गया था. आसान शब्दों में कहें, तो जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए राजनीतिक से ज्यादा सामाजिक और सार्वजनिक सुधारों पर बल देना होगा, जिसकी पैरवी वीर सावरकर आजादी के पहले से ही करते रहे हैं.

वीर सावरकर चितपावन ब्राह्मण थे. लेकिन, जाति व्यवस्था को लेकर उनके विचार क्रांतिकारी थे.

वीर सावरकर एक रूढ़िवादी चितपावन ब्राह्मण परिवार से थे. लेकिन, जाति व्यवस्था को लेकर उनके विचार क्रांतिकारी थे. लंदन में पढ़ाई के दौरान वो मांसाहार करते थे, जो ब्राह्मणों में वर्जित माना जाता है. सेल्युलर जेल में कालापानी की सजा काट रहे सावरकर ने 1924 में रिहा होने के बाद रत्नागिरि में रहते हुए छुआछूत और जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए व्यापक रूप से प्रयास किये थे. जिस समय दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित माना जाता था, सावरकर ने भारी विरोध के बावजूद पतित पावन मंदिर की स्थापना की. इन मंदिरों में सवर्णों और दलितों दोनों को ही...

आरएसएस (RSS) के स्थापना दिवस और विजयादशमी के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि हिंदुओं का संगठित होना देश के लिए जरूरी है. साथ ही मोहन भागवत ये बताना नहीं भूले कि एकता में सबसे बड़ी समस्या जातिगत विषमता ही है. दरअसल, देश में लंबे समय से हिंदुत्व की परिकल्पना के सहारे भारतीय समाज को राजनीतिक, सार्वजनिक और सामाजिक सुधारों के जरिये एकसूत्र में पिरोने के प्रयास किये जा रहे हैं. लेकिन, हिंदुत्व के नाम पर लोगों को एक करना इतना आसान नहीं है. क्योंकि, भारत में जाति व्यवस्था ने गहरी जड़ें जमा रखी हैं. कहना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक तौर पर की जाने वाली कोशिशें भी जाति व्यवस्था के आगे कहीं न कहीं घुटने टेक ही देती है. कुछ समय पहले केंद्र की मोदी सरकार से लेकर उत्तर प्रदेश में हुए कैबिनेट विस्तार में भी जातिगत समीकरणों को साधा गया था. आसान शब्दों में कहें, तो जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए राजनीतिक से ज्यादा सामाजिक और सार्वजनिक सुधारों पर बल देना होगा, जिसकी पैरवी वीर सावरकर आजादी के पहले से ही करते रहे हैं.

वीर सावरकर चितपावन ब्राह्मण थे. लेकिन, जाति व्यवस्था को लेकर उनके विचार क्रांतिकारी थे.

वीर सावरकर एक रूढ़िवादी चितपावन ब्राह्मण परिवार से थे. लेकिन, जाति व्यवस्था को लेकर उनके विचार क्रांतिकारी थे. लंदन में पढ़ाई के दौरान वो मांसाहार करते थे, जो ब्राह्मणों में वर्जित माना जाता है. सेल्युलर जेल में कालापानी की सजा काट रहे सावरकर ने 1924 में रिहा होने के बाद रत्नागिरि में रहते हुए छुआछूत और जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए व्यापक रूप से प्रयास किये थे. जिस समय दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित माना जाता था, सावरकर ने भारी विरोध के बावजूद पतित पावन मंदिर की स्थापना की. इन मंदिरों में सवर्णों और दलितों दोनों को ही बिना किसी भेदभाव के प्रवेश दिया जाता था. यहां तक कि इन मंदिरों में पुजारी के भी ब्राह्मण होने की कोई अनिवार्यता नहीं थी. वीर सावरकर का मानना था कि सैकड़ों लेखों, चर्चाओं या भाषणों की अपेक्षा समाज सुधार के लिए प्रत्यक्ष रूप से कार्य किये जाने चाहिए. 'सावरकर समग्र वाङ्ग्मय' के अनुसार, वीर सावरकर ने 1931 में अपने एक निबंध 'हिंदू समाज की सात बेड़ियां' में जातिगत विषमता को खत्म करने का एक व्यावहारिक और तार्किक मत दिया था. ये हैं वो सात बेड़ियां...

