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आखिरकार गरीब सवर्ण की येन केन प्रकारेण सुनी सुप्रीम कोर्ट ने...

    • prakash kumar jain
    • Updated: 10 नवम्बर, 2022 08:06 PM
  • 10 नवम्बर, 2022 08:06 PM
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सवाल उठता है सर्वोच्च न्यायालय क्यों कर एक कानूनी प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा कर देता है? क्या महामहिम की मर्यादा कमतर नहीं होती? और अब उस संशय की सुनवाई कहां होगी जो जनवरी 2019 से, जब कानून बना, घर कर गया था इस कानून के क्रियान्वयन में?

मन भर-भर उठता है ऐसा कहने में क्योंकि बहुमत के फैसले से असहमत जजों के तर्कों को ऊपर रखा जा रहा है. खैर! सौ बातों की एक बात है कि संसद का मान रह गया. वरना तो एक पैटर्न सा बन गया है संसद के बनाये कानूनों को चुनौती देने का. मन विचलित जरूर होता है और सवाल उठता है सर्वोच्च न्यायालय क्योंकर एक कानूनी प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा कर देती है? क्या महामहिम की मर्यादा कमतर नहीं होती ? और अब उस संशय की सुनवाई कहां होगी जो जनवरी 2019 से, जब कानून बना, घर कर गया था इस कानून के क्रियान्वयन में ? आर्थिक रूप से कमजोर तबके या इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन (ईडब्ल्यूएस) के तहत वे परिवार आते हैं, जिनकी कुल पारिवारिक आय एक साल में 8 लाख रुपये से कम हो. संसद के दोनों सदनों द्वारा इस 103 वें संवैधानिक संशोधन को पास करने के बाद जनवरी 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस पर मुहर लगाकर इसे कानून बना दिया था. अब जब पांच जजों की बेंच ने 3:2 के बहुमत से सरकार के इस संशोधन को वैध करार दे दिया है तो तमाम स्टेकहोल्डर्स ने राहत की सांस ली है. सर्वोच्च अदालत ने माना है कि बेहद गरीब अगड़ी जातियों को 10 फीसदी आरक्षण से संविधान के मूलभूत ढांचे को कोई खतरा नहीं है और ना ही इस 10 फीसदी आरक्षण के दायरे से एससी, एसटी, एसईबीसी और ओबीसी को बाहर रखे जाने से समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है.

आरक्षण पर अपना पक्ष रख सुप्रीम कोर्ट के जजों ने देश के लोगों पड़ने का मौका दे दिया है

असहमत जजों को दलील हजम नहीं हुई कि ईडब्ल्यूएस कोटे में एससी, एसटी और ओबीसी को शामिल करने से उन्हें 'दोहरा लाभ' होगा. उनका कहना था कि सामाजिक तौर पर पिछड़ी जातियों को मिलने वाले लाभ को ‘फ्री पास’ की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. दो असहमत जजों में से एक देश के चीफ जस्टिस यूयू ललित (जो फैसले के...

मन भर-भर उठता है ऐसा कहने में क्योंकि बहुमत के फैसले से असहमत जजों के तर्कों को ऊपर रखा जा रहा है. खैर! सौ बातों की एक बात है कि संसद का मान रह गया. वरना तो एक पैटर्न सा बन गया है संसद के बनाये कानूनों को चुनौती देने का. मन विचलित जरूर होता है और सवाल उठता है सर्वोच्च न्यायालय क्योंकर एक कानूनी प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा कर देती है? क्या महामहिम की मर्यादा कमतर नहीं होती ? और अब उस संशय की सुनवाई कहां होगी जो जनवरी 2019 से, जब कानून बना, घर कर गया था इस कानून के क्रियान्वयन में ? आर्थिक रूप से कमजोर तबके या इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन (ईडब्ल्यूएस) के तहत वे परिवार आते हैं, जिनकी कुल पारिवारिक आय एक साल में 8 लाख रुपये से कम हो. संसद के दोनों सदनों द्वारा इस 103 वें संवैधानिक संशोधन को पास करने के बाद जनवरी 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस पर मुहर लगाकर इसे कानून बना दिया था. अब जब पांच जजों की बेंच ने 3:2 के बहुमत से सरकार के इस संशोधन को वैध करार दे दिया है तो तमाम स्टेकहोल्डर्स ने राहत की सांस ली है. सर्वोच्च अदालत ने माना है कि बेहद गरीब अगड़ी जातियों को 10 फीसदी आरक्षण से संविधान के मूलभूत ढांचे को कोई खतरा नहीं है और ना ही इस 10 फीसदी आरक्षण के दायरे से एससी, एसटी, एसईबीसी और ओबीसी को बाहर रखे जाने से समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है.

आरक्षण पर अपना पक्ष रख सुप्रीम कोर्ट के जजों ने देश के लोगों पड़ने का मौका दे दिया है

असहमत जजों को दलील हजम नहीं हुई कि ईडब्ल्यूएस कोटे में एससी, एसटी और ओबीसी को शामिल करने से उन्हें 'दोहरा लाभ' होगा. उनका कहना था कि सामाजिक तौर पर पिछड़ी जातियों को मिलने वाले लाभ को ‘फ्री पास’ की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. दो असहमत जजों में से एक देश के चीफ जस्टिस यूयू ललित (जो फैसले के दिन ही रिटायर भी हो रहे थे) को तो कोटा इस आधार पर असंवैधानिक और निष्प्रभावी लगा चूंकि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है.

