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3 कारण क्यों मुनव्वर राणा का विरोध केवल मुस्लिम नहीं बल्कि हर साहित्य प्रेमी को करना चाहिए!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 22 अगस्त, 2021 05:29 PM
  • 22 अगस्त, 2021 05:29 PM
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तमाम लोगों की तरह शायर मुनव्वर राणा ने भी तालिबान का समर्थन करते हुए अपने दिल की भड़ास निकाली है. अब क्योंकि मुनव्वर राणा पब्लिक डोमेन से आते हैं और शायर हैं इसलिए 3 कारणों के जरिये समझिये कि उनके कहे का विरोध केवल मुसलमानों को नहीं, बल्कि हर साहित्य प्रेमी को क्यों करना चाहिए.

कुख्यात आतंकी संगठन तालिबान द्वारा अफगानिस्तान की राजनीति में महत्वपूर्ण फेर बदल कर सत्ता हथियाने के बाद मचे सियासी घमासान का सीधा असर भारत की राजनीति में भी देखा जा सकता है. मामले के मद्देनजर प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं. देश का एक बड़ा वर्ग जहां तालिबान के विरोध में मुखर होकर अपने मन की बात कह रहा है तो वहीं एक वर्ग वो भी है जो तालिबान की करतूत को जस्टिफाई कर रहा है और इस पूरे प्रकरण के लिए अमेरिका, रूस जैसे देशों को जिम्मेदार ठहरा रहा है. जैसे हालात हैं, चाहे वो तालिबान समर्थक हों या फिर विरोधी. लोगों को इससे सियासी फायदा भी मिल रहा है. तालिबान पर उनका रुख सीधे सीधे उनकी फैन फॉलोविंग को प्रभावित कर रहा है. जैसा कि हम बता चुके हैं तालिबान मामले पर एक तो वो लोग हैं जो इस मुद्दे के बल पर अपनी राजनीति चमकाना चाह रहे हैं तो वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें यूं तो इस मुद्दे से कोई मतलब नहीं है लेकिन क्योंकि इनकी आदत उड़ता तीर लेने की है ये तालिबान पर बयान दे रहे हैं और मुंह की खा रहे हैं. अपनी शायरी में 'मां' की बदौलत वाहवाही लूटने वाले शायर मुनव्वर राणा का भी हाल कुछ ऐसा ही है. मुनव्वर ने तालिबान के समर्थन में बयान दिया है और बयान के फौरन बाद से, अपने आलोचकों के अलावा फैंस तक से तमाम तरह की लानत मलामत बटोर रहे हैं.

तालिबान को अपने समर्थन से मुनव्वर राणा ने पूरे साहित्य जगत को शर्मसार कर दिया है

क्या कहा था मुनव्वर राणा ने

तालिबान का समर्थन करते हुए शायर मुनव्वर राणा ने कहा है कि जितनी क्रूरता अफगानिस्तान में है, उससे ज्यादा क्रूरता तो हमारे यहां (भारत) पर ही है. पहले रामराज था, लेकिन अब कामराज है, अगर राम से काम है तो ठीक वरना कुछ नहीं. हिन्दुस्तान को तालिबान से डरने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि अफगानिस्तान से जो...

कुख्यात आतंकी संगठन तालिबान द्वारा अफगानिस्तान की राजनीति में महत्वपूर्ण फेर बदल कर सत्ता हथियाने के बाद मचे सियासी घमासान का सीधा असर भारत की राजनीति में भी देखा जा सकता है. मामले के मद्देनजर प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं. देश का एक बड़ा वर्ग जहां तालिबान के विरोध में मुखर होकर अपने मन की बात कह रहा है तो वहीं एक वर्ग वो भी है जो तालिबान की करतूत को जस्टिफाई कर रहा है और इस पूरे प्रकरण के लिए अमेरिका, रूस जैसे देशों को जिम्मेदार ठहरा रहा है. जैसे हालात हैं, चाहे वो तालिबान समर्थक हों या फिर विरोधी. लोगों को इससे सियासी फायदा भी मिल रहा है. तालिबान पर उनका रुख सीधे सीधे उनकी फैन फॉलोविंग को प्रभावित कर रहा है. जैसा कि हम बता चुके हैं तालिबान मामले पर एक तो वो लोग हैं जो इस मुद्दे के बल पर अपनी राजनीति चमकाना चाह रहे हैं तो वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें यूं तो इस मुद्दे से कोई मतलब नहीं है लेकिन क्योंकि इनकी आदत उड़ता तीर लेने की है ये तालिबान पर बयान दे रहे हैं और मुंह की खा रहे हैं. अपनी शायरी में 'मां' की बदौलत वाहवाही लूटने वाले शायर मुनव्वर राणा का भी हाल कुछ ऐसा ही है. मुनव्वर ने तालिबान के समर्थन में बयान दिया है और बयान के फौरन बाद से, अपने आलोचकों के अलावा फैंस तक से तमाम तरह की लानत मलामत बटोर रहे हैं.

