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दिल्ली पर न LG की मनमर्जी चलेगी और न ही केजरीवाल की 'अराजकता'

    • आईचौक
    • Updated: 04 जुलाई, 2018 01:21 PM
  • 04 जुलाई, 2018 01:21 PM
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केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल की जंग में सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के पक्ष में हुआ है. हां, विशेष परिस्थितियों में एलजी चाहें तो सीज फायर तोड़ सकते हैं. सबसे बड़ी बात केजरीवाल को 'अराजकता' की छूट नहीं मिलेगी.

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को हक के साथ आगे बढ़ने के लिए हरी झंडी तो दिखा दी है, लेकिन शर्तों के साथ कुछ रेड भी सिग्नल भी जगह जगह लगा दिये हैं.

अब दिल्ली की केजरीवाल सरकार चाहे तो दिल्ली विधानसभा में कोई भी कानून बना सकती है, सिवा पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर. मतलब, इतने अधिकार हैं कि काफी कुछ कर सकते हैं, लेकिन लोकपाल अपने बूते अब भी नहीं बना सकते. वैसे भी हाल फिलहाल केजरीवाल को लोकपाल में दिलचस्पी कम ही दिखती है.

हो सकता है अब तक की राजनीति ने केजरीवाल और उनके साथियों को ये भी सिखा दिया हो कि लोकपाल, सूचना के अधिकार और स्टिंग जैसी चीजें आंदोलन को तो सूट करती हैं, सियासत या फिर कहें सियासी प्रशासन में तो बिलकुल नहीं.

सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के पक्ष में ही दिखाई पड़ रहा है, विशेष परिस्थितियों में एलजी चाहें तो सीज फायर तोड़ सकते हैं.

दिल्ली में केजरीवाल 'सरकार राज'

केजरीवाल सरकार बनाम LG की 'जंग' में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच के तीन जजों ने कहा कि एलजी को दिल्ली सरकार की सलाह से काम करना चाहिए.

इन 3 जजों ने एक तरीके से सशर्त दिल्ली के मुख्यमंत्री को दिल्ली का बॉस माना है. कोर्ट के तीन जजों ने साफ तौर पर अपनी टिप्पणी में कहा कि जनमत के साथ अगर सरकार का गठन हुआ है, तो उसकी अपनी अहमियत है.

दिल की जंग में सुप्रीम कोर्ट का सीजफायर फैसला

देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के दो साल पुराने फैसले की कुछ बातों को छोड़ कर पूरी तरह पलट दिया है. दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 4 अगस्त, 2016 को सुनाये गये फैसले में उपराज्यपाल को ही दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख माना था. सुप्रीम कोर्ट की भी यही राय है,...

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को हक के साथ आगे बढ़ने के लिए हरी झंडी तो दिखा दी है, लेकिन शर्तों के साथ कुछ रेड भी सिग्नल भी जगह जगह लगा दिये हैं.

अब दिल्ली की केजरीवाल सरकार चाहे तो दिल्ली विधानसभा में कोई भी कानून बना सकती है, सिवा पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर. मतलब, इतने अधिकार हैं कि काफी कुछ कर सकते हैं, लेकिन लोकपाल अपने बूते अब भी नहीं बना सकते. वैसे भी हाल फिलहाल केजरीवाल को लोकपाल में दिलचस्पी कम ही दिखती है.

हो सकता है अब तक की राजनीति ने केजरीवाल और उनके साथियों को ये भी सिखा दिया हो कि लोकपाल, सूचना के अधिकार और स्टिंग जैसी चीजें आंदोलन को तो सूट करती हैं, सियासत या फिर कहें सियासी प्रशासन में तो बिलकुल नहीं.

सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के पक्ष में ही दिखाई पड़ रहा है, विशेष परिस्थितियों में एलजी चाहें तो सीज फायर तोड़ सकते हैं.

दिल्ली में केजरीवाल 'सरकार राज'

केजरीवाल सरकार बनाम LG की 'जंग' में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच के तीन जजों ने कहा कि एलजी को दिल्ली सरकार की सलाह से काम करना चाहिए.

इन 3 जजों ने एक तरीके से सशर्त दिल्ली के मुख्यमंत्री को दिल्ली का बॉस माना है. कोर्ट के तीन जजों ने साफ तौर पर अपनी टिप्पणी में कहा कि जनमत के साथ अगर सरकार का गठन हुआ है, तो उसकी अपनी अहमियत है.