माननीय जजों का पूरा सम्मान है लेकिन कहे बिना रहा नहीं जा रहा कि शायद जमीनी हकीकत से वे वाकिफ नहीं है जहां  एक गरीब सवर्ण सामान्य श्रेणी का दलित ही है. दूसरी तरफ आरक्षण के तहत आने वाले कई समुदायों में उनको क्यों लाभ दिया जाता रहे जो क्रीमी लेयर में शुमार हो चुके हैं मसलन राजस्थान का मीणा समुदाय ? बहुतेरे आरक्षित समुदाय से मिल जाएंगे जिनके यहां गरीब सवर्ण चाकरी कर रहा हैं मसलन ब्राह्मण रसोइया मिल जाएगा, सवर्ण डोमेस्टिक हेल्प भी मिल जाएंगे.

दो वक्त की रोजी रोटी कमाने के किये सवर्णों का गरीब तबका बिसरा चुका है कि वह सवर्ण है. क्यों नहीं जोड़ घटाव कर ओवरऑल आरक्षण 50 फीसदी तक रखा जा सकता ? सबकी भागीदारी व समानता वाले समाज की तरफ बढ़ने के लिए समय समय पर सरकारें राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर खास कदम उठायें - आदर्श स्थिति तो वही होगी. गरीब सवर्ण की भावना व्यक्त होती एक कविता कहीं पढ़ी थी, याद आ रही है -

मैं सामान्य श्रेणी का दलित हूं साहब, मुझे आरक्षण चाहिए 

तेजाब की फैक्टरी में काम करते हुए, खुद को जलाकर मुझको पाला

आज उस पिता की बीमारी के इलाज के लिए धन चाहिए

कमजोर हो रही हैं निगाहें मां की, मुझे आगे बढ़ता देखने की चाह में

उसकी उम्मीदों को पूरा कर सकूं , उसे मेरा जीवन रोशन चाहिए

मैं सामान्य श्रेणी का दलित हूं साहब, मुझे आरक्षण चाहिए

आधी नींद में बचपन से भटक रहा हूं, किराये के घरों में

चैन की नींद आ जाये मुझे रहने को अपना मकान चाहिए

भाई मजदूरी कर पढ़ाई करता है, थकावट से चूर होकर

मजबूरियों को भुला उसे सिर्फ पढ़ने में लगन चाहिए

मैं सामान्य श्रेणी का दलित हूं साहब मुझे आरक्षण चाहिए

राखी बांधने वाली बहन जो शादी के लायक हो रही है

उसके हाथ पीले करने के लिए थोड़ा सा शगुन चाहिए

कर्ज ले-ले कर दे रहा हूं परीक्षाएं सरकारी विभागों की

लुट चुकी है आज जो कर्जदारी मे मुझे वो आन चाहिए

भूखे पेट सो जाता है परिवार कई रातों को मेरा

पेट भरने को मिल जाये मुझे दो वक़्त का अन्न चाहिए

जहां जाता हूं निगाहें नीचे रहती हैं मेरी मुझमें गुण होने के बावजूद

घृणा होती है जिंदगी से अब तो मुझे मेरा आत्मसम्मान चाहिए

मैं सामान्य श्रेणी का दलित हूं साहब, मुझे आरक्षण चाहिए

दरअसल विडंबना ही है कि आज इस इक्कीसवीं सदी में भी सिर्फ जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ देने की पुरजोर वकालत की जाती है. जबकि जरूरत है दलित को इसके शाब्दिक अर्थ के अनुरूप बिना धार्मिक या जातीय पृष्ठभूमि के नए सिरे से सिर्फ और सिर्फ आर्थिक आधार पर परिभाषित करने की ! हां , जातीय विभेद के मामले आते हैं तो बिना किसी हीलाहवाली के उन्हें सख्ती से निपटा जाना चाहिए और लीगल सिस्टम ऐसा सुनिश्चित करे तो किसे आपत्ति हो सकती है ?

यदि सही सही मूल्यांकन किया जाए तो आरक्षण को राजनीतिक पार्टियों ने हर समय हर काल में हथियार के रूप में ही यूज़ किया है. अब देखिये सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया नहीं कि राजनीति शुरू हो गई, भाजपा को श्रेय लेना ही था चूंकि संशोधन विधेयक वही लेकर आई थी, हालांकि अंदर खाने सभी नेताओं को बयानबाजी से बचने के कठोर निर्देश भी दे दिए गए हैं जातीय वोट बैंकों के मद्देनजर.

सिंपल सामान्य बयान आ गया कि यह देश के गरीबों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के ‘मिशन’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत है. उधर कांग्रेस ट्रैप में फंस गई तभी तो जहां एक तरफ गहलोत, जयराम रमेश आदि ने स्वागत करते हुए कहा कि इस कोटे का प्रावधान करने वाला संविधान संशोधन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा शुरू की गई प्रक्रिया का नतीजा था, वहीं उनके आयातित दलित नेता उदित राज ने शीर्ष अदालत के जजों को जातिवादी मानसिकता का बता दिया.

और कांग्रेस की सहयोगी पार्टी डीएमके ने इस फैसले को सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए झटका करार दे दिया. उधर लालू पार्टी ने जाति जनगणना का पुराना राग अलापा और कहा कि आरक्षण जनसंख्या में हिस्सेदारी के अनुपात में हो. स्पष्ट है जातीय समीकरण का लिहाज़ है, वोटों की राजनीति जो है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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