तालिबान को अपने समर्थन से मुनव्वर राणा ने पूरे साहित्य जगत को शर्मसार कर दिया है

क्या कहा था मुनव्वर राणा ने

तालिबान का समर्थन करते हुए शायर मुनव्वर राणा ने कहा है कि जितनी क्रूरता अफगानिस्तान में है, उससे ज्यादा क्रूरता तो हमारे यहां (भारत) पर ही है. पहले रामराज था, लेकिन अब कामराज है, अगर राम से काम है तो ठीक वरना कुछ नहीं. हिन्दुस्तान को तालिबान से डरने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि अफगानिस्तान से जो हजारों बरस का साथ है उसने कभी हिन्दुस्तान को नुकसान नहीं पहुंचाया है.

बात वजनदार लगे इसके लिए राणा ने अजीबोगरीब तर्कों का सहारा लिया है और कहा है कि जब मुल्ला उमर की हुकूमत थी तब भी उसने किसी हिन्दुस्तानी को नुकसान नहीं पहुंचाया, क्योंकि उसके बाप-दादा हिन्दुस्तान से ही कमा कर ले गए थे. राणा मानते हैं कि जितनी एके-47 उनके पास नहीं होंगी, उतनी तो हिन्दुस्तान में माफियाओं के पास हैं. तालिबानी तो हथियार छीनकर और मांगकर लाते हैं, लेकिन हमारे यहां माफिया तो खरीदते हैं.

ये तो सीएए प्रोटेस्ट के दौरान ही जाहिर हो चुका था कि मुनव्वर राणा भाजपा और योगी आदित्यनाथ से नफरत करते हैं लेकिन ये नफरत कितनी और किस हद तक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राणा ने तालिबान की तुलना यूपी से की है.

अपने बयान में राणा ने कहा था कि उत्तर प्रदेश में भी थोड़े बहुत तालिबानी हैं, यहां सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि हिंदू तालिबानी भी होते हैं. आतंकवादी क्या मुसलमान ही होते हैं, हिन्दू भी होते हैं.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मेंबर सज्जाद नोमानी और उत्तर प्रदेश के संभल से समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क के बाद मुनव्वर राणा का ये बयान इसलिए भी निंदनीय है क्योंकि वो पब्लिक डोमेन से आते हैं और मुसलमानों के अलावा हिंदुओं की भी एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो 'शायर' मुनव्वर राणा को फॉलो करती है.

चूंकि मुनव्वर राणा पब्लिक डोमेन से हैं, लाखों में फॉलोवर रखते हैं. नामी गिरामी शायर हैं तो आइये विस्तार से नजर डालें उन तीन कारणों पर जिनके चलते तालिबान और उसकी कट्टरपंथी विचारधारा का समर्थन करने वाले शायर मुनव्वर राणा का विरोध केवल मुसलमानों को नहीं बल्कि हर एक साहित्य प्रेमी को करना चाहिए.

1- उर्दू लिटरेचर के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड

उर्दू भाषा के तमाम जानकर ऐसे हैं जिनका मानना है कि मुन्नवर राणा शायरी के नहीं बल्कि अय्यारी (धूर्तता) के मालिक है. खुद को 'उर्दू अदब' का बड़ा शायर दिखाने का दावा जितना मुनव्वर राणा ने किया है शायद ही किसी और में किया हो. थोड़े बहुत उर्दू के और हिंदी पट्टी की बड़ी संख्या इसलिए उनकी प्रशंसक है क्योंकि उन्होंने 'आशिक' 'माशूक' 'चांद-तारों' 'दिल' 'इश्क़' 'मुहब्बत' से इतर 'मां' पर शायरी की और बिल्कुल जुदा अंदाज में की.