दिल की जंग में सुप्रीम कोर्ट का सीजफायर फैसला

देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के दो साल पुराने फैसले की कुछ बातों को छोड़ कर पूरी तरह पलट दिया है. दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 4 अगस्त, 2016 को सुनाये गये फैसले में उपराज्यपाल को ही दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख माना था. सुप्रीम कोर्ट की भी यही राय है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि चुनी हुई सरकार पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर को छोड़ कर विधानसभा में कानून बना सकती है. इससे बिलकुल अलग, हाईकोर्ट का फैसला रहा कि दिल्ली सरकार उपराज्यपाल की मर्जी के बगैर कानून नहीं बना सकती.

हाई कोर्ट का कहना था कि उपराज्यपाल दिल्ली सरकार के फैसले को मानने के लिए किसी भी रूप से बाध्य नहीं हैं. उपराज्यपाल अपने विवेक के आधार पर फैसला ले सकते हैं, जबकि दिल्ली सरकार को कोई भी नोटिफिकेशन जारी करने से पहले उपराज्यपाल की सहमति लेनी ही आवश्यक होगी. सुप्रीम कोर्ट के तीन जज चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एके सिकरी और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के फैसले में विशेष परिस्थितियों को छोड़ कर उपराज्यपाल के अधिकार सीमित कर दिये गये हैं. इस बेंच के दो और जजों के नाम हैं - जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस अशोक भूषण.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की 7 खास बातें :

1. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने फैसला सुनाते वक्त इस बार पर खास जोर दिया कि शक्तियों में तालमेल बहुत जरूरी है.

2. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि शक्ति एक जगह केंद्रित नहीं हो सकती है.

3. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक दिल्ली के उपराज्यपाल ही संवैधानिक तौर पर दिल्ली के प्रशासक हैं.

4. कोर्ट की राय में जनमत की खास अहमियत है - सरकार जनता के लिए उपलब्ध होनी चाहिए - और, हां, कैबिनेट संसद के प्रति जवाबदेह होती है.

न मनमर्जी चलेगी, न अराजकता

5. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार केजरीवाल कैबिनेट को अपने सफी फैसलों की जानकारी उपराज्यपाल को देनी होगी, लेकिन हर मसले पर उनकी सहमति जरूरी नहीं होगी.

6. फैसला सुनाते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि उपराज्यपाल को ये बात समझनी चाहिए कि मंत्रिमंडल जनता के प्रति जवाबदेह है और वो चुनी हुई सरकार के हर काम में बाधा नहीं डाल सकते.

7. एलजी को सुप्रीम कोर्ट का साफ साफ संदेश है कि वो दिल्ली सरकार के साथ मिलकर और सलाह से काम करें.

'अराजकता' बिलकुल बर्दाश्त नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल को तो चेताया ही है, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी दो टूक आगाह कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल की ही तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री को भी मिल कर काम करने की साफ तौर पर नसीहत दी है.

जो सबसे खास बात दिल्ली के मुख्यमंत्री के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कही है, वो है - 'अराजकता' तो हरगिज नहीं चलेगी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली की स्थिति बाकी केंद्र शासित राज्यों और पूर्ण राज्यों से अलग है, इसलिए बेहतर है कि मिलजुल कर काम करें.

LG विशेष परिस्थितियों के बॉस

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के उपराज्यपाल के अधिकार विशेष परिस्थितियों में कायम रखा है. हालांकि, कोर्ट के मुताबिक, ये विशेष परिस्थितियां अपवाद स्वरूप ही होंगी. ऐसी हालत जब कैबिनेट का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री और उप राज्यपाल के बीच कानूनी और गंभीर वैचारिक असहमति की स्थिति हो, एलजी वो मसला राष्ट्रपति को रेफर कर सकते हैं.

संवेदनशील मामलों में अदालती फैसले अक्सर ऐतिहासिक होते और माने जाते हैं, दिल्ली की जंग पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक के मुकाबले बहुत हद तक व्यावहारिक माना जाना चाहिये. कोर्ट रूम में अदालत ने प्रक्रिया के तहत सिर्फ संविधान-कानून और दोनों पक्षों की दलीलों पर ही नहीं, दिल्ली में जो कुछ हो रहा है उस पर बारीकी से गौर फरमाते हुए एक बहुत ही व्यवस्थित और व्यावहारिक फैसला सुनाया है.

किसी अच्छे और कारगर फिल्टर के पानी की तरह साफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के काम और अधिकारों के बीच दो-दो लक्ष्मण रेखायें खींच दी गयी है.

मुद्दे की बात ये है कि अब उप राज्यपाल खुद को तोप समझने की गलती तो हरगिज नहीं करेंगे - और हां, केजरीवाल और उनका पूरा कुनबा भी फालतू की नौटंकी से बचने की पूरी कोशिश करेगा. अच्छी बात ये है कि ये सब दिल्ली के हित में होगा, बशर्ते असलियत में अमल भी भी आ सके तो.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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