1. स्पर्शबंदी: ये अलग बात है कि आज की महानगरीय संस्कृति ने छुआछूत जैसी अमानवीय कुरीति को काफी हद तक खत्म किया है. लेकिन, आज भी गांवों में निम्न जातियों के किसी को छू लेने भर पर कयामत आ जाती है. गाहे-बगाहे ऐसी घटनाएं सामने आ ही जाती हैं, जो लोगों में अंदर तक बसी इस कुरीति को सामने ले आती हैं. वीर सावरकर ने उस दौर में दलितों के गांव में प्रवेश पर लगने वाली तमाम वर्जनाओं को तोड़ने के प्रयास किये थे.

2. वेदोक्तबंदी: सावरकर ने वेदों और कर्मकाण्डों पर केवल ब्राह्मण समुदाय का ही हक होने के खिलाफ आवाज उठाई. साथ ही उन्होंने पतित पावन मंदिर के निर्माण के सहारे दलितों को पुजारी बनाने की पहल भी की. जबकि, भारत में आज भी अनुष्ठानों, और मंदिरों में पूजा के लिए अधिकतर ब्राह्मण वर्ग को ही तरजीह दी जाती है. बीते कुछ सालों में देश के कई मंदिरों में दलित वर्ग के पुजारियों की नियुक्तियां हुई हैं. लेकिन, यह भी न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना नहीं हो सका है.

3. शुद्धिबंदी: वीर सावरकर का मानना था कि किसी के भी हिंदू धर्म अपनाने पर किसी तरह की रोक नहीं होनी चाहिए. क्योंकि, जातिविहीन समाज होने पर वह हिंदू ही बनेगा और इससे हिंदुओं की संख्या बढ़ेगी. सावरकर का मानना था कि अन्य धर्म के लोगों के हिंदू धर्म में वापसी पर रोक के बारे में किसी वेद-उपनिषद में नहीं कहा गया है.

4. व्यवसायबंदी: सावरकार का स्पष्ट मत था कि किसी भी हिंदू को कोई भी काम करने और चुनने का हक मिलना चाहिए. अगर व्यक्ति में योग्यता है, तो वह किसी भी वर्ण का हो, उसे अपना व्यवसाय या पेशा चुनने की आजादी मिलनी चाहिए. उसे ऐसा करने से रोकने का अधिकार किसी के पास नहीं है. वीर सावरकर का मानना था कि सभी लोग जन्म से शूद्र होते हैं और अपने कर्मों से अपनी पहचान बनाते हैं.

5. सिंधुबंदी: कुछ जातियों और वर्गों में समुद्र की यात्रा करने या किसी दूसरे देश में जाने की वजह से जाति का नाश होने की रूढ़ि को अपनाया गया था. लेकिन, उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाई. इतना ही नहीं, वह खुद लंदन में पढ़ाई करने गए. हालांकि, अब इस तरह की रोक किसी भी जाति में नहीं है.

6. रोटीबंदी: दलितों या अन्य पिछड़ी जातियों के साथ भोजन करने को वीर सावरकर जातिगत विषमता को खत्म करने के लिए बड़ा कदम मानते थे. सावरकर का मानना था कि खाने और पीने का मामला धार्मिक नहीं है. किसी हिंदू के हाथ का बना खाना खाने पर ईसाई या मुस्लिम लोगों के धर्म का नाश नहीं होता है, तो किसी हिंदू द्वारा बनाए गए खाने से धर्म कैसे खत्म हो सकता है?

7. बेटीबंदी: अंतर-जातीय विवाह को लेकर सावरकर का मानना था कि इन विवाहों का केवल जाति के अलग होने के नाम पर विरोध करना गलत है. उन्होंने ये भी कहा कि अंतर-जातीय विवाह के निषेध को खत्म करने का ये मतलब नहीं है कि किसी की जबरन शादी करना दी जाए. प्रेम और चरित्र को देखते हुए अंतर-जातीय विवाह का प्रतिबंध खत्म होना चाहिए. ऐसे विवाह जातिगत भेद को खत्म करने के साथ ही धर्मांतरण में भी सहयोगी होंगे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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