शायद यही वो कारण है कि मुनव्वर उर्दू अदब के उस मसनद पर बैठे हैं जिसपर कभी ग़ालिब, ज़ौक़, मीर, मोमिन जैसों की बादशाहत थी. अगर मुनव्वर की शायरी को सुनें और गहनता से उसका अवलोकन करें तो मिलेगा कि राणा की शायरी में उर्दू कम है लेकिन तुकबंदी कहीं ज्यादा है. ख़ैर अब जबकि विवादों में हैं तो ज्यादा क्या ही बात करना.

लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि 2014 में मुनव्वर को उर्दू भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था. भले ही 2015 में मुनव्वर अवार्ड वापसी कर चुके हों लेकिन उन्हें तालिबान का समर्थन करने से पहले कम से कम एक बार तो अवश्य ही इस बात को सोचना चाहिए था कि हिंदुस्तान और यहां की आवाम ने उन्हें वो स्थान दिया जिसे पाने के लिए कोई भी व्यक्ति एड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा देता है.

2- 'मां' के कारण उर्दू/ हिंदी फैंस का मुनव्वर को मां का मैसेंजर मान लेना.

धर्म कोई भी हो, ग्रंथ कैसा भी हो तारीख गवाह है कि मां का मर्तबा सभी रुतबों में बड़ा है. ये एक ऐसा मुद्दा है जो पत्थर पिघला सकता है. सख्त से सख्त दिल मोम कर सकता है. मुनव्वर राणा से पहले की होगी किसी ने मां पर शेरों / शायरी/ कविताएं लेकिन मुनव्वर का कैनवस उनसे कहीं बड़ा, कहीं ज्यादा ममतामय था इसलिए साहित्य प्रेमियों ने धर्म जाति पंथ, संप्रदाय छोड़कर उसे हाथों हाथ लिया.

अपनी शायरियों में जैसा रुख एक मां के प्रति मुनव्वर का है. ये कहना हमारे लिए अतिशयोक्ति न होगा कि अपने कैन्वस पर मुनव्वर ने ख़ुद को मां का मैसेंजर दिखाने का प्रयास किया और देश के लोग भी इतने भोले कि उनके इस ट्रैप में फंस गए.

अब चूंकि एक जनकवि की छवि बना चुके मुनव्वर राणा ने एक बहुत ओछी और बेहूदा बात की है तो जनता/ फैन/ साहित्य प्रेमी ख़ुद इस बात को बताएं कि क्या मौजूदा परिस्थितियों में मुनव्वर राणा को मां का मैसेंजर कहलाने और ख़ुद को जनकवि कहने का हक़ है? जवाब हमारे सामने है.

3- शायर/ कवि शायरी करे कविताएं लिखे उसकी तुष्टिकरण की पॉलिटिक्स थू के काबिल, निंदनीय है.

शायर / कवि का काम शायरी करना कविताएं लिखना है. ऐसे में चाहे वो शेर हों या फिर कविता ये एक कला है और कला को लेकर परिभाषा यही कहती है कि कला अनुभूति की अभिव्यक्ति है. वहीं शिक्षाविदों की एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसका मानना है कि लेखन चाहे वो किसी भी भाषा में हो ऐसा व्यक्ति न केवल बुद्धिजीवी की श्रेणी में रखा जाता है बल्कि देव तुल्य भी है.

यानी चाहे शायर हो या कवि उसका मर्तबा एक आम आदमी से कहीं ज्यादा ऊपर है. ऐसे में अगर यही व्यक्ति सिर्फ अपनी जाति धर्म को संतुष्ट करने के लिए तुष्टिकरण करते हुए पॉलिटिक्स कर रहा हो तो क्या उसे साहित्य की बुलंदी पर रहने का अधिकार है?

हम यही चाहते है कि तमाम साहित्य प्रेमी मुनव्वर राणा द्वारा देश, साहित्य और फैंस के साथ किये गए धोखे के विरोध में एकजुट हों और दिखाएं मुनव्वर राणा को कि वो फैंस जो उन्हें फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं वही फैंस उन्हें अर्श से वापस फर्श पर पटकने का पूरा सामर्थ्य रखते हैं. 

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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