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UP civic polls 2017 : भाजपा की जीत का सेहरा अखिलेश के सिर जाता है

    • शरत प्रधान
    • Updated: 04 दिसम्बर, 2017 11:21 AM
  • 04 दिसम्बर, 2017 11:21 AM
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लोकसभा में 80 में से 73 सीटें, उत्तर प्रदेश में 403 में से 324 सीट और अब निकाय चुनावों में विपक्ष का सूपड़ा साफ करके भाजपा ने 2019 तक जनता के बीच अपनी पैठ बनाने का रास्ता साफ कर लिया है.

1 दिसम्बर को घोषित यूपी निकाय चुनावों के रिजल्ट में भाजपा की जीत अप्रत्याशित नहीं थी. पूरे चुनावी प्रकरण पर नजर रखने वालों को ये बात पहले से ही पता थी. इस चुनाव के लिए न सिर्फ बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी बल्कि खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया था. और यही कारण है कि निकाय चुनावों में प्रचार का जिम्मा भी अपने ही हाथों में ले लिया था.

यही वजह थी कि अब से पहले तक जरुरी नहीं समझे जाने वाले निकाय चुनावों में हर राजनीतिक पार्टी ने अपने टॉप लीडरशीप को उतार दिया था. निकाय चुनावों में भाजपा को एक और चीज ने बहुत फायदा पहुंचाया वो थी मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी का अप्रत्याशित समर्पण. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार में दिलचस्पी लेना तो दूर, एक बार भी कैंपेन के लिए अपने घर से कदम रखने की भी जहमत नहीं उठायी. ऐसे में निकाय चुनावों में भाजपा की जीत का कुछ सेहरा तो विपक्ष की तरफ से 'वॉक आउट' करने को भी दिया जाना चाहिए. आखिर इसी वजह से बिना किसी मजबूत विपक्ष के भाजपा को एक खुला मैदान मिला और वो उसे जीतने में कामयाब रही.

वैसे अखिलेश यादव ने इस चुनाव में इतनी बेरुखी क्यों बरती ये एक राज ही हैं और इसके बारे में जितनी मुंह उतनी बातें हो रही हैं. एक तरफ जहां कुछ लोग इसे योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव के बीच हुई एक डील का हिस्सा बता रहे हैं. तो वहीं कुछ का मानना है कि अखिलेश यादव मार्च 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार को अभी तक पचा नहीं पाए हैं. इसलिए उन्होंने इन चुनावों से दूरी बनाए रखी. विधानसभा चुनावों में भाजपा को 403 में से 324 सीटें मिली थीं. और इतनी बड़ी हार को अखिलेश यादव अभी तक स्वीकार नहीं पाए हैं.

कांग्रेस के लिए भी ये एक तरह से हार ही के समान है. क्योंकि कांग्रेस पार्टी अपने गढ़ और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के संसदीय सीट अमेठी में भी अपनी सीट बचा नहीं पाई. हां ये और बात है कि अमेठी के दोनों नगर पालिका सीटों पर भाजपा को भी जीत नहीं मिली बल्कि एक सीट सपा और एक...

1 दिसम्बर को घोषित यूपी निकाय चुनावों के रिजल्ट में भाजपा की जीत अप्रत्याशित नहीं थी. पूरे चुनावी प्रकरण पर नजर रखने वालों को ये बात पहले से ही पता थी. इस चुनाव के लिए न सिर्फ बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी बल्कि खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया था. और यही कारण है कि निकाय चुनावों में प्रचार का जिम्मा भी अपने ही हाथों में ले लिया था.

यही वजह थी कि अब से पहले तक जरुरी नहीं समझे जाने वाले निकाय चुनावों में हर राजनीतिक पार्टी ने अपने टॉप लीडरशीप को उतार दिया था. निकाय चुनावों में भाजपा को एक और चीज ने बहुत फायदा पहुंचाया वो थी मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी का अप्रत्याशित समर्पण. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार में दिलचस्पी लेना तो दूर, एक बार भी कैंपेन के लिए अपने घर से कदम रखने की भी जहमत नहीं उठायी. ऐसे में निकाय चुनावों में भाजपा की जीत का कुछ सेहरा तो विपक्ष की तरफ से 'वॉक आउट' करने को भी दिया जाना चाहिए. आखिर इसी वजह से बिना किसी मजबूत विपक्ष के भाजपा को एक खुला मैदान मिला और वो उसे जीतने में कामयाब रही.

