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महज कागजी न रहे बच्चों की सहभागिता का सवाल

    • जावेद अनीस
    • Updated: 05 जनवरी, 2023 07:22 PM
  • 05 जनवरी, 2023 07:21 PM
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दुनिया के अधिकतर समाजों में बच्चों की भागीदारी को लेकर गंभीरता दखने को नहीं मिलती है. न तो सरकार और न ही समाज बच्चों की आवाज को इस काबिल मानती है कि सुनी जाए. वे सोचते हैं कि बच्चे खुद से सोचने, समझने, निर्णय लेने और किसी मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करने लायक नहीं हैं.

दुनिया के अधिकतर समाजों में बच्चों की भागीदारी को लेकर गंभीरता दखने को नहीं मिलती है. यह एक नयी अवधारणा है अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौता 1989 के अंतर्गत पहली बार इतने बड़े पैमाने पर बच्चों के और सहभागिता के महत्त्व ओ स्वीकार किया गया. सहभागिता के अधिकार के अंतर्गत बच्चों को उनसे सम्बंधित क्रियाकलापों, प्रतिक्रियाओं और निर्णयों में भाग लेने का अधिकार दिया गया है. सहभागिता के अधिकार में बच्चों को समान व स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को अभिव्यक्त करने, जरूरी सूचना और जानकारी जानने, अपने विचारों तथा विवेक के प्रति सम्मान, अपनी उम्र और परिपक्वता के अनसार संघों में शामिल होने जैसे अधिकार शामिल हैं.

हमारे देश में बच्चों के सहभागिता को बढ़ावा देने को लेकर कुछ योजनायें और नीतियाँ बनाई हैं जिसमें प्रमुख बच्‍चों के लिए राष्ट्रीय बाल नीति 2013 और बच्चों के लिए राष्‍ट्रीय कार्य योजना, 2016 शामिल हैं. राष्‍ट्रीय कार्य योजना में चार प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के रूप में एक सहभागिता को भी शामिल किया है.इसी तरह 2013 में राष्ट्रीय बाल नीति 2013 बनी जो बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और यह नीति अधिकार आधारित है और बाल अधिकारों को ध्यान में रखते हुए ही बनाई गयी है. यह बच्चों को उनके आयु और परिपक्वता के स्तर के अनुरूप उपयुक्त अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ एक व्यक्ति के रूप में देखती है. इसमें जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में ऐसा तंत्र विकसित करने की वकालत की गयी है जहाँ बच्चे बिना किसी डर के अपनी बात रख सकें. इस नीति में बच्चों के सहभागिता को लेकर भी प्रावधान किये गए हैं.

कितना अच्छा रहेगा कि एक समाज के रूप में हम बच्चों को उनके अधिकारों से वंचित न रखें

इस नीति के अनुसार राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी है कि बच्चे अपने...

दुनिया के अधिकतर समाजों में बच्चों की भागीदारी को लेकर गंभीरता दखने को नहीं मिलती है. यह एक नयी अवधारणा है अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौता 1989 के अंतर्गत पहली बार इतने बड़े पैमाने पर बच्चों के और सहभागिता के महत्त्व ओ स्वीकार किया गया. सहभागिता के अधिकार के अंतर्गत बच्चों को उनसे सम्बंधित क्रियाकलापों, प्रतिक्रियाओं और निर्णयों में भाग लेने का अधिकार दिया गया है. सहभागिता के अधिकार में बच्चों को समान व स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को अभिव्यक्त करने, जरूरी सूचना और जानकारी जानने, अपने विचारों तथा विवेक के प्रति सम्मान, अपनी उम्र और परिपक्वता के अनसार संघों में शामिल होने जैसे अधिकार शामिल हैं.

हमारे देश में बच्चों के सहभागिता को बढ़ावा देने को लेकर कुछ योजनायें और नीतियाँ बनाई हैं जिसमें प्रमुख बच्‍चों के लिए राष्ट्रीय बाल नीति 2013 और बच्चों के लिए राष्‍ट्रीय कार्य योजना, 2016 शामिल हैं. राष्‍ट्रीय कार्य योजना में चार प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के रूप में एक सहभागिता को भी शामिल किया है.इसी तरह 2013 में राष्ट्रीय बाल नीति 2013 बनी जो बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और यह नीति अधिकार आधारित है और बाल अधिकारों को ध्यान में रखते हुए ही बनाई गयी है. यह बच्चों को उनके आयु और परिपक्वता के स्तर के अनुरूप उपयुक्त अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ एक व्यक्ति के रूप में देखती है. इसमें जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में ऐसा तंत्र विकसित करने की वकालत की गयी है जहाँ बच्चे बिना किसी डर के अपनी बात रख सकें. इस नीति में बच्चों के सहभागिता को लेकर भी प्रावधान किये गए हैं.

कितना अच्छा रहेगा कि एक समाज के रूप में हम बच्चों को उनके अधिकारों से वंचित न रखें

इस नीति के अनुसार राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी है कि बच्चे अपने अधिकारों के बारे में जाने. उन्हें अपने कौशल और क्षमता को विकसित करने के लिए सही वातावरण, अवसर और सहयोग प्राप्त हो. उनकी उम्र और परिपक्वता के अनुसार उनकी इच्छा और विचारों को व्यक्त करने का मौका मिले, ताकि वो सक्रिय रूप से अपने स्वयं के विकास और अपने से संबंधित सभी मामलों में भागीदारी कर सकें. राज्य बच्चों (खासकर बालिकाओं), विकलांग बच्चों, अल्पसंख्यक समूह या हाशिए के समुदाय के बच्चों के विचारों को परिवार के भीतर, समुदाय, स्कूलों, संस्थानों, शासन के विभिन्न स्तर, न्यायिक स्तर पर और सम्बंधित प्रशासनिक कार्यवाही में बढ़ावा देगा और उसे मजबूत करेगा.

सरकार ऐसा शिकायत निवारण तंत्र विकसित करेगी जिसमें बच्चे बिना डरे अपनी शिकायत कर सकेगें यानी सरकार बच्चों से सम्बंधित सभी स्टेकहोल्डर जैसे व्यक्ति, परिवार, स्थानीय समुदाय, गैरसरकारी संगठन, मीडि़या, निजी क्षेत्र को शामिल कर ऐसा तंत्र विकसित करेगा जहाँ वो निडर हो कर अपनी बात रख सकेंगें. नीति में कहा गया है कि बच्चों की भागीदारी के लिए निगरानी योग्य मापदंडों को बनाया जाएगा और उसकी प्रभावी क्रियान्वयन की निगरानी की जायेगी. बच्चे की भागीदारी के लिए विभिन्न मॉडल विकसित किया जाएगा और बच्चों से सम्बंधित अनुसंधान और बेस्ट प्रेक्टिस का दस्तावेजीकरण किया जाएगा.

नीति के अनुसार बच्चों के अधिकारों के प्रति समुदाय में संवेदनशील और जागरुकता लाने के लिए सरकार अन्य स्टेकहोल्डर के साथ मिलकर संयुक्त प्रयास करेगा. इस नीति की छाया में अगर यह देखा जाए कि बच्चों की भागीदारी को लेकर जो बातें कही गयी है वो जमीनी स्तर पर कितनी लागू हुई हैं तो सरकारों द्वारा इस दिशा में कुछ कदम उठाये गये हैं,जैसे सभी शासकीय स्कूलों में बाल केबिनेट का गठन किया गया है जिसका मुख्य उद्देश्य बच्चों की भागीदारी बढ़ाना, उनमें नेतृत्व का विकास करना और सामूहिकता की भावना विकसित करना है.

इसी प्रका से प्रत्येक गावं में ग्राम पंचायत स्तरीय बाल संरक्षण समिति गठित करने का प्रावधान किया गया है, जिसमें 2 बाल प्रतिनिधि (कम से कम एक लड़की) होते हैं ये बाल प्रतिनिधि 14 साल से ऊपर के होते हैं. ये प्रतिनिधि समिति में बच्चों से सम्बंधित विषय उठाते हैं और गावं के अन्य विषयों पर बाल नजरिये से चर्चाओं और निर्णयों में भाग लेते हैं. इसी कड़ी में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा स्कूलों को स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं कि वो अपने स्कूल में शिकायत पेटी लगाये जहां बच्चे अपनी शिकायत को डाल सकें. लेकिन सरकारों द्वारा किये ये प्रयास एक तो नाकाफी हैं साथ ही जमीन पर परिलक्षित होते हुए नहीं देखते हैं.

असल बात तो यह है कि न तो सरकार और न ही समाज बच्चों की आवाज को इस काबिल मानती है कि सुनी जाए. बच्चों की अपनी भी सोच और समझ होती है इस बात को नकार दिया जाता है. उनके द्वारा बोले गए बातों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता है. बड़े ये मानते ही नहीं है कि बच्चों का अपना स्वतन्त्र विचार और नजरिया हो सकता है. वे सोचते हैं कि बच्चे खुद से सोचने, समझने, निर्णय लेने और किसी मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करने के योग्य नहीं हैं.  लेकिन दूसरी तरफ बच्चों से यह उम्मीद भी की जाती है कि वे बड़े होकर हो कर वह एक अच्छा नागरिक बनेंगें, देश विकास में सहयोग देंगें, अन्याय के खिलाफ बोलेंगें.

लेकिन बचपन से तो उसे चुप रहने की ही ट्रेनिंग दी जाती है तो धीरे धीरे वो अपने नजरिये को व्यक्त करना ही भूल जाते हैं और समाज के बने बनाये ढर्रे में चल पड़ते हैं और भीड़ का हिस्सा बन कर खो जाते हैं.दरअसल बच्चे चाहते हैं कि उनकी बातों को भी महत्त्व दिया जाए, परन्तु परिवार, स्कूल, समाज और सरकार में भी उन्हें अपने विचारों को रखने का कोई जगह मिलता है. जबकि इन सभी जगहों पर जो भी निर्णय लिए जाते हैं उससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बच्चे भी प्रभावित होते हैं. बच्चों की सहभागिता बढ़ाने के लिए गंभीरता से प्रयास करना होगा. बच्चों को एक व्यक्ति के तौर पर देखना होगा. परिवार, समाज, संस्थानों और सरकारों को समझना होगा कि बच्चों की भागीदारी उनके जीवन के सम्पूर्ण विकास के लिए भी बहुत जरुरी है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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