वैसे अखिलेश यादव ने इस चुनाव में इतनी बेरुखी क्यों बरती ये एक राज ही हैं और इसके बारे में जितनी मुंह उतनी बातें हो रही हैं. एक तरफ जहां कुछ लोग इसे योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव के बीच हुई एक डील का हिस्सा बता रहे हैं. तो वहीं कुछ का मानना है कि अखिलेश यादव मार्च 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार को अभी तक पचा नहीं पाए हैं. इसलिए उन्होंने इन चुनावों से दूरी बनाए रखी. विधानसभा चुनावों में भाजपा को 403 में से 324 सीटें मिली थीं. और इतनी बड़ी हार को अखिलेश यादव अभी तक स्वीकार नहीं पाए हैं.

कांग्रेस के लिए भी ये एक तरह से हार ही के समान है. क्योंकि कांग्रेस पार्टी अपने गढ़ और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के संसदीय सीट अमेठी में भी अपनी सीट बचा नहीं पाई. हां ये और बात है कि अमेठी के दोनों नगर पालिका सीटों पर भाजपा को भी जीत नहीं मिली बल्कि एक सीट सपा और एक निर्दलीय के खाते में गई. दिलचस्प बात तो ये है कि एक तरफ जहां भाजपा को पूरे प्रदेश में जीत हाथ लगी वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर में भाजपा प्रत्याशी को हार का मुंह देखना पड़ा. यहां से भी निर्दलीय ने बाजी मार ली. यहां से खुद सीएम योगी ने वोटिंग की थी.

अखिलेश यादव ने वॉक आउट देकर अपनी ही जड़ें कमजोर कर ली

इस चुनाव में सबसे ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे बसपा के लिए आए जिसने मेयर की दो सीटों पर कब्जा जमा लिया. भाजपा के 14 उम्मीदवारों ने मेयर की सीट पर जीत दर्ज की तो उसके मुकाबले बसपा के दो प्रत्याशियों का मेयर के पद पर काबिज होना मायने रखता है. मार्च के विधानसभा चुनावों के बाद से हताश पार्टी के लिए ये संजीवनी से कम नहीं. मेरठ और अलीगढ़ में पार्टी प्रत्याशी का जीतना दिखाता है कि मुस्लिम वोटर पार्टी की तरफ आकर्षित हो रहे हैं. किसी मजबूत सपा प्रत्याशी की कमी का फायदा बसपा प्रत्याशी को मिला और स्थानीय मुस्लिम समुदाय का वोट उनके हिस्से चला गया.

आलम ये है कि खुद सपा के नेता हैरान हैं कि क्यों अखिलेश यादव ने परोक्ष रूप से भाजपा के सामने समर्पण कर दिया. सपा नेताओं के बीच ये बात चर्चा का विषय बनी हुई है. लेकिन एक बात जो अखिलेश यादव समझने में नाकाम रहे वो ये कि इन निकाय चुनावों का प्रभाव 2019 के लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिलेगा. किसी को ये बात समझ नहीं आ रही कि आखिर क्यों कई महत्वपूर्ण सीटों पर सपा प्रमुख ने डमी उम्मीदवार खड़ा कराए. जबकि वहां पर वो भाजपा को टक्कर दे सकते थे. इसमें राजधानी लखनऊ के मेयर की सीट भी शामिल है. यहां से सपा के उम्मीदवार का समाजवाद और समाजवादी पार्टी से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था. उनका राजनीति से नाता सिर्फ इतना था कि वो महान समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव के पोते की पत्नी हैं. वो आचार्य नरेंद्र देव जिनकी मृत्यु हुए 60 साल से ऊपर हो गए. आचार्य नरेंद्र देव के बारे में पार्टी के कार्यकर्ताओं की जानकारी सिर्फ इतनी है कि पार्टी ऑफिस और पार्टी के नेता के घर में इनकी तस्वीर टंगी हुई दिखती है.

सिर्फ लखनऊ में ही सपा ने कमजोर उम्मीदवार खड़े नहीं किए. बल्कि कम से कम तीन जगहों पर उन्होंने मेयर के पद के लिए कमजोर उम्मीदवार को जगह दी. इसमें से एक सीट भाजपा के पाले में तो बाकी के दो बसपा की झोली में गए.

लोकसभा में 80 में से 73 सीटें, उत्तर प्रदेश में 403 में से 324 सीट और अब निकाय चुनावों में विपक्ष का सूपड़ा साफ करके भाजपा ने 2019 तक जनता के बीच अपनी पैठ बनाने का रास्ता साफ कर लिया है. बहुत संभव है कि पार्टी अब अपने हिदुत्व एजेंडे को और जोर-शोर से प्रचारित करेगी. लेकिन ये भी उतना ही सच है कि अब पार्टी और योगी आदित्यनाथ पर जिम्मेदारियों का बोझ और बढ़ गया है. पहले की तरह अब अपनी नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने का ऑप्शन उनके साथ खत्म हो चुका है. अब अपने हर काम और नाकामी के जिम्मेदार वो खुद